धर्म दृष्टि… वेद और कुरान में समानता तथा कुरान पर वेदों का प्रभाव!

संसार यह जानकर हैरान हो जाएगा कि सभी धर्मों का आधार वेद ही है। वेद से ही अन्य भाषाओं का प्रदुर्भाव हुआ।
वेद से ही मूर्ति पूजा, ध्यान, नमाज, योग, आयुर्वेद, धर्म कर्मकांड, पूजा पद्धति, नदी, जल, वृक्ष तथा पंचमहाभूतों की उपासना, साधना, सिद्धि, तंत्र, मंत्र, यंत्र का अविष्कार हुआ।
दुनिया का सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ वेद से लोगों ने जीना सीखा। वेद की ऋचाओं के श्रवण से अध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है।
कुरान पर वेदों का प्रभाव विषय पर विचार करते हुए एक मूल बात यह ध्यान में रखना है कि दोनों-वेदों और कुरान–की गिनती धर्म-ग्रंथों में आती है और दोनों का आविर्भाव ईश्वरीय प्रेरणा से हुआ माना जाता है।
पैगंबर मुहम्मद तक अपने प्रवचन में कह उठे- “मुझे हिंदोस्तान की सिम्त से खुदाई खुशबू आती है।”
शायर इकबाल इसे दोहराते हुए कह गये……….
‘मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहां से’।
 
भारतीय संस्कृति ने विश्व-व्यापी प्रभाव का संप्रेषण किया। इस संदर्भ में वेद और कुरान के चिंतन-साम्य की भूमिका तलाश करते हुए इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि दोनों धर्म-ग्रंथों के दो पक्षों पर चिंतन-साम्य रहे।
दोनों ही धर्म-ग्रंथ एक सुव्यवस्थित समाज की आचार-संहिता का स्वरूप रखते हैं तथा दोनों ही एक सृष्टि-व्याप्त सत्ता के प्रति आराधना-पूर्ण समर्पण-भाव का निर्देश देते हैं।
वेद के अद्वैत-दर्शन ने तो भारत से लेकर, ईरान और अरब तक सूफी-संतों की एक लंबी कतार ही खड़ी कर दी।
 मंत्र-द्रष्टा ऋषियों को समाधि की स्थिति में मंत्र-बोध हुआ और पैगम्बर मुहम्मद साहब को भी ‘इलहाम’ समाधि की स्थिति में ही कुरान का दिव्य संदेश मिला।
 दोनों ही ईश्वर नामधारी किसी अप्रत्यक्ष सत्ता से जुड़े हैं। ऐसी स्थिति में हमें विचार करना होगा कि वेद और
कुरान की दृष्टि में ईश्वर क्या है?
समस्त धर्म, धर्म-ग्रंथ और ऋषि-पैगम्बर क्या हैं?। सबसे पहले हम इस ईश्वर-खुदा को ही व्याख्यापित करें।
वैदिक ईश्वर और कुरान का खुदा वैदिक आर्य इंद्र, मित्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता मानकर उनकी उपासना करते थे।
 ऋग्वेद में इनकी स्तुति के अनेक सूक्त हैं। लेकिन इन देवताओं को सर्वत्र-व्याप्त एक विराट सत्ता का अंश-रूप ही माना जाता था। इन सबके ऊपर एक परमेश्वर की सत्ता थी।
 ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त (१०-९०) में सहस्र शीर्ष पुरुष आदि संबोधन देकर इसी का वर्णन किया गया है, जो सृष्टि में व्याप्त हजारों मस्तक, हजारों फन, नयन, पगों वाला है।
 ऋग्वेद (३-१५-५५) में इसी ईश्वर के दो चरण, भूमि और आकाश में व्याप्त कहे गये हैं।
इसी में (७-५-४) में कहा गया है किंतु अपने तेजस् से पृथ्वी आकाश सहित सृष्टि व्याप्त और अविनाशी है। इसी स्थिति को ऋग्वेद (१०-८१) में और स्पष्ट करते हुए कहा गया है
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो 
विश्वतो बाहुरुत विश्व तस्यात्
इसी वेद में विभिन्न नामों से पुकारे जानेवाले इस एक परमेश्वर के बारे में सारे भ्रम दूर करते हुए साफ कहा गया कि विद्वान-ज्ञानी एक ही मूल तत्व परमेश्वर को इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि, मातरिश्वा गरुत्मान आदि कहकर पुकारने पर भी उसे विविध रूप धारण करने वाला एक मानते हैं।
इंद्रं मित्रं वरुणमनिमाहुरयो…
एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति …..(ऋ .१-१६४-४६)
अतः यह निर्विवाद तथ्य प्रामाणिक रूप से सामने आता है कि वेदों का परमेश्वर अनेक न होकर एक है, व्यक्ति न होकर वजूद है, अस्तित्व है, सृष्टि व्याप्त सत्ता है।
जड़-चेतन, शजर-नशर, जमीन- -आसमान, सारी कायनात में उसी वजूद की धड़कन है। अल्लाह के इसी वजूद की व्याख्या करते हुए कुरान शरीफ में इनसान की जो इबादत दर्ज है उसे सुनें तो लगता है कोई मंत्रद्रष्टा वैदिक ऋषि बोल रहा है। यथा : –
सब्बहलिल्लाहि माफिस्समावाते वल् अदें व हुवल् अजीजुल्हकीम बिकुल्ले शैइन क़दीर
 ( १-२-३, २७-५६)
 अर्थात-ये विराट सृष्टि, गगन-धरा, करे चर-अचर तेरी वंदना तेरे तत्व-दर्शी प्रभुत्व की सभी कर रहे हैं। उपासना ये ज़मीन तेरी ही मिल्कियत! तेरा अंतरिक्ष में राज है, तू जिलाता है!, तू ही मारता!, तू समर्थ राजाधिराज है नहीं! तुझसे पहले था कोई भी, तूही आदि है, तू ही अंत है!,
तू हरेक बात से बाखबर, तेरी विज्ञता तो अनंत है तू छिपा हुआ है अकल्पनीय विराट सृष्टि-प्रसार में तू प्रकट हुआ है निकट! यहीं मेरी आत्मा की पुकार में
परमेश्वर के बारे में वेद और कुरान के चिंतन-साम्य समानता के कुछ उदाहरण दखें।
इस्लाम और कुरान की बुनियादी धारणा है कि अल्लाह एक है, कोई दूसरा उसमें शरीक नहीं, कुरान ने कहा—’ला इलाहा इल्लाल्लाहा‘ अर्थात
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति।
कुरान में अद्वैत सत्ता के अस्तित्व यानी ‘वहदतुल वजूद‘ पर जोर दिया गया है।
शिव या अल्लाह के अलावा किसी स्रष्टा-शक्ति की कल्पना भी संभव नहीं।
वैदिक दर्शन के अनुसार न उसका कोई आदि है न अंत अर्थात ‘ला इब्तिदा ला इंतिहा’ है, न उसका कोई आकार है न किसी से जन्मा है, न. किसी की प्रजा है, स्वयं प्रजापति है।
 जाहिर और बातिन, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत का स्वामी सृष्टि-सर्जक और अपने तय-शुदा नियम ऋत और सत् से सबका संचालक।
नियामत वही एक अल्लाह है। यह सारा जड़ चेतन जगत उसी के नूर का जहूर है; इसी को कुरान में कहा गया—’वहदतुल वजूद खालिकुस्समावाते फिल् अर्दे‘  (सृष्टि व्याप्त स्वामी) उस परमेश्वर का अस्तित्व इतना विराट-इतना अजीम है कि सारी कायनात में फैला हुआ, साथ ही इतना सूक्ष्म कि इनसान की आत्मा में समा जाता है।
पैगंबरों, मंत्रद्रष्टा ऋषियों, सूफी संतों की रूह में बसकर उन्हें ‘फनाफिल्लाह‘ (ईश्वर में लय होने)की स्थिति में पहुंचा देता है।
 हिंदू धर्म के ईश्वरउपनिषद के अनुसार हृदय की गहन गुफा में अवस्थित हो जाता है। ये विराट, ये अजीम जब इनसान की रूह में धड़कता है, तो मंसूर पुकार उठता है।
‘अनल हक’, वैदिक ऋषि उद्घोष करता है- ‘अहम् ब्रहमास्मि’ और इनसान की आत्मा में बैठा अल्लाह कुरान शरीफ में खुद पुकार उठता है–.’इन्नी अलल्लाहे ला इलाहा इल्ला अना’, यानी ‘मैं’ के सिवा कोई दूसरा अल्लाह नहीं और इसी तथ्य को ऋषि बाल्मीकि अपनी रामायण के प्रारंभ में घोषित करते हुए कह देते हैं, सृष्टि की रचना एक अकेले ब्रह्मा ने की वेदांत कठोपनिषद पुकार उठता है—एकस्तधा सर्व भूतान्तरात्मा रूप-रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।  (२-२-९)
 अर्थात हर प्राणी का अंतर्वासी परमेश्वर है एक।
 वही एक धारण कर लेता अपने रूप अनेक।
एक ईश्वर को छोड़कर मरण धर्मा देव-पितरों की उपासना करनेवालों के विरुद्ध ईशावास्योपनिषद ने साफ शब्दों में कहा :
अंधः तमः प्रविशंति ये सम्भूति मुपासते (१२)
बहुदेववाद के विरुद्ध वेद-उपनिषद का यही एकेश्वरवादी अद्वैत दर्शन कुरान शरीफ का मूलाधार है।
विस्तार भय से अधिक उदाहरण न देकर उपनिषद के एक सूक्त के जरिये बताना चाहूंगा कि वह अल्लाह की अजमत और पूर्णता का कैसा बखान करता है, प्रथम उपनिषद् का सबसे पहला मंत्र है :
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते।
अर्थात : ईश्वर, अल्लाह, वाहेगुरु हर प्रकार से पूर्ण-पूर्ण है। वह ओंकार प्रणव परमेश्वर अपने पूर्णतत्व से रचता सकल जगत को वह अविनश्वर, अदृश्य जगत यह सारा उसी पूर्ण का पूर्ण पसारा।
वह इतना संपूर्ण है कि उसमें से यदि पूरा पूर्ण घटा दो,
तो भी सारा का सारा अक्षय पूर्ण शेष रह जाएगा।
 वेद और कुरान विज्ञान की रोशनी में….
वेद और कुरान का चिंतन जिस अल्लाह को समर्पित है-आइए उसे हम विज्ञान एवं वैज्ञानिकों की रोशनी में भी देखें।
कुरान शरीफ ने कहा, वह अजीम है। वेद ने कहा वह महान है; उसकी अजमत उसकी महानता धर्म ग्रंथों के साथ आवाज मिलाकर आज का विज्ञान भी बता रहा है उस अनादि अनंत ‘ला इब्तिदा लाइंतिहा‘ की तलाश हमारे विज्ञान ने आकाश गंगाओं-अंतरिक्ष को टटोल कर की, तो उस विराट के वजूद की वही तसवीर मिली, जो वेद और कुरान ने हमें बतायी।
 वैदिक ऋषियों को अनेक प्रकाश-वर्ष दूर स्थित आकाश गंगाओं, तीन लोकों का गहन ज्ञान था।
इन त्रिकाल दर्शियों ने ब्रह्माण्ड का कोना अपने ध्यान योग से खोज डाला था।
 प्रमाणस्वरूप ऋग्वेद की एक ऋचा उद्धृत प्रस्तुत है जिसमें इंद्र को संबोधित करते हुए कहा गया है
यद्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमिरुत स्युः न त्वा
वजिन सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी (८-७०)
अर्थात परे नयन से है जिनका अस्तित्व अभी तक,
 हैं ऐसे नक्षत्र-लोक अनगिनत सहस्त्रों, नहीं एक भूमंडल उसके अनुशासन में शत-शत सूर्यों से आलोकित अंतरिक्ष हैं।  इसी विराट अनंत ब्रह्मांड के लिए कुरान शरीफ में कहा गया :
अल्लजी जअल लकुमुल अर्दा 
महदउं व जअलालकुम् फीहा 
सोबोलल्ल अलकुम तहनदून।
१०-२५-४३
अर्थात अल्लाह ने आसमानों में झूलनेवाले पालनों
की तरह जमीनों को बनाया, उसने इसमें रास्तों
के अनेक फैलाव-विस्तार रख दिये, ताकि इनसान ढूंढ़े-खोजे, अंतरिक्ष के द्वार खोले और आज मनुष्य अंतरिक्ष के ये दरवाजे खोल रहा है।
विस्तार नाप रहा है। एक शब्द में कहा जाए, तो वेद और कुरान में वर्णित उस अजीम अल्लाह, परमेश्वर, गॉड की सही तसवीर आज के विज्ञान ने हमें बता दी है।
 इस विराट को क्या हम मंदिर, मसजिद, सिनागाग, गिरजे, गुरुद्वारों में कैद कर सकते हैं। यकीनन किसी भी कीमत पर नहीं।
हां, एक कुठला हमारे पास जरूर ऐसा है जहां इसे बंद किया जा सकता है, महसूसा जा सकता है, हमारे अंदर का कुठला, हमारी रूह-आत्मा।
वेद और कुरान का चिंतन परमेश्वर को इसी आत्मा में समा लेने की प्रवृत्ति का प्रकाशन है।
 यहीं पर आकर साकार-निराकार का द्वंद्व भी समाप्त हो जाता है। पूर्वोल्लेखित कुरान की आयतों, वेदमंत्रों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि परमेश्वर, सृष्टि-व्याप्त रूप में समष्टिमय साकार है और मनुष्य की आत्मा में अवस्थित ब्रह्म की भांति निराकार भी, उसे मनचाहे रूप में खोजा-पाया जा सकता है।
अगुन-सगुन दोउ ब्रह्म सरूपा
अकथ अगाध अनादि अनूपा।
या ये कहा जा सकता है कि –
जाकी रही भावना जैसी, हरिमूरत देखी तिन वैसी।
ईश्वर-अल्लाह के संदर्भ का समापन….  वैदिक दर्शन ने एक ईश्वर और उसके प्रति समर्पण की घोषणा के साथ दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में एक क्रांति-बीज बोया।
 उपनिषदों ने इसे व्याख्यायित कर खाद-पानी दिया, इस तरह एकेश्वरवादी अद्वैत का जो विराट वृक्ष अस्तित्व में आया, उसकी छाया में आज संसार की एक तिहाई जनसंख्या बैठी है, जो इस्लाम के नाम पर समर्पण भाव से दिव्य कुरान को अपना पवित्र और स्वीकार्य धर्म-ग्रंथ मानती है।
अतः यह भी कहा जा सकता है कि हमारे प्राचीन आध्यात्मिक देश भारत ने इस्लामी चिंतन का निर्यात किया।
इस्लामी चिंतन हमारे लिए आयातित नहीं है, (आगे यह तथ्य और स्पष्ट होगा)।
 धर्म, धर्मग्रंथ और ऋषि-पैगंबर ….वेद और कुरान दोनों ही धर्म को विभिन्न और बहुवचन न मानकर एक वचन, अभिन्न और मनुष्य जाति का अविभाज्य जीवन-दर्शन मानते हैं।
दिव्य कुरान ने तो अपने आविर्भाव से पूर्व के सारे संसार के युग-पुरुषों, ज्ञानी मनीषियों और इनके माध्यम से मनुष्य जाति को उपलब्ध सारे धर्म-ग्रंथों की पुष्टि करने के साथ ही यह भी घोषित किया कि कुरान मनुष्य को कोई नया धर्म नहीं सिखा रहा, कहा गया :मा काना हाजल कुरआनो अंय्योफ़्तरी मिन्दूनिल्लाहि बलकिन तस्दीक़ल्लजी। 
बय्नयदीहे व तफसीलकिताबे लारैबफीहे 
मिबिल आलमीन (११-१०-३७)
अर्थात कोई नूतन धर्म जगत को नहीं सिखाता दिव्य कुरान यह तो केवल उन कल्याणी शिक्षाओं का विस्तृत ज्ञान है, जिन्हें मनुज को देने आये पूर्व-काल में प्रभु के दूत ईश्वर-प्रेरित धर्म-पुस्तकों की करता है।
कुरान ने यह भी घोषणा की कि हजरत मुहम्मद से पूर्व भी प्रत्येक देश-काल में ईश्वरीय संदेशवाहक दिव्य संदेश लेकर आते रहे हैं, जिनकी संख्या एक लाख चौबीस हजार है। –
निश्चय ही भारत जैसे पुरातन आध्यात्मिक देश में तो इनकी अच्छी-खासी संख्या होनी चाहिए। हमने इन युग-पुरुषों को खुदा का बेटा कहा, उसका पैगाम लानेवालों को पैगंबर कहकर पुकारा, ईश्वर की प्रतिछाया मानकर अवतार नाम से संबोधित किया, कुरान में इनके बारे में कहा गया :
वमा मुहम्मदुन इल्ला रसुलन् कदखलत् मिनकब्जेहिर्कसुल (४-३-१४४)
अर्थात प्रभु के दूत धरा पर आते रहे निरंतर उनमें से हैं एक मुहम्मद।
परमेश्वर ने विविध देश में, विविध काल में उनसे पहले भी अनेक पैगम्बर जन-शिक्षण को भेजे।
 पैगम्बर मुहम्मद साहब अगर अरब देश में पैदा न होकर हिंदोस्तान में होते तो यह आध्यात्मिक देश उन्हें भी बुद्ध और महावीर की भांति मान्यता देकर अपनी श्रद्धा-अर्पित करता। यहां तो चार्वाक चिंतन के भी ऋषि- -उद्भूत माना गया है।
कर्मकार, उपासना का तरीका, धर्म-आचार आदि की त्रता होते हुए भी धर्म एक है, जैसे यह सारी जात्रो वो मनुष्य जाति के लिए एक है।
इस बारे में अथर्ववेद ने घोषणा की :
जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं, नानाधर्माणं
पृथ्वी यथौकसम् (१२-१-४५)
अर्थात  विविध धर्म-आचार किंतु सभी का एक निकेतन सी यह धरती सबको एक समान भाव से धारण करती देती अपना प्यार !
इसी तथ्य का खुलासा करते हुए कुरान में कहा गया।
ही धर्म-ग्रंथ एक सुव्यवस्थित समाज की आचार-संहिता का स्वरूप रखते हैं तथा दोनों ही एक सृष्टि-व्याप्त सत्ता के प्रति आराधना-पूर्ण समर्पण-भाव का निर्देश देते हैं।
 इन्हीं दो केंद्रों पर घूमते हुए ये दोनों धर्म-ग्रंथ इतिहास, भूगोल, विज्ञान अध्यात्म, सामाजिक आचार, आर्थिक-नियमन, सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार आदि मनुष्य जाति के अनेक लौकिक-आध्यात्मिक, प्रश्नों और पक्षों से साक्षात्कार कर आये और इस प्रकार साक्षी होकर स्वयं को ईश्वर-उवाच घोषित कर दिया, वेद के अद्वैत-दर्शन ने तो भारत से लेकर, ईरान और अरब तक सूफी-संतों की एक लंबी कतार ही खड़ी कर दी।
पैगंबर मुहम्मद तक अपने प्रवचन में कह उठे- “मुझे हिंदोस्तान की सिम्त से खुदाई खुशबू आती है ।” शायर इकबाल इसे दोहराते हुए कह गये : ‘मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहा से’ निश्चय ही यह हमारे भारत के वैदिक-दर्शन की अद्वैत-गंध थी। –
जहां तक इन ग्रंथों द्वारा निर्दिष्ट सामाजिक संरचना एवं आर्थिक नियमन का प्रश्न है, उन्हें तात्कालि समाज के लिए पूर्ण उपयुक्त मानते
हुए भी यदि सारा बोझ न ढोना चाहें तो उलय के आज की उपयुक्तताएं छांट लेने पर विश्व की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है।
विश्व भाईचारा, विश्व-शांति के पक्ष और सामाजिक-आर्थिक शोषण के विरोध में वेट और कुरान दोनों ने जो एक समान संघोध किय वे एक अलग लेख के विषय हो सकते हैं भारत-अरब संबंध
कुरान शरीफ पर वेदों के प्रभाव की मीमांसा करते हुए हम इतिहास द्वारा प्रमाणित यह तथ्य ध्यान में रखना जरूरी है कि इस्लाम के प्रादुर्भाव से कई सदी पहले से ही भारत के व्यापार और व्यवहार संबंध एशिया के कई देशों सहित सुदुर मिस्र और यूनान तक फैले हुए थे।
दक्षिण-पूर्वी एशिया के सुदूर समुद्री तटों से लेकर सुमात्रा-जावा तथा मोरक्को तक व्यापारिक लेन-देन होता था।
इस बात का पूरा विवेचन डॉ. एम.के. किदवई की पुस्तक ‘भारत-अरब संबंध में विस्तार से किया गया है।
 उसमें उल्लेख है कि इस्लाम से पूर्व भारत और अरब के साथ कितने बड़े पैमाने पर व्यापारिक, व्यावहारिक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संबंध रहे।
 विस्तार-भय से उनका उल्लेख न करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि ऐसे संबंधों से भिन्न कोमों का जो आपसी संपर्क स्थापित होता है, वह एक सांस्कृतिक परिवेश को जन्म देता है और संस्कृति जड़ न होकर चेतन गतिशील होती है।
 एक-दूसरे से प्रभाव-ग्रहण कर अपना स्वरूप निर्धारण करती रहती है। इतिहास साक्षी है कि विजेता भी पराजित पर अपनी संस्कति लाद नहीं पाते, यदि यह संभव होता तो दो सौ साल के ब्रिटिश राज में आधा हिंदुस्तान ईसाई बन चुका होता।

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