सभी चक्करों से बचाता है चावल। अगर शिवलिंग पर शिव के 1008 नाम से चढ़ाएं तो |

चावल खाने से मन की चंचलता मिटती है।

सिर चकरघिन्नी हो रहा, तो तुरन्त दूध भात खाएं।

चाला लोग परेशान करें, तो अपने वजन के चावल का सोमवार या शुक्रवार को तुलादान करें।

गरीबी से मुक्ति के लिए कन्याओं को दूध भात खिलाएं।

चर्म को बल देने के कारण इसे चावल कहते हैं। चावल शरीर की चर्म यानि खाल को बलदायक और पाचक होता है। यह भारत के अलावा दुनिया के सभी देशों में पैदा होता है। रूस, यूक्रेन सबसे बड़े उत्पादक देश हैं।

  • आयुर्वेद के धान्यवर्ग के धान्यानां भेदाःमें इसे पष्टिकाया कहा गया है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में संस्कृत के 70 श्लोक चावल के बारे में लिखें हैं।

शालिधान्यं व्रीहिधान्यं शूकधान्यं तृतीयकम्।

शिम्बीधान्यं क्षुद्रधान्यमित्युक्तं धान्यपंचकम्।

शालयो रक्तशाल्याद्या व्रोहयः षष्टिकादयः।

यवादिकं शूकधान्ये मुद्गाद्यं शिम्बिधान्यकम्।

कङग्वादिकं क्षुद्रधान्यं तृणधान्यं च तत्स्मृतम्।

  • अर्थात शालिधान्य, व्रीहि, शूक, शिम्बी और क्षुद्रधान्य ये चावल या धान्यों के ५ भेद हैं। इनमें लालरंग के चावलादि को शालि धान्य और सांठी इत्यादि को व्रीहि धान्य एवम यव इत्यादि को शूक धान्य तथा मूंग इत्यादि को शिम्बी धान्य और कंगुनी इत्यादि को क्षुद्रधान्य कहा गया है। क्षुद्रधान्य को तृणधान्य भी कहा गया है !
  • किस्म में अधिकतर लाल चावल के प्रकार पाये जाते हैं। यह लाली तक नहीं रहती। किसी-किसी अच्छे प्रकार में भी लाल चावल होते हैं अच्छा होता है। इसीलिए कहीं-कहीं चावल को रंग देते हैं किन्तु यह निकल जाता है। तथा उनका रंग जल से बहुत अन्दर स्वाद भी धोने पर उतर जाता है।
  • नये नये चावल की अपेक्षा पुराना चावल सुपाच्य होता है। परीक्षणों से देखा गया है चावल की पचन क्षमता पुराने की अपेक्षा आधी से कम होती है। रखने से इसमें के स्टार्च मे परिवर्तन होने से यह प्रभाव देखा जाता है। पकाने में भी नये का मात चिपचिपा तथा गोला सा हो जाता है किन्तु पुराने का बहुत अच्छा बनता है ।
  • चावल साफ करने की विधि के अनुसार भी चावल के पोषक तखों में परिवर्तन हो जाता । कुछ उबाल कर फिर जान छुड़ाये हुए भुजिया चावल ( Paraboiled- पैराबॉइल्ड ) में तथा हाथ कुटे चावल में, मिल से साफ किये हुये की अपेक्षा नाइट्रोजन द्रव्य अधिक रहते हैं।
  • अन्य चावल की जानकारी आगे पढ़ें। फिलहाल ये जानना जरूरी है कि एकादशी व्रत में चावल क्यों नहीं खाए जाते और चावल किस देवता का प्रतीक है।

चावल की 27 विशेष बातें, जो लोग जानते नहीं हैं।

  1. भारतीय परम्परा लगातार चलने वाला और तन-मन-अन्तर्मन को स्वस्थ्य रखने वाला मार्ग है। यह महान महर्षियों (प्रकृति वैज्ञानिक) की खोज है। हमारे ग्रन्थ थोपी हुई रूढ़ि नहीं है।
  2. अगर तन्दरुस्त रहना है, तो प्राचीनता को ही सबसे बड़ी ओषधि मानकर चलें।
  3. आयुर्वेदिक शास्त्रों एवं हरिवंश पुराण के अनुसार चावल यानि अक्षत और जौ को जीव मानते हैं।
  4. भगवान शिव के महान भक्त महर्षि मेधा ने चावल और जौ के रूप में धरती पर जन्म लिया।
  5. ऐसे ही परम् गुरुभक्त शनिदेव के आराध्य गुरु महर्षि पिप्लाद ने घनघोर तपस्या के फलस्वरूप महादेव से पीपल वृक्ष बनने का वरदान मांगा था।
  6. आप कभी गौर करना कि दुनिया में पीपल के पेड़ के नीचे सर्वाधिक शिवलिंग होते हैं। पीपल में ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों देवताओं का वास होता है। पीपल के पत्ते नाग फन के आकार के क्यों होते हैं। इस बारे में अलग लेख में बताया जाएगा।
  7. अब अक्षत पर आते हैं…
  8. एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त के सेवन करने जैसा माना जाता है। मेधा हमारे ज्ञान, विवेक को भी कहते हैं। इसलिए ग्यारस के दिन चावल के भक्षण से बुद्धि भ्रष्ट कमजोर होने लगती है। हमारे निर्णय सटीक नहीं बैठते।
  9. ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया है कि- ब्रह्माजी के पसीने से एक बूंद गिरी, तो विशाल दांव बन गया और हदेव कि भक्ति कर महाशक्ति शाली होकर उत्पात मचाने लगा, तब भोलेनाथ ने उसे शिवलिंग रूप अक्षत में वास करें। साथ में यह भी कहा कि तुम्हारे पाप के कारण, तुम ग्यारस तिथि को कीड़े के रूप चावल में रहोगे। इसलिए ऐसा मानते हैं कि ग्यारस के दिन चावल का सेवन कीड़े के खाने के बराबर हैं।
  10. यह परंपरा उत्तर भारत में ज्यादा है, क्योंकि यहां वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले ज्यादा है। यह भगवान विष्णु की धरती है। दक्षिण को सदाशिव भूमि मानते हैं।
  11. महर्षि अगस्त्य ने इस शाप को दूर कर दिया था। दक्षिण में परम्परा है कि- शिवालय के दर्शन के बिना अन्न का दाना तक नहीं खाते।
  12. गेहूं से परहेज…
  13. दक्षिण भारत में गेहूं न खाने के पीछे मान्यता यह है कि-गेहूं का आकार योनि की तरह होता है। इसके उपभोग से आलस्य-प्रमाद, सुस्ती तथा सेक्सुअल विचार आते हैं।
  14. व्रतराज ग्रन्थ के मुताबिक….
  15. ग्यारस को चावल के सेवन से मानसिक अशांति होती है। अवसाद यानि डिप्रेशन आने लगता है। शरीर में आलस्य बना रहता है। अकर्म के कारण भाग्योदय में रुकावट होती है।
  16. अतः ग्यारस का उपवास सभी सनातन धर्मियों को जरूर करना चाहिए। यह शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखता है।
  17. चावल पितृदोष का शर्तिया उपाय यदि पितृदोष है, तो 11 बार ग्यारस के व्रत करके अपने पितृ-पूर्वजों को अर्पित करें। इससे जीवन में अपार सफलता मिलने लगती है। यह आजमाया हुआ उपाय है। निराहार व्रत का सर्वाधिक महत्व है।
  18. दूसरी बात यह है कि यह धान्य कही जाती है। धन-धान्य की वृद्धि के लिए महीने में दोनों ग्यारह या एकादशी तिथि को चावल न खाने की सलाह दी जाती है।
  19. शिवतन्त्र, स्कंदपुराण एवं द्रव्यगुण सहिंता किताबों के अनुसार चावल का स्वरूप शिवलिंग की तरह होता है। एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। ये भोलेनाथ के परम भक्त और मुख्य गण कहे जाते हैं।
  20. भगवान विष्णु के हाथ में स्थित सुदर्शन चक्र इन्हें महादेव की भक्ति से ही वरदान स्वरूप मिला था।
  21. सार यही है कि श्रीहरि विष्णु के कारण अपने आराध्य महाकाल के रूप में शिवलिंग स्वरूप चावल न खाने की परम्परा चल पड़ी हो।
  22. वैसे देखा जाए, तो दक्षिण भारत में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब चावल न खाते हों। शास्त्रों की बाते पूर्णतः सत्य ही होती हैं। यदि यह मान्यता चली आ रही है, तो शायद इसमें कोई हानि नहीं होगी। एक दिन चावल न खाकर अपने पूर्वजों-,पितरों को प्रसन्न करें।
  23. हमारे यहां भी बिगत 90 वर्षों से एकादशी या ग्यारस को चावल नहीं खाते हैं। अपने पितरों के निमित्त पूरा परिवार उपवास भी रखता है।
  24. एकादशी का व्रत बनाता है-समृद्ध और धनवान।जीवनभर सुखी व स्वस्थ्य बने रहेंगे। और जाने विष्णु के 1100 साल प्राचीन मन्दिर के बारे में।
  25. बस एकादशी को चावल न खाएं। यह जानने के लिए पूरा लेख पढ़ें..
  26. वैदिक धर्मग्रन्थों के मुताबिक जो भी प्राणी वर्ष के २४ एकादशी व्रत रखता है। वह जीवन में कभी भी स्वास्थ्य तथा समृद्धि जैसी परेशानियों या संकटों से नहीं जूझता और उसके जीवन में धन और समृद्धि बनी रहती है।
  27. विष्णु पुराण के अनुसार तन-मन को स्वस्थ्य रखने और शरीर की सुंदरता के लिए एकादशी का व्रत सभी को करना चाहिए।
  28. स्कंदपुराण के व्रत-उपवास खण्ड में बताया है कि अनेकों समस्याओं से बचने तथा परिवार में सुख-समृद्धि बढ़ाने हेतु एकादशी व्रत बहुत महत्वपूर्ण है।
  29. यह व्रत महीने में दो बार आता है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के बाद आने वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं।
  30. कृष्ण पक्ष की एकादशी व्रत से पितरों-पूर्वजों की कृपा प्राप्त होती है। वंश की वृद्धि तथा सन्तान सुयोग्य प्राप्त होती है।
  31. ऐसे ही शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत पितृमातृकाओं एवं मातृमात्रकाओं की प्रसन्नता एवं उनकी मुक्ति के लिए किया जाता है। धन की वृद्धि, खुशहाल जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है।
  32. कुछ धनाढ्य परिवारों में आज भी मान्यता है कि जब परिवार का कोई सदस्य मृत्यु को प्राप्त होता है, तो वे 11 माह तक एकादशी व्रत मृतात्माओं को समर्पित कर देते हैं।
  33. अलग-अलग होती है-एकादशी
  34. पद्मपुराण में भी एकादशी व्रत के बारे में पूरा एक अध्याय है। इसमें मोक्ष एकादशी, देवी एकादशी, उत्पन्ना एकादशी, रमा और सफलता एकादशी के विषय पर विस्तार से लिखा है। भगवान विष्णुजी को महादेव का परम भक्त तथा मुख्य गण बताया है।
  35. भगवान शिव की कठोर तपस्या के फलस्वरूप ही श्रीहरि को सुदर्शन चक्र मिला था। इन्हें कमलनयन नाम भी भोलेनाथ ने ही दिया है।
  36. धरती के रक्षक भगवान श्री हरि ही क्यों?…
  37. श्रीविष्णुजी पृथ्वी पर प्राणी-पशुओं की देखभाल, रक्षा और धरती को हरा-भरा रखते हैं, इसीलिए इन्हें श्रीहरि भी कहा जाता है। पृथ्वी की रक्षा के लिए ही इन्होंने सर्वाधिक अवतार लिए हैं। श्रीकृष्ण, राम, परशुराम, भगवान बुद्ध इन्हीं के अवतार हैं।

प्रत्येक माह एकादशी व्रत के २४ चमत्कारी लाभ…

【१】दुर्भाग्य दूर होकर सौभाग्य प्राप्त होता है,

【२】जातक को मुक्ति-मोक्ष मिलता है,

【३】विवाह बाधा समाप्त होती है,

【४】धन और समृद्धि आती है,

【५】मन को शांति मिलती है,

【६】व्यक्ति निरोगी रहता है, सभी रोगों का नाश होता है,

【७】पितरों को राक्षस, भूत-पिशाच आदि योनि से छुटकारा मिलता है,

【८】पितृदोष, पितृमातृकाओं का श्राप दूर होता है तथा सभी शाप-पाप, विकार का नाश होता है,

【९】उलझनों-संकटों से राहत मिलती है,

【१०】सभी शुभ-सर्वकार्य सिद्ध होते हैं,

【११】मोह-माया और बंधनों से मुक्ति मिलती है,

【१२】हर प्रकार के मनोरथ, मनोकामना पूर्ण होती हैं,

【१३】प्रसन्नता व खुशियां मिलती हैं,

【१४】सिद्धियां प्राप्त होने लगती हैं।

【१५】दुःख एवं उपद्रव शांत एवं गरीबी-दरिद्रता दूर होती है,

【१६】खोया हुआ धन-दौलत, सम्पदा सब कुछ फिर से प्राप्त हो जाता है,

【१७】पितरों को अधोगति से मुक्ति मिलती है,

【१८】ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है,

【१९】सन्तान की प्राप्ति होती है,

【२०】मुकदमें में विजय होती है।

【२१】दुश्मन-शत्रुओं का नाश होता है,

【२२】यश-कीर्ति और प्रसिद्धि-ऐश्वर्य बढ़ता है।

【२३】 बुध व चन्द्रमा ग्रह का दोष मिटता है

【२४】एकादशी व्रत यदि 11 साल तक नियमित रखें, तो वाजपेय और अश्‍वमेध यज्ञ का फल मिलता है और हर कार्य में सफलता मिलती है।

एकादशी की कथा…

  • श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार एक बार मानसिक तकलीफों से जूझ रहे धर्मराज युधिष्ठिर को चक्रधारी श्रीकृष्ण ने समस्त दुःखों, त्रिविध तापों से मुक्ति दिलाने, हजारों यज्ञों के अनुष्ठान की तुलना करने वाले, चारों पुरुषार्थों को सहज ही देने वाले एकादशी व्रत का विधान बताया था।
  • यह व्रत सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक किया जाता है। भूलकर भी चावल न खाएं एकादशी व्रत में क्योंकि चावल का स्वरूप शिवलिंग की तरह होता है।
  • देशी घी के दो दीपक जलाकर कम से कम 5 माला !!ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमःशिवाय!! का जप करें।
  • एकादशी के दिन यथा‍शक्ति गाय-नन्दी, बैल, श्वान आदि को अन्न खिलाना चाहिए अन्य दान भी करना चाहिए। किंतु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न आदि कदापि ग्रहण न करें।
  • एकादशी व्रत में भूलकर भी न चावल या भात खाएं…क्यों?
  • भारतीय परम्परा लगातार चलने वाला और तन-मन-अन्तर्मन को स्वस्थ्य रखने वाला मार्ग है।
  • यह महान महर्षियों (प्रकृति वैज्ञानिक) की खोज है। हमारे ग्रन्थ थोपी हुई रूढ़ि नहीं है।
  • अगर तन्दरुस्त रहना है, तो प्राचीनता को ही सबसे बड़ी ओषधि मानकर चलें।
  • आयुर्वेदिक शास्त्रों एवं हरिवंश पुराण के अनुसार चावल यानि अक्षत और जौ को जीव मानते हैं।
  • भगवान शिव के महान भक्त महर्षि मेधा ने चावल और जौ के रूप में धरती पर जन्म लिया।
  • ऐसे ही परम् गुरुभक्त शनिदेव के आराध्य गुरु महर्षि पिप्लाद ने घनघोर तपस्या के फलस्वरूप महादेव से पीपल वृक्ष बनने का वरदान मांगा था।
  • आप कभी गौर करना कि दुनिया में पीपल के पेड़ के नीचे सर्वाधिक शिवलिंग होते हैं।
  • पीपल में ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों देवताओं का वास होता है।
  • पीपल के पत्ते नाग फन के आकार के क्यों होते हैं।
  • इस बारे में अलग लेख में बताया जाएगा।
  • चावल को अक्षत भी कहते हैं
  • एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त के सेवन करने जैसा माना जाता है।
  • मेधा हमारे ज्ञान, विवेक को भी कहते हैं। इसलिए ग्यारस के दिन चावल के भक्षण से बुद्धि भ्रष्ट कमजोर होने लगती है। जिससे हमारे निर्णय सटीक नहीं बैठते।
  • ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया है कि- ब्रह्माजी के पसीने से एक बूंद गिरी, तो विशाल दांव बन गया और महादेव .. कि भक्ति कर महाशक्ति शाली होकर उत्पात मचाने लगा, तब भोलेनाथ ने उसे शिवलिंग रूप अक्षत में वास करें।
  • साथ में यह भी कहा कि तुम्हारे पाप के कारण, तुम ग्यारस तिथि को कीड़े के रूप चावल में रहोगे।
  • इसलिए ऐसा मानते हैं कि ग्यारस के दिन चावल का सेवन कीड़े के खाने के बराबर हैं।
  • यह परंपरा उत्तर भारत में ज्यादा है, क्योंकि यहां वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले ज्यादा है।
  • यह भगवान विष्णु की धरती है। दक्षिण को सदाशिव भूमि मानते हैं।
  • महर्षि अगस्त्य ने इस शाप को दूर कर दिया था।
  • दक्षिण में परम्परा है कि- शिवालय के दर्शन के बिना अन्न का दाना तक नहीं खाते।
  • दक्षिण में गेहूं से भी करते हैं परहेज…क्यों?…
  • दक्षिण भारत में गेहूं न खाने के पीछे मान्यता यह है कि-गेहूं का आकार योनि की तरह होता है।
  • इसके उपभोग से आलस्य-प्रमाद, सुस्ती तथा सेक्सुअल विचार आते हैं।
  • व्रतराज ग्रन्थ के मुताबिक….
  • ग्यारस को चावल के सेवन से मानसिक अशांति होती है। अवसाद यानि डिप्रेशन आने लगता है।
  • शरीर में आलस्य बना रहता है। अकर्म के कारण के कारण भाग्योदय में रुकावट होती है।
  • अतः ग्यारस का उपवास सभी सनातन धर्मियों को जरूर करना चाहिए। यह शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखता है।

पितृदोष का शर्तिया उपाय

  • यदि पितृदोष है, तो 11 बार ग्यारस के व्रत करके अपने पितृ-पूर्वजों को अर्पित करें।
  • इससे जीवन में अपार सफलता मिलने लगती है। यह आजमाया हुआ उपाय है।
  • निराहार व्रत का सर्वाधिक महत्व है।
  • चावल की चर्चा…
  • दरअसल शास्त्रों में चावल को अक्षत कहा गया है। हम पूजा में चावल शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यह गलत है।
  • अक्षत का अर्थ है, जो क्षत न हों अर्थात टूटे हुए न हों।
  • दूसरी बात यह है कि यह धान्य कही जाती है।
  • धन-धान्य की वृद्धि के लिए महीने में दोनों ग्यारह या एकादशी तिथि को चावल न खाने की सलाह दी जाती है।
  • शिवतन्त्र, स्कंदपुराण एवं द्रव्यगुण सहिंता किताबों के अनुसार चावल का स्वरूप शिवलिंग की तरह होता है।
  • एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है।
  • ये भोलेनाथ के परम भक्त और मुख्य गण कहे जाते हैं।
  • भगवान विष्णु के हाथ में स्थित सुदर्शन चक्र इन्हें महादेव की भक्ति से ही वरदान स्वरूप मिला था।
  • सार यही है कि श्रीहरि विष्णु के कारण अपने आराध्य महाकाल के रूप में शिवलिंग स्वरूप चावल न खाने की परम्परा चल पड़ी हो।
  • वैसे देखा जाए, तो दक्षिण भारत में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब चावल न खाते हों। शास्त्रों की बाते पूर्णतः सत्य ही होती हैं।
  • यदि यह मान्यता चली आ रही है, तो शायद इसमें कोई हानि नहीं होगी। एक दिन चावल न खाकर अपने पूर्वजों-,पितरों को प्रसन्न करें।
  • हमारे यहां भी बिगत 90 वर्षों से एकादशी या ग्यारस को चावल नहीं खाते हैं।
  • अपने पितरों के निमित्त पूरा परिवार उपवास भी रखता है।

और कुछ जानकारी कहीं से मिली, तो विस्तार से बताएंगें।

एक बात और ध्यान रखें कि ईश्वर को नैवेद्य अर्पित करते हैं ….न कि प्रसाद या भोग। क्यों? यह जानने के लिए अमृतमपत्रिका गूगल पर सर्च करें।

  • बिहार राज्य के शेखपुरा ज़िला सामस ग्राम में नवादा रोड पर बरबीघा से 5 किमी दक्षिण की ओर बिहार शरीफ से 25 किमी दूर भगवान विष्णु की 1100 वर्ष प्राचीन प्रतिमा बहुत ही अद्भुत है।
  • मूर्ति पर जिस प्रकार की लिपि उत्कीर्ण यानि खुदी हुई है। ऐसा मानते हैं कि यह खजाने का बीजक है।
  • मूर्ति की वेदी पर प्राचीन देवनागरी में अभिलेख !!!!ॐ सूत्रधारसितदेव:’ उत्कीर्ण है! ऐसा बताते हैं।
  • यह विष्णु मूर्ति देवी रूप में है। देवी एकादशी के दिन यहां लाखों लोग दर्शन करते हैं।
  • भगवान श्रीहरि की इस विग्रह के दांए व बांए दो और छोटी मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां शिव-पार्वती की हैं या शेषनाग और उनकी
  • पत्नी हैं। पता नहीं लग रहा।
  • सामस गांव व उसके पास गांवों में खुदाई के दौरान बड़ी संख्या में 1992 में तालाब की खुदाई के समय मूर्तियां मिलीं। ये सब सामस गांव के जगदंबा मंदिर में ही रखी गई हैं।
  • हिंदू पंचांग की ग्यारहवी तिथि को एकादशी या ग्यारस कहते हैं।
  • यह तिथि मास में दो बार आती है। पूर्णिमा के बाद और अमावस्या के बाद। पूर्णिमा के बाद आने वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी और अमावस्या के बाद आने वाली को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं।

शालिघान्यस्य लक्षणं नामानि च

कण्डनेन विना शुक्ला हैमन्ताः शालयः स्मृताः।

रक्तशालिः सकलमः पाण्डुकः शकुनाहृतः।

सुगन्धकः कर्दमको महाशालिश्च दूषकः॥

पुष्पांडकः पुण्डरीकस्तथा महिषमस्तकः।

दीर्घशकः काञ्चनको हायनो लोध्रपुष्पकः॥

इत्याद्याः शालयः सन्ति बहवो बहुदेशजाः।

ग्रन्थविस्तारभीतेस्ते समस्ता नात्र भाषिताः।।

अर्थात जो चावल हेमंत ऋतु में होते हैं और भूसी रहित सफेद होते हैं, वे शालिघान्य कहे जाते हैं।

चावल के विभिन्न नाम –

  • रक्तशालि, कलम, पाण्डुक, शकुनाहृत, सुगंधक, कर्दमक, महाशालि, दूषक, पुष्पाण्डक, पुण्डरीक, महिष मस्तक, दीर्घशूक, कांचनक, हायन और लोध्रपुष्प इत्यादि शालिके बहुत भेद हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से भेद हैं जो देश भेद से रखे गये हैं। ग्रंथ विस्तार होने के भय से उन सबों का नाम नहीं लिखा है।
  • भाषाभेद से नामभेद – हिंदी में धान, शालिधान, चाउल, चाल। मराठी में साली, भात, तांडूल। गुजराती में० तं० – धान्यम् । फारसी – विरंज । अरबी० – उरज । ओरिजा सेटाइव Oryza-Sative. चावल ।बंगाली में– शालिघान्य, – शालि, चोखा। कन्नड़ में–नल्ल । इंग्लीश ० – राइस Rice। लै०-

चावल के गुण शालीनां गुणाः

शालयो मधुराः स्निग्धा बल्या बद्धाल्पवर्चसः।

कशाया लघवो रुच्याः स्वर्य्या वृष्याश्च बृंहणाः।

अल्पानिलकफाः शीताः पित्तघ्ना मूत्रलास्तया

शालबो दग्धमृज्जाताः कषाया लघुपाकिनः।

सृष्टमूत्रपुरीषाश्च रूक्षाः श्लेष्मापकर्षणाः॥

कंदारा वातपित्तघ्ना गुरवः कफशुक्रलाः।

कषायाश्चाल्पवर्चस्का मध्याश्चैव बलावहाः॥

स्थलजाः स्वादवः पित्तकफघ्ना वातवह्निवाः।

किंचित्तिक्ताः कषायाश्च विपाके कटुका अपि।।

वापिता मधुरा वृष्या बल्याः पित्तप्रणाशनाः। श्लेष्मलाश्चाल्पवचस्काः कषाया गुरुवो हिमाः।।

वापितेभ्यो गुणैः किंचिद्धीनाः प्रोक्ता अवापिताः॥

रोपितास्तु नवा वृष्याः पुराणा लघवः स्मृताः।

तेभ्यस्तु रोपिता भूयः शीघ्रपाका गुणाधिकाः।।

छिन्नरूढा हिमा रूक्षा बल्याः पित्तकफापहाः।

बद्धविट्काः कषायाश्च लघवश्चाल्पतिक्तकाः॥

  • अर्थात शालिधान चावल के फायदे – मधुर, स्निग्ध, बलदायक, अल्पपरिमाण में बद्धमल को निकालने वाले, कसैले, हल्के, रुचिकारक, स्वर को उत्तम करने वाले, वीर्यवर्द्धक, शरीर को पुष्ट करने वाले, किंचित् वात तथा कफ कारक, शीतल, पित्तनाशक तथा मूत्रवर्द्धक हैं।
  • जो चावल – जली हुई मिट्टी से पैदा होते हैं, वे कसैले, पाक में हल्के, मलमूत्र को निकालने वाले, रूक्ष और कफ शोधक होते हैं।
  • जो चावल खेत में बोने से उत्पन्न होते हैं। वात पित्त नाशक, भारी, कफ तथा वीर्य को बढ़ानेवाले, कसैले, मेधा को हितकारी, बलदायक और अल्प मल लाने वाले हैं ।
  • जो चावल – विना जोती बोई हुई पृथ्वी से स्वयं उत्पन्न होते हैं, वे मधर पित्त तथा कफ नाशक, वात तथा पित्तदायक, किंचित् चरपरे, कसले और पाक में भी चरपरे होते हैं।
  • बोये हुये धान – मधुर, वीर्यवर्द्धक, बलदायक, पित्तनाशक, कर्फवर्द्धक, अल्पमल निकालने वाले, कसैले, भारी और शीतल हैं।
  • बोये हुये धानों से बिना बोये हुए कुछ अल्प गुण वाले होते हैं। बोये हुय चावल नय हों तो वे वीर्यवर्द्धक, पुराने हों तो हल्के होते हैं।
  • बोय हुये चावल शीघ्र पचने वाले और गुणों में अधिक होते हैं। जो चावल एक बार चावल की फसल काट लेने पर पुनः उसी पेड़ में पैदा होते हैं वे शीतल, रूखे, बलकारक, पित्त तथा कफ नाशक, मलरोधक, कसैले, हल्के और जरा कड़वे होते हैं।

रक्तशालेर्गुणाः

रक्ताशालिवंरस्तेषु बल्यो वर्ण्यस्त्रिदोषजित्।

चक्षुष्यो मूत्रलः स्वर्य्यः शुक्रलस्तृज्वरापहः।।

विषव्रणश्वासकासवाहनुद्वह्निपुष्टिदः।

तस्मादल्पान्तरगुणाः शालयो महबादयः॥

  • अर्थात सम्पूर्ण धान्यों में रक्तशालि श्रेष्ठ, वलदायक, वर्ण को उत्तम करने वाले त्रिदोष नाशक, नेत्रों को हितकारी, मूत्रकारक, स्वर को उत्तम करने वाले, वीर्यवर्द्धक, अग्निप्रदीपक, पुष्टिकारक और तृषा, ज्वर, विष, व्रण, श्वास, खाँसी तथा दाह को नष्ट करने वाले होते हैं। अन्य महा शालि इत्यादि इससे अल्पगुण वाले होते हैं।

व्रीहिषान्य चावल

वार्षिकाः काण्डिताः शुक्ला व्रोहयश्चिरपाकिनः।

कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटाण्डक इत्यपि॥

शालामुखो जन्तुमुख इत्याद्या व्रोहयः स्मृताः।

कृष्णवीहिः स विज्ञेयो यः कृष्णतुषतण्डुलः॥

पाटलः पाटलापुष्पवर्णको व्रीहिरुच्यते।

कुक्कुटाण्डाकृतिव्रीहिः कुक्कुटाण्डक उच्यते॥

शालामुखः कृष्णशूकः कृष्णतण्डुल उच्यते।

लाक्षावणं मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः॥

कथिताः पाके मधुरा वीर्य्यतो हिमाः।

व्रोहयः अल्पाभिष्यन्विनो बद्धवर्चस्काः षष्टिकंः समाः।

कृष्णव्रीहिर्वरस्तेषां तस्मावल्पगुणाः परे।

  • अर्थात जो चावल वर्षा ऋतु में होते हैं और कूटने पर सफेद होते हैं तथा देर में पकते हैं। उन्हें ब्रीहिधान्य कहते हैं। कृष्णव्रीहि, पाटल, कुक्कुटाण्डक, शालामुख, जतुमुख इत्यादि व्रीहि के भेद हैं।
  • चावल के लक्षण – जिसकी भूसी और चावल कृष्णवर्ण के हों वे कृष्णव्रीहि, जिसका वर्ण पाटल पुष्प की तरह लाल हो उसे पाटल, जो मुरगे के अण्डे की तरह मोटा गोल, लम्बा हो उसे कुक्कुटाण्डक और जिसका काँटा (टूड) वा चावल काला हो उसे शालामुख तथा लाख के रंग की तरह जिसका वर्ण हो उसे जतुमुख कहते हैं।
  • ब्रीहिधान्य चावल के गुण — ब्रीहिधान्य – पाक में मधुर, वीर्यवान, शीतल, अल्प अभिष्यंदी मलरोधक तथा अन्य गुणों में साँठी के समान है। इनमें कृष्णव्रीहि सब से उत्तम है । शेष अल्प गुण वाले हैं।

षष्टिकाः

गर्भस्था एव ये पाकं यांति ते षष्टिका मताः॥

षष्टिक: शतपुष्पश्च प्रमोदकमुकुन्दकौ

महाषष्टिक इत्याद्याः षष्टिकाः समुदाहृताः।

एतेऽपि ग्रोहयः प्रोक्ता व्रीहिलक्षणदर्शनात्॥

पष्टिका मधुराः शीता लघवो बद्धवर्चसः।

वातपित्तप्रशमनाः शालिभिः सदृशा गुणैः॥

पष्टिका प्रवरा तेषां लघ्यो स्निग्धा त्रिदोषजित॥

स्वाद्वी मुद्वी ग्राहिणी च बलदा ज्वरहारिणी। रक्तशालिगुणैस्तुल्यास्ततः स्वल्पगुणाः परे।।

  • अर्थात जो धान्य अपने वालि के भीतर ही पक जाते हैं, उन्हें सांठी धान्य कहते हैं।
  • साठी चावल के नाम-पष्टिक, शतपुष्प, प्रमोदक, मुकुन्दक और महापष्टिक इत्यादि सांठी वानरे भेद हैं। इनमें भी पूर्वोक्त व्रीहिधान्यों के लक्षण दिखाई देते हैं, अतः इन्हें भी ब्रिही कहते हैं।
  • गुण — सांठी चावल मधुर शीतल, हल्का, मल को बाँधने वाला, वात तथा को शांत करने वाले और शालि धान्य के सदृश गुण वाले हैं। इन सब में सांठी चावल उत्तम, हल्का, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, मधुर, कोमल, ग्राही, बलदायक, ज्वर नष्ट कर वाले और रक्तशालि के सदृश गुण वाले होते हैं। इससे अल्प गुण बाकी साठी चावल के भेदों में होते हैं।
  • विवरण – चावल नये हमेशा भारी, वीर्यवर्द्धक और देर में पचने वाले तथा पुरार हल्के, शीघ्र पचने वाले होते हैं। इसका कारण यह है कि धान की भूसी हटा देने पर चावल के ऊपर जो पीला हल्का एक आवरण चढ़ा होता है, जिसे काष्ठौज (सेल्युलोज Selulose कहते हैं, वह नये चावलों में पूरा होता है।
  • यह आंत्रों की गति का वर्द्धक है तथा चावल के सत्व की रक्षा भी करता है। अतः नये चावलों में के पदार्थ सब ज्यों-के-त्यों प्राप्त होते हैं, पुराने चावलों में यह पर्दा नष्ट हो जाता है। अतः भीतर की वस्तुओं का गुणावान रक्षित होने का मार्ग नष्ट हो जाता है, अतः ये हल्के होते हैं ।

शूकधान्यानि

अतियवो निःशूकः स्यात्कृष्णारुणवर्णको यवः।

निःशूकोऽपि यवः प्रोक्तो धवलाकृतिको महान्।।

यवस्तु सितशूकः स्यान्निःशूकोऽतियवः स्मृतः।

तोक्यस्तद्वत्सहरितस्ततः स्वल्पश्च कीत्तितः॥

यवः कषायो मधुरः शीतलो लेखनो मृदुः।

व्रणेषु तिलवत्पथ्यो रूक्षो मेघाग्निवर्द्धनः॥

कटुपाकोऽनभिष्यन्दी स्वर्य्यो बलकरो गुरुः।

बहुवातमलो वर्णस्थैर्य्यकारी च पिच्छिलः॥

कण्ठत्वगामयश्लेष्म पित्त मेदः प्रणाशनः।

पोनसश्वासकासोरुस्तम्भलोहिततृणुत्।

अस्मादनुयवो न्यूनस्तोक्यो न्यूनतरस्ततः॥

  • पर्याय – अतियव, निःशूक, कृष्णयव, अरुणयव, यह यवों की जातियाँ हैं। इनमें निःशूक यव श्वेत वा बड़े आकार के होते हैं।
  • यव के भेद-सफेद टूंड़ वाले को जी कहते हैं। जिसमें शूक ( टूंड ) न हो उसे अतियव कहते हैं, और इसी तरह बिना शूक के हरे वर्ण वाले को तोक्य कहते हैं । इस तरह इसके ३ भेद हैं । ( कहीं-कहीं अतियव के स्थान में अनुयव भी पाठ है)!
  • गुण — जो कसैले, शीतल, मधुर, लेखन, कोमल, व्रण रोग में तिल की तरह पथ्य रूक्ष, बुद्धि तथा अग्नि को बढ़ाने वाले, पाक में चरपुरे, अनभिष्यंदी स्वर को उत्तम करने वाले, वलकारक, भारी, वात तथा मल को बहुत बढ़ाने वाले, वर्ण स्थिर करने वाले पिच्छिल और कण्ठरोग, त्वचारोग, कफ-पित्त- मेद, पीनस, श्वास, खाँसी, ऊरुस्तंभ, रुधिरविकार तथा तृषा को नष्ट करते हैं। जो से स्वल्प गुण अतियव में और अतियव से अल्पगुण तोक्य में होते हैं!
  • चावल की चर्चा दरअसल शास्त्रों में चावल को अक्षत कहा गया है। हम पूजा में चावल शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यह गलत है। अक्षत का अर्थ है, जो क्षत न हों अर्थात टूटे हुए न हों।
  • यह सभी स्थानों पर कृषित होता है। इसका उप- छोटा, जलीय, वर्षायु होता है। काण्ड गोल एवं पोला होता है। पत्ते – बहुत, खुरदरे, पतले तथा माकाकार होते हैं। पुष्प गुच्छ के रूप में, अनेक शाखायुक्त तथा झुके हुवे रहते हैं जिनमें पुंकेशर ६ सथा स्त्रीकेशर की कुक्षि पंखसदृश एवं संख्या में २ होती हैं। लाल चावल में स्त्री केशर लाल रहते है।

स्थानभेद, पकने के ऋतु के भेद, पड़ने के काल ( अवधि) भेद, चावल के पिष्टमय पदार्थ, चावल या धान के रंग, आकार, नाप, शूक रहित या शुक युक्त अनेक प्रकार मिलते हैं।

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