कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.….. !! अमृतम वचन!!
【■】 गुरु की कृपा एवं शिव-साधना से जीव भाव एवं भ्रम से मुक्ति मिलकर ब्रम्हाभाव स्थायी हो जाता है।
【■ 】हमारी जीभ ही हम सब जीवों को कभी सुखी नहीं रहने देती। अतः सुखी रहने के लिये वाणी और भोजन पर ध्यान देवें।
【■】 ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्ति!!! तीन बार शान्ति का तात्पर्य है हमारे सर्वदोष शान्त हो। त्रिविध ताप दूर हों।
【■ 】जन्म लेना, मरना बहुत सरल है, पर मृत्यु से पार हो जाना ही कठिन है।
【■】 अविद्या से बड़ा कोई दोष नहीं है।
【■ 】जन्म लेना, मरना बहुत सरल है, पर मृत्यु से पार हो जाना ही कठिन है।
【■】 अविद्या से बड़ा कोई दोष नहीं है।
अज्ञान ही मृत्यु है। अधिक मोह-शोक भी मृत्यु का कारण है।
【■】 गुरू के प्रति अटूट श्रध्दा और महादेेेव
【■】 गुरू के प्रति अटूट श्रध्दा और महादेेेव
की उपासना से यमराज भी धर्मराज हो जाते है।
ऋषि मार्केंडेय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
【■ 】संसार के सभी प्राणी इच्छा, कामवासना
और चिंता के बीच फंसे हुए है।
【■】 मनुष्य को कभी इच्छा-अनिच्छा से दुखी है,
【■】 मनुष्य को कभी इच्छा-अनिच्छा से दुखी है,
तो कभी चिन्ता से परेशान रहता है।
【■ 】इच्छाओं को हृदय में बसे रहना ही सदा दुःख दायी है।
【■】 इच्छाऐं हावी होने पर शरीर को शव बना देती है।
【■ 】इच्छाओं को हृदय में बसे रहना ही सदा दुःख दायी है।
【■】 इच्छाऐं हावी होने पर शरीर को शव बना देती है।
【■】जिसके सब कुछ वश में है वह वश का उल्टा शव नहीं अपितु शिव है।
【■】सुरापान, चोरी, ब्रम्हहत्या, विश्वातघात और चरित्रहीनता ये पांचों घोर महापाप महापातक है
इनसे बचना कठिन है।
【■】सदैव शिव के हृदय में मुफ्त में वास करो,
【■】सदैव शिव के हृदय में मुफ्त में वास करो,
कोई किराया भी मत दो।
【■】देह ही सब कुछ है, देह में सब कुछ है,
【■】देह ही सब कुछ है, देह में सब कुछ है,
पर देह सब कुछ नहीं है।
【■】दुनिया में ऐसी कोई विषय-वस्तु नहीं है जो उत्पन्न न होती हो और उत्पन्न होकर नाश न होती हो।
【■】जिसका मन एकाग्र होगा उसकी पलकें उतनी ही देर में गिरती है। यही सिद्ध साधु की पहचान है
【■】दुनिया में ऐसी कोई विषय-वस्तु नहीं है जो उत्पन्न न होती हो और उत्पन्न होकर नाश न होती हो।
【■】जिसका मन एकाग्र होगा उसकी पलकें उतनी ही देर में गिरती है। यही सिद्ध साधु की पहचान है
【■】 लोग जानते बहुत है, करते कुछ नहीं।
ज्ञान बिना क्रिया अंधी है और बिना कर्म के ज्ञान पंगु है।
【■】मन सहयोगी है- जो कर्म करते समय और ज्ञान पाते समय भी सहयोग देता है।
【■】कर्म के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ धर्म का अटूट संबंध है।
【■】बिना ज्ञान (अनुभव) के कर्म किसी काम का नहीं और ऐसा कर्म भी किसी कर्म का नहीं जिसमें ज्ञान न हों।
【■】मानव मन की स्थिति द्विविधामयी है इसमें करूं या न करूं, जाऊं न जाऊं का विकल्प भरा है।
【■】 योगी, महर्षि कहते है……
【■】मन सहयोगी है- जो कर्म करते समय और ज्ञान पाते समय भी सहयोग देता है।
【■】कर्म के साथ ज्ञान और ज्ञान के साथ धर्म का अटूट संबंध है।
【■】बिना ज्ञान (अनुभव) के कर्म किसी काम का नहीं और ऐसा कर्म भी किसी कर्म का नहीं जिसमें ज्ञान न हों।
【■】मानव मन की स्थिति द्विविधामयी है इसमें करूं या न करूं, जाऊं न जाऊं का विकल्प भरा है।
【■】 योगी, महर्षि कहते है……
“स्वयं में सुख है उसका अनुभव करो”।
【■】मानव हृदय से 101 नाड़िया निकली हैं इसलिए दान-दक्षिणा आदि में एक सौ एक का महत्व है।
【■】 मानव शरीर में 72,72,10,201 कुल नाड़िया है।
【■】मानव हृदय से 101 नाड़िया निकली हैं इसलिए दान-दक्षिणा आदि में एक सौ एक का महत्व है।
【■】 मानव शरीर में 72,72,10,201 कुल नाड़िया है।
यह शरीर केवल नाड़ियों के जाल से ही बना गया है।
【■】अहं जहां घूटा वहां फिर ‘मम् भी घूट जात है’। “तस्य कार्यं न विधते” उसके लिए फिर कोई कार्य बचा ही नहीं।
【■】 जिसके कर्म में कोई कामना नहीं है, वही कर्मशील और ज्ञानी पुरूष है।
【■】अहं जहां घूटा वहां फिर ‘मम् भी घूट जात है’। “तस्य कार्यं न विधते” उसके लिए फिर कोई कार्य बचा ही नहीं।
【■】 जिसके कर्म में कोई कामना नहीं है, वही कर्मशील और ज्ञानी पुरूष है।
ज्ञानवर्धक
प्रेरणादायक
ब्लॉग के लिए
अमृतमपत्रिका join करें
Leave a Reply