शिव पुराण से पार्ट -4 ॐ नमः शिवाय की ध्यान यात्रा

नमः शिवाय का अर्थ
पंचाक्षर मन्त्र नमः शिवाय मन को नियन्त्रित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
ब्रह्र्षिवेदव्यास ने पंचाक्षर मन्त्र की महाव्याख्या में पाँच चक्र इस प्रकार बताए हैं-
1. न- (सृष्टि मोह) ब्रह्म चक्र
2. म:- (भोग मोह) वैष्णव चक्र
3. शि- (कोप मोह) रौद्र चक्र
4. वा- (भ्रमण मोह) ऐश्वर्य चक्र
5. य- (ज्ञान मोह) शिव चक्र
1. न- (सृष्टि मोह) ब्राह्म (ब्रह्मा का) चक्र- यहाँ पर ब्रह्म का अर्थ परं ब्रह्म से नहीं है। ये ब्रह्मा हैं। ब्रह्मा का कार्य सृष्टि रचना हैं। इन्हें सृष्टि रचना का मोह (कर्तव्य भाव) होता है, तभी वे सृष्टि रचना कर पाते हैं, और यह एक बार का कार्य नहीं है, अपितु इसका चक्र (पहिया) है, जो सदा ही घूमा करता है। अर्थात् महा प्रलय के पश्चात् वे सदा ही रचना किया करते हैं।
2. म:- (भोग मोह) वैष्णव चक्र- यहाँ भोग का अर्थ स्वयं भोग करना नहीं है, अपितु स्वयं भोग करने की अपेक्षा दूसरों को भोग कराना ही स्वभोग है- इसमें बहुत आनंद आता है। दूसरों को भोजन कराने में आज भी लोग स्व भोजन से अधिक आनंद भोगते हैं। बुजुर्ग कहा करते थे कि –
एक ने खाया कुत्ते ने खाया
सबने खाया अल्लाह ने खाया
श्वान (कुत्ता) रूपी प्राणी सदा अकेले खाता है और कौआ सबके साथ मिलकर खाता है।
क्यों हैं सृष्टि पालक भगवान विष्णु?
भगवान् विष्णु को संसार को भोग कराने (पालन-पोषण करने) में आनंद आता है और जिस कार्य में आनंद आता है, उससे मोह (रूचि या लगाव) हो जाता है।
भण्डारे के कर्ता
श्रीहरि विष्णु भी अपने भोग मोह चक्र में सदा घूमते रहते हैं। विष्णु विश्व के सभी अणुओं, प्राणिओं का लालन-पालन करते है इसलिए देवताओं में प्रथम हैं और महादेव के प्रिय हैं।
शिवरात्रि, नवदुर्गा, गणेश चतुर्थी, हनुमान जयंती आदि पर्वों के समय भण्डारा करने तथा अनेक लोगों को भोजन कराने से श्री हरि विष्णु प्रसन्न होते हैं।
विष्णु सहिंता के अनुसार
 भण्डारा सर्व भोज का प्रचलन श्री विष्णु द्वारा प्रारम्भ हुआ।
3. शि- (कोप मोह) रौद्र चक्र – यह चक्र बहुत स्पष्ट है। भगवान् कोप करके सृष्टि का संहार करते हैं। इनकी चक्र गति है। अत: ये भी सदा यही कार्य किया करते हैं। इन्हें अपने इस
कर्तव्य के प्रति मोह है।
4. वा- (भ्रमण मोह) ऐश्वर्य चक्र- अपने इस चक्र में ईश्वर (शिव- इस चतुर्थ स्तर में इनका नाम ईश्वर होता है।) समस्त विश्व रचना के बीजों को अपने में समाहित कर लेते हैं। यह इनका चौथा चक्र अनुग्रह है।
इस चक्र में ईश्वर को भ्रमण तो क्रमश: सदा करना ही पड़ता है, परन्तु इस स्थिति में उन्हें मोह (कत्र्तव्य भाव) नहीं रहता। इस समय अपने शेष कर्मो के परिणामों को साथ लिए हुए जीव अपने अन्तिम सूक्ष्म रूप से शिव में समाहित रहता है। इस समय जीवकर्ता भोक्ता नहीं होता। इस समय उसकी विश्रामावस्था होती है। परमेश्वर का चराचर जगत पर यह अनुग्रह है।
5. य- (ज्ञान मोह) शिव चक्र- ईश्वर के ज्ञान की यह शान्ति अवस्था है। इस अवस्था में अपने आप में परमानन्द रहता है। परमेश्वर की यह स्थिति भी कालचक्र से मुक्ति की नहीं है। यद्यपि यह परमेश्वर का शिव-चक्र अर्थात् आनंद चक्र है, परन्तु काल के चक्र में यह भी आबद्ध है। अर्थात् इसका भी एक निश्चित समय है और उतने समय तक आनन्दमग्र रहने के पश्चात् पुन: संसार का चक्र घुमाने लगता है अर्थात् संसार की रचना प्रक्रिया प्रारंभ कर देता है।
यदि कोई साधक इन पाँच चक्रों की यात्रा का आनंद प्राप्त करना चाहता है, तो उसे प्रत्येक चक्र की यात्रा के लिए निश्चित संख्या में पंचाक्षर मन्त्र का जाप करना पड़ेगा। प्रत्येक चक्र की यात्रा के लिए सौ-सौ लाख पंचाक्षर मन्त्र की संख्या बताई गई है।
 
हमारा मन मन्त्र जप में लगा रहे, इसके लिए बड़ी सुन्दर मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अपनाई जाती थी।
अभी ऊपर पाँच चक्र अथवा पाँच पद बताए गये हैं। जब तक इन पदों एवं चक्रों को पार नहीं कर लिया जायेगा, तब तक साधक शिवलोक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए इन्हीं पदों और चक्रों को आवरण (परदा) बताया गया है। यहाँ पर एक विशेष बात यह भी है कि शिव के पाँच रूपों के जो स्थान बताये गये हैं, वे एक से नहीं बल्कि पाँच से अर्थात् नीचे से उल्टे क्रम में प्रारम्भ किये गये हैं।
भगवान शिव के 5 मुखों का रहस्य
उसके आगे अर्थात् बाहर के पाँचवें आवरण में शिव जी के पाँचवें स्वरूप
1-सद्योजात का स्थान, चौथे आवरण में
2-वामदेव का स्थान, तीसरे स्थान में
3-अघोर का स्थान, दूसरे आवरण में
4-पुरूष का स्थान और प्रथमावरण में
5-ईशान का स्थान है। पाँचवाँ मण्डप ध्यान और धर्म का भी है।। 111 से 114 तक।।
पाँचवें मण्डप में बलिनाथ शिव का स्थान है, जो पूर्ण अम्त देने वाला है। चौथे मण्डप में मूर्तिमान (साक्षात्) चन्द्रशेखर हैं। सोमस्कन्द का स्थान तीसरा मण्डप है।
आस्तिकों ने नटराज भगवान् का नृत्य मण्डप दूसरा मण्डप कहा है। वहीं प्रथम में मूल माया का सुन्दर स्थान है। इसी के पीछे गर्भगृह में परम कल्याण काशी शिव लिंग स्थान है। उसी के पीछे नन्दी का स्थान कहा गया है। नन्दिकेश्वर के स्थान के आगे शिवजी के वैभव का स्थान है, जिसे उनके अतिरिक्त और कोई नहीं जानता। नन्दी अपने स्थान पर पंचाक्षर मन्त्र का जप करते रहते हैं।। 115 से 118 तक।।
गुरु भक्त नन्दीश्वर
नन्दीश्वर ने यह सारा संवाद गुरू-मुख शिव से जाना। साक्षात् शिव के लोक वैभव को शिव की कृपा से ही जाना जा सकता है। इस प्रकार जितेन्द्रिय साधक तथा ब्राह्मण क्रम-क्रम से पंचाक्षर मन्त्र की साधना के द्वारा संसार से मुक्त हो जाते हैं। पंचाक्षर मन्त्र का क्रम ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्यों के लिए इस प्रकार हैं।। 119 से 121 तक।।
उम्र की वैज्ञानिकता
गुरूपदेशाज्जाप्यं वै, 
ब्राह्मणानां नमोऽन्तकम्।
पञ्चाक्षरं पञ्चलक्ष-, 
मायुष्यं प्रजपेद्विधि:।। 122।।
ब्राह्मणों को गुरू मुख से प्राप्त पंचाक्षर मन्त्र के अन्त में नम: शब्द लगाकर (ॐ शिवाय नम:) 5 लाख मन्त्रों के जपने से उम्र बढ़ जाती है।
ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि सत्कर्मो से उम्र बढ़ाने वाले सेल्स में वृद्ध्धि् होती है और असत्कर्मो से वे सेल्स नष्ट या कम होते रहते हैं। अत: वहाँ ब्राह्मण का शुद्धिकरण होता है, क्योंकि वर्ण परिवर्तन का अन्तिम उद्देश्य मानव का शुद्धिकरण ही है। इसीलिए सभी को मन्त्र-ब्राहमण कहा गया है। वे जन्मना ब्राह्मण नहीं हैं।
इसी प्रकार जब कोई नारी उस रूप का उद्देश्य बनाकर मन्त्र जपेगी, तो उसका वैसा रूप बनेगा। एक उदाहरण-
श्री दुर्गासप्त्शती में ऋग्वेदोक्त देवी सूक्तम् दिया गया है। वैदिक काल में महर्षि अम्भृण की ब्रहमज्ञानिनी कन्या का नाम वाक् था। उसने देवी की साधना कर देवी से अभिन्नता प्राप्त कर ली। देवी से उसकी यह अभिन्नता लिंग भेद रहित थी।
वह कहा करती थी-
ॐअहं रूद्रेभिर्-वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरूत विश्वदेवै:।
अहं मित्रा वरूणोभा बिभम्र्यह- मिन्द्राग्री अहमश्विनोभा।।
मैं रूद्र, वसु, आदित्य और विश्वे देव-गणों के रूप में विचरण करती हूँ। मैं ही मित्र और वरूण दोनों देवों को, इन्द्र और अग्रि को एवं दोनों अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। आदि।
दूसरी बात पुराणों का यह प्रसंग सर्वविदित है कि शिवजी का दक्षिणांग पुरूष एवं वामांग नारी है तथा ब्रह्मा जी के शरीर के वाम भाग से शतरूपा नाम की नारी और दाहिने भाग से मनु पुरूष का जन्म हुआ। इससे सूचित होता है कि प्रत्येक पुरूष का वामांग नारी गुणों तथा प्रत्येक स्त्री का दक्षिणांग पुरूषत्व गुणों से युक्त होता है।
स्त्री, पुरूष, बाह्मण या अन्य कोई भी पंचाक्षर मन्त्र का जप करके शुद्ध हो जाता है।
शिव जी के भक्त का सम्मान, करने से शिव जी बहुत प्रसन्न होते है, क्योंकि शिव में और शिव भक्त में कोई अन्तर नहीं होता। शिव भक्त सतात् शिव रूप ही है।
शिव स्वरूप मन्त्रस्क, 
धारणाच्छिव एव हि।
शिच भक्त शरीरे हि, 
शिवे तत्परो भवेत्।।
पंचाक्षर महामन्त्र भगवान् शिव का मन्त्र रूप (मन्त्र विग्रह मूर्ति ) है। अत: पंचाक्षर मन्त्र को धारण करने वाला शिव ही हो जाता है। शरीर में शिव भक्ति होने से वह स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है।
निरन्तर साधना करते रहने से साधक पर वैसा प्रभाव पडऩा एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है।
 ऐसी ही स्थिति में साधक शिवोऽहं शिवोऽहं (मैं स्वयं शिव हूं, मैं स्वयं शिव हूं) का ध्यान और एहसाह करने लगता है।
शिव भक्ता: क्रिया: सर्वा, वेद सर्वक्रिया बिदु:।
यावद्यावच्छिवं मन्त्रं, 
येन जप्तं भवेत् क्रमात्।।
तावद्वै शिच सानिध्यं, 
तस्मिन्देहे न संशय:।
देवी लिड्गं भवेद्रूप, 
शिव भक्त-स्त्रियास्तथा।।
जो शिव भक्त सम्पूर्ण वेद क्रियाओं को जानते हैं (और जो वेद-क्रियाओं को न जानने के कारण वेद-क्रियायें जानने वाले ब्राह्मणों से शिव पूजन की क्रियायें कराते हैं) वे जितन-जितने क्रम से शिव पंचाक्षर मन्त्र जपते हैं, उतना ही उतना उन्हें शिव सानिध्य प्राप्त होता जाता है। साधक के शरीर पर इसका प्रभाव पड़ता है, इसमें किसी संशय की बात नहीं है। शिव भक्त स्त्रियाँ स्वयं देवी का स्वरूप हो जाती हैं।
यावन्मन्त्रं जपेद्देव्यार-, 
तावत्सानिध्य-मस्ति हि।
शिवं सम्पूजयेद्धीमान्-, 
स्वयं वै शब्दरूपभाक्।
वे जितना मन्त्र जपती जाती हैं, उतनी ही उन्हें देवी की निकटता प्राप्त हो जाती है एवं जो बुद्धिमान लोग पंचाक्षर मन्त्र जप रूप से शिव जी का पूजन करते हैं, पंचाक्षर मन्त्र भगवान् शिव का शब्द रूप होने के कारण साधक स्वयं शब्द रूप का भागी हो जाता है। (यह विशुद्ध मनोवैज्ञानिक तथ्य है।)
शिवलिंग को नाद रूप, शक्ति को बिन्दु रूप और पंचाक्षर मन्त्र के वर्ण स्वरूप को शिव मानकर इस प्रकार से एक दूसरे में आसक्त भाव से शिवलिंग का मन्त्र जप व पूजन करे।
पूजयेच्च शिवं शक्तिं, 
स शिवा मूलभावनात्।
शिवभक्ताञ्छिवमन्त्र-,
रूपकाञ्छिवरूपकान्।।
वह साधक अपने ह्रदय की गहराई से शिव और शक्ति की पूजा करे। शिव भक्तों को शिव मन्त्र (नम: शिवाय) को साक्षात् शिव का स्वरूप मानकर पूजा करनी चाहिए।
षोडशैरूपचारैश्च, 
पूजयेदिष्ट-माप्नुयात्।
येन शुश्रूषणाद्यैश्च, 
शिवभक्तस्य लिड्गिंन:।।
यदि साधक की कोई सांसारिक कामना है तो शिव भक्त को चाहिए कि षोडशोपचार विधि से शिव की पूजा करे और शिव भक्तों की सेवा करे।
जो शिव भक्त इस प्रकार और भावना से शिवजी का पूजन करता है, वह स्वंय शिव शक्ति स्वरूप होकर पृथ्वी पर पुन: जन्म नहीं लेता।
शिव भक्त के शरीर का वर्णन
पंचाक्षर मन्त्र के लगातार जाप से नाभि से लेकर नीचे पैरों तक का भाग ब्रह्मा का, कण्ठ से लेकर नाभि तक विष्णु का भाग और शरीर का शेष रहा मुख, वह शिव लिंग अर्थात् मानव मस्तिष्क शिवलिंग स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार शिव भक्त के शरीर के विभाग बताए गए हैं।
इसलिए शिव भक्त की मृत्यु के पश्चात् उसकी दाह क्रिया की गई हो अथवा न की गई हो, उस मृतक की पितृ क्रिया के रूप में पितरों की शान्ति के उद्देश्य से सभी के आदि पितर भगवान् शिव का माह में एक बार मधुपंचामृत से रुद्राभिषेक एवं पूजन करें शिव की पूजा के पश्चात् चराचर की आदि माँ भगवती की पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार पितृ पूर्वज व्यक्ति शिवलोक को प्राप्त होकर क्रम से मुक्त होकर परिवार पीढ़ी को प्रसन्नता, सम्पन्नता प्रदान करता है।
तस्माद्वै शिवभक्तस्य, महिमानं वेक्ति को नर:।
शिवशक्यो: पूजनञ्च, शिवभक्तस्य पूजनम्।।
विशेषज्ञो मुनीश्वरा:।।
अत: भगवान शिव और शिव भक्त की महिमा कौन जान सकता है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक शिव शक्ति अर्थात् भगवती शिवा का, शिवजी का और शिव भक्त का पूजन करता है, वह शिव को प्राप्त करता है।
महर्षि मुनिश्वर कहते हैं कि इस अध्याय का अर्थ वेद सम्मत हैं, जो इस अध्याय को पढ़ता है और शिव भक्तों को सुनाता है, वह शिवज्ञानी शिव के साथ रहकर आनन्दित होता है। वह पूर्णत: शिव की कृपा प्राप्त कर लेता है।
भजले मनवा नम: शिवाय – व्यर्थ सुनहरा जीवन जाय
जिस प्रकार एक बार के भोजन करने से जीवन भर के लिए पेट नहीं भरता ठीक उसी प्रकार एक बार काल सर्प पितृदोष या अन्य दोषों की शान्ति कराने से यह मिटता नहीं है। इसके लिए नित्य शिवाय नम: का जाप जरूरी है तभी सभी कष्ट कटेंगे।
पंचाक्षर मन्त्र ú नम: शिवाय के जप से लाभ –
एक लाख पंचाक्षर मन्त्र से जापक का बाहरी शुद्धीकरण।
एक पुरश्चरण अर्थात् ५ लाख जप से पुन: शारीरिक शुद्धीकरण।
पुन: पाँच लाख से मन्त्र पुरूष (मन्त्री)।
पुन: ५ लाख जप से सर्व पाप क्षय, कालसर्प, पितृदोष की शान्ति होती है।
पुन: पाँच-पाँच लाख १४ बार अर्थात् ७० लाख जप से १४ लोकों की प्राप्ति।
पुन: ५ लाख से ब्रह्म (शिव) का सामीप्य।
पुन: ५ लाख से साधक शिव स्वरूप हो जाता है।
पुन: १ करोड़ जप से जापक स्वयं ब्रहम् के समान हो जाता है।
इस प्रकार ब्रहम् (शिव)की समता प्राप्ति के लिए कुल १ करोड़ १५ लाख एक हजार मन्त्र जप करने का विधान बताया गया है।
यह कोई असम्भव कार्य नहीं है। यदि प्रतिदिन ४ घण्टे जप किया जाये तो, लगभग ३ वर्ष में इतना जप पूर्ण हो जायेगा।
विशेष निवेदन- कालसर्प-पितृदोष दूर करने के लिए दर-दर भटकने तथा इसकी शान्ति हेतु नासिक, उज्जैन, हरिद्वार जाने से अच्छा और शीघ्रफल दाता उपाय इतना है कि अपने घर या किसी शिवालय में एक पान के पत्ते पर एक दो छुआरे, पिण्ड खजूर अथवा एक चम्मच अमृतम् माल्ट पितरों के निमित्त नैवेद्य अर्पित कर एक दीपक खुशबूदार तेल अथवा चन्दन, बादाम, केशर एवं जैतून युक्त तेल से निर्मित अमृतम् तेल का तथा एक दीपक देशी घी का जलाकर अपने ग्राम देवता स्थानदेवता, इष्ट देवता, कुल देवता, पितृ देवता तथा अपने गुरु व भगवान शिव का ध्यान स्मरण करते हुए प्रतिदिन १०८ बार ऊँ शिवाय नम: मन्त्र का ग्यारह माह तक निरन्तर जाप करें तो चमत्कारी परिणाम होने लगता है।
विद्येश्वर संहिता में प्रणव ऊँ से ही सम्बन्धित पंचाक्षर-मन्त्र (नम: शिवाय) की चर्चा की गई है। प्रणव की सम्पूर्ण विषय वस्तु से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रणव-मन्त्र का अधिकार सबको नहीं है। कोई भी मन्त्र फलदाता तभी होता है, जब वह गुरू-मुख से प्राप्त किया जाय।
गुरू-मुख से मन्त्र लेना एक विशुद्ध रूप से भैतिक विज्ञान है। पुराणानुसार पंचाक्षर मन्त्र उसी गुरू से लेना चाहिए जिसने कम से कम नौ करोड़ पंचाक्षर मन्त्र की जप संख्या पूर्ण कर ली हो। यदि प्रतिदिन आठ घण्टे जप किया जाय, तो नौ करोड़ की जप संख्या में लगभग ७ (सात) वर्ष का समय लगेगा।
उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के अन्तर्गत श्री हथियाराम मठ सिद्धपीठ है। अन्य मठों के पीठाधीश्वर सन्त अनेक सिद्धियों-साधनाओं से सिद्ध हो पाते हैं लेकिन इस मठ की विशेषता है कि हजारों वर्ष पूर्व अपने पूर्वज गुरुओं से प्राप्त अनेको दुर्लभ शिवलिंगों में जैसे – नवरत्नों के नो अलग-अलग शिवलिंग स्वयं मां गंगा द्वारा प्रदत्त शिवलिंग, स्वर्ण, पारद, गुरु शिवलिंग एवं नर्मदेश्वर शिवलिंग की प्रतिदिन ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा शिव का अभिषेक और रुद्रोभिषेक का वाचन तथा पीठाधीश्वर परम गुरु द्वारा पूजन करने की परम्परा है।
चतुर्मास के दौरान किसी ज्योतिर्लिंग या स्वयंभू सिद्ध शिवालय में दो माह निरन्तर पार्थिव शिवलिंग का निर्माण कर शिवार्चन किया जाता है। स्वयं सिद्ध स्वरूप परम गुरु इस पीठ को अपनी साधना द्वारा और अधिक सिद्ध बना रहे हैं। प्रतिदिन की नित्य पूजा-साधना के पश्चात ही श्री गुरु जी जल ग्रहण करते हैं। यह नियम हजारों वर्षों से चल रहा है। दुनियां में इस प्रकार की सिद्धपीठ मठ दुर्लभ है। भारत में हथियाराम मठ द्वारा संचालित अनेकों स्वयंभू शिवालय हैं।
युगों पूर्व इस मठ के प्रथम-पूर्वज गुरु जंगली जानवरों की आवाजाही, अशांति से सुरक्षा हेतु हाथी का रूप धारण कर घनघोर तप किया करते थे। इसी कारण इस सिद्धपीठ का नाम हथियाराम मठ पड़ा।
दक्षिण भारत के तिरुपति बालाजी के साथ इन्होंने कई वर्षों तक पाशे (एक प्रकार का जुआ-मनोरंजन) खेलते रहे। तिरुपति बालाजी में विराजे श्री व्यंकेटेश्वर को प्रथम नैवेद्य इसी मठ की ओर से अर्पित करने की प्राचीन परम्परा है। हथियाराम मठ की पूजा-परम्परा सिद्धि-साधनाएं आज भी वेद-विधान अनुसार है। जो धर्म निष्ठ और कर्मनिष्ठ गुरु द्वारा ही संभव है। हथियाराम मठ जो हजारों वर्ष पुरानी गुरु परम्परा है। यह मठ सिद्धि पीठ है। इस सिद्धपीठ की यह विशेषता है कि जब गुरु पंचाक्षर मन्त्र नौ करोड़ जप लेते हैं तभी नये शिष्यों को गुरु मन्त्र देते हैं। इस मठ की जप-तप, पूजा साधना की विधि अति परिश्रम कारक है। इस मठ के पीठाधीश्वर पवाहारी होते हैं। प्रतिदिन कम से कम आठ घण्टे कर्मकाण्ड रुद्राभिषेक आदि करना अति आवश्यक है।
शिव पुराण में ही इस जप का यह फल बताया गया है। कि-
नव कोटिजपाञ्जप्त्वा, संशुद्ध: पुरूषो भवेत्।।
नौ करोड़ जप करके व्यक्ति शुद्ध तथा परमहंस परम गुरु हो जाता है। अर्थात् मन्त्र की पावन-सूक्ष्म-तंरगों से उसका मन-तन-विचार ओतप्रोत हो जाते हैं। ऐसे गुरू-मुख से जब मन्त्र दीक्षा ली जाती है, तो शिष्य में मन्त्र के साथ-साथ शक्ति पात भी हो जाता है।
पुन: शिव महापुराण की विद्येश्वर संहिता में बताया है कि भगवान शिव जी का यह पंचाक्षर मन्त्र नम: शिवाय प्रणव-मन्त्र ú का स्थूल रूप है।
महामन्त्र ú अर्थात् प्रणव प्रकरण में प्रणव के सूक्ष्म और स्थूल दो भेद बताए गये। प्रणव का सूक्ष्म रूप एकाक्षर ‘‘ú’’ है और  ‘‘अ उ म्’’ बिन्दू (.) और  नाद पाँच अक्षरों का स्थूल रूप बताया गया। यहाँ पर प्रणव और पंचाक्षर मन्त्र की समानता में प्रणव का स्थूल रूप नम: शिवाय मन्त्र बताया गया। यह पंचाक्षर मन्त्र भी पंच महा तत्त्वों से युक्त हैं।
अ उ म् बिन्दू और नाद की भाँति ‘‘नम: शिवाय’’ भी पंच तत्त्वात्मक है, परन्तु ‘‘नम: शिवाय’’ को प्रणव नहीं, बल्कि पंचाक्षर मन्त्र कहा जाता है। अ उ म् बिन्दु और नाद के समष्टि (सम्मिलित) रूप को प्रणव कहा जाता है।
पञ्चाक्षर-जपेनैव, सर्व-सिद्धिं लभेन्नर:।
प्रणवेनादि संयुक्तं, सदा पञ्चाक्षंर जपेत्।।
प्रारम्भ में प्रणव लगाकर पंचाक्षर मन्त्र जपने वाले को सभी प्रकार की सिद्धियाँ (सफलताएँ) प्राप्त होती है। इसलिए सदा पंचाक्षर मन्त्र का जप करना चाहिए।
गुरू का आदेश प्राप्त कर, सुन्दर वस्त्र धारण कर, किसी भी माह अथवा माघ एवं श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी से अगले महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तक पंचाक्षर मन्त्र का जप सिद्धि दायक होता है।
मन्त्र जप की विशेष स्थिति –
माघं भाद्रं विशिष्टं तु, सर्वकालोत्तमोत्तमम्।
एक बारं मिताशी तु, वाग्यतो नियतेन्द्रिय:।।
माघ (फरवरी-मार्च) और भादौं (अगस्त-सितम्बर) का महीना पंचाक्षर मन्त्र जप के लिए विशिष्ट और सब समयों से उत्तम है। इन दोनों महीनों में एक बार सुपाच्य भोजन करें तथा वाणी और अन्य इन्द्रियों को नियन्त्रित रखे।
स्वस्य राजपितृणां च, शुश्रूषणं च नित्यश:।
सहस्त्र-जप-मात्रेण, भवेच्छुद्धेऽन्यथा ऋणी।।
अपने पालन करने वाले माता – पिता तथा अन्य वृद्धों की नित्य ही सेवा करनी चाहिए। इसी के साथ पंचाक्षर मन्त्र का निरन्तर जप करने से व्यक्ति शुद्ध हो जाता है, अन्यथा उस पर ऋषि ऋण चढ़ा रहता है।
उक्त महीनों में यदि कम से कम प्रतिदिन २ घण्टे जप किया जाय, तो पंचाक्षर मन्त्र (नम: शिवाय) की जप संख्या ५ लाख हो जायेगी, यह जप करते समय भगवान् शिव का इस प्रकार ध्यान करना चाहिए।
पद्मासनस्थं शिवदं, गडंगाचन्द्र-कलान्वितम्।
वामोरू-स्थित-शक्त्या च, विराजन्तं महागणै:।
मृगटक्ड- धरं देवं, वरदा-भय-पाणिकम्।।
सदानुग्रह-कत्र्तारं, सदाशिव-मनुस्मरन्।
कमल के आसन पर विराजमान, सिर पर गंगा जी और मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित है। वाम जंघा पर उनकी शक्ति विराजमान तथा उनके बाएँ हाथ में मृग चिह्र और दाहिना हाथ वरद मुद्रा में उठा हुआ है। वे सदाशिव, सदा सब पर अनुग्रह करते हैं।
इस प्रकार अपने ह्रदय में ही अथवा सूर्य मण्डल में भगवान् शिव का ध्यान करें। इस समय जितना आप निर्विकार रहेगें उतनी जल्दी ही आपको सिद्धियाँ प्राप्त होगीं।
पुरश्चरण का विवरण
पंचाक्षर मन्त्र का एक पुरश्चरण पाँच लाख मन्त्रों का होता है। पाँच लाख मन्त्र जप में लगभग ११२ धण्टे लगेंगे। यदि प्रतिदिन ४ घण्टे जप किया जाये, तो २८ दिन में एक पुरश्चरण हो जाता है। जिन्हें शिव से लगन लगी हो उन साधकों के लिए यह बहुत कठिन काम नहीं है।
मन्त्र से मन्त्री
पंचाक्षर मन्त्र के एक पुरश्चरण से साधक मन्त्री हो जाता है। यहाँ मन्त्री से तात्पर्य मन्त्र-पुरूष से है। अर्थात् वह साधक पौराणिक भाषा में मन्त्र-पुरूष कहा जाता है। पुन: एक पुरश्चरण से साधक के ह्रदय से कोई भी पाप करने की इच्छा नष्ट हो जाती है।
प्राय: एक प्रश्न आता है कि इसका क्या प्रमाण है कि साधक व्यक्ति का मन्त्र जप सफल हो रहा है या नहीं? ऋषियों ने इसके परीक्षण के कुछ लक्षण बताए है। जैसे- मन्त्र जप के समय अनायास चौंक जाना, रोमांच होना, अश्रुपात होना, मन्त्र के देवता की उपस्थ्तिि का आभास होना (इस स्थिति में इष्ट देवता उपस्थित नहीं होता, न दिखाई देता, केवल ऐसा आभास होता है कि हमारे इष्ट देव आ गये।), स्वप्न में हवन करना, पुण्य तीथों में भ्रमण करना, इष्ट देवता की मूर्ति तथा नाग-शेषनाग के दर्शन-पूजन करना आदि।
इसी प्रकार पाप या किसी भी प्रकार के अपराध की प्रवृत्ति का नष्ट होना पुराणों में पापक्षय कहा जाता है। मन्त्र की सफलता का यह सबसे बड़ा लक्ष्य है।
पुराणों में बारम्बार आने वाले ‘‘पाप क्षय’’ का अर्थ हमने यह लगा लिया है कि इस अमुक पूजा-पाठ, दान या मन्त्र से हमारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ऐसा कभी नहीं होता। यदि यह सत्य है, तो भगवान् श्री कृष्ण का गीता का कहा महावचन कट जाता है कि- ‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म-शुभाशुभम्।’’ अर्थात् प्रत्येक प्राणी को किये गये शुभ-अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है। पूजा-पाठ मन्त्रादि से कृत पाप कर्मो के दुष्परिणामों को भोगने की क्षमता आ जाती है। अनेक ऐसे सन्त हुए हैं, जो अपने कष्टों को दूर कर सकते थे, परन्तु भोग को भोगना ईश्वरीय नियम मानकर जीवन भर कष्ट भोग भोगते रहे।
मन्त्र जप की सफलता का एक मुख्य लक्षण यह है कि मन्त्र जापक के ह्रदय में सद्-विचार उत्पन्न हो, सत्कर्म करने लगे, असत् से घृणा हो, प्राणियों के प्रति सहानुभूति हो आदि।
इस प्रकार प्रथम बार के ५ लाख पंचाक्षर मन्त्र जप से मन्त्र पुरूष पुन: ५ लाख अर्थात् दूसरे  पुरश्चरण के पश्चात उसके मन, वचन और कर्म से सब प्रकार का पाप (अपराध) नष्ट हो जाता है। मन्त्र जप से यदि यह परिणाम नहीं मिलता, तो अपने मन्त्र जप की प्रक्रिया तथा मन्त्र जपते समय अपने मन की गतिविधियों का निरीक्षण करें व अपने मन्त्र दाता गुरू की शरण में जावें।
आगे पंचाक्षर मन्त्र नम: शिवाय की शाक्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
अतलादि समारभ्य, सत्यलोकावधि क्रमात्।
पञ्चलक्ष-जपात्तत्त-, ल्लोकैश्वय्र-मवाप्नुयात्।।
अतल लोक से लेकर सत्य लोक तक का ऐश्वर्य क्रमश: पाँच-पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्र के जप से प्राप्त होता है।
अतल लोक से सत्य लोक तक के लोकों का पौराणिक विवरण निम्नलिखित से है-
अतलं वितलं चैव, सुतलं च तलातलम्।
महातलं च पातालं, रसातलमधस्तत:।।
ब्रह्मवै. ब्रह्म खण्ड अध्याय ७ पद १३ एवं श्री मद्भागवत में यही सातों लोक बताकर कहा गया है-
एषेतु हि बिलस्थलेषु स्वर्गादप्यधिक।।स्कन्ध पुराण ५अ. २४.८।।
ये सातों पाताल बिल भूमियाँ हैं, जिनमें स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्य भोग है। अर्थात् ये सातों भूमियाँ बिल की भाँति दिखाई पड़ती हैं। इसलिए पुराणों में बिल भूमि कहा जाता है। इनमें किसी भी तारे (सूर्य) का प्रकाश नहीं पहुँचता। आधुनिक विज्ञान इन्हें ब्लैक हॉल (श्याम विवर) कहता है। वह इन्हें न्यूट्रान ग्रह बताता है। बाहर से आने वाले किसी भी प्रकाश को ये परावर्तित न करके अपने में लय कर लेते हैं। यहाँ तक पुराण और विज्ञान की बात समान है। दोनों में अन्तर यह है कि आधुनिक विज्ञान इनमें कोई आबादी नहीं मानता जबकि पुराण इनमें स्वर्ग से भी अधिक ऐश्वर्य और आबादी मानता है।
इन सातों पातालों के पश्चात् भू, भव:, स्वर्ग, मह, जन, तप और सत्य लोक हैं। इन चौदहों लोकों की क्रमश: प्राप्ति के लिए पाँच-पाँच लाख पंचाक्षर मन्त्र जप का विधान बताया गया है।
मध्ये मृतश्चेद्भोगान्ते, भूमौतज्जापको भवेत्।
पुनश्च पञ्चलक्षेण, ब्राह्म-सामीप्य-माप्नुयात्।।
 मन्त्र जप से मन, वचन व कर्म की पवित्रता के कारण जापक की आयु बढ़ जाती है, चौदहों लोकों को प्राप्त करने के बाद यदि पुन: ५ (पाँच) लाख पंचाक्षर मन्त्र जपता है, तो उसे ब्रह्म सायुज्य प्राप्त हो जाता है।
पुराण के इस प्रसंग से यह सिद्ध होता है कि कर्म-बन्धन जन्म-जन्मान्तर तो क्या महाप्रलय में भी जीव के सूक्ष्म तत्त्व के साथ लगे रहते हैं और पुन: सृष्टि-रचना के पश्चात् उस जीव का उसके कर्मानुसार जन्म और तदनुरूप अवसर प्राप्त होता रहता है।
पृथ्व्यादि कार्य-भूतेभ्यो, लोका वै निर्मिता: क्रमात्।
पातालादि च सत्यान्तं, ब्रह्मलोकाशचतुर्दश।। वही
पंच महाभूतों से प्थ्वी आदि कार्य पाताल से सत्य (ब्रह्म) लोकों तक (१४ लोकों) का निर्माण और विनाश हुआ करता है।
उक्त प्रसंग में जो कई बार ‘‘ब्रह्म’’ शब्द आया है, ध्वन्यालंकार से उसका अर्थ इस संसार का रचयिता ब्रह्मा स्वयं शिव है क्योंकि
असत्यश्चाशुचिश्चैव, हिंसा चेवाथ निर्घणा।
असत्यादि चतुष्पाद:, सर्वाश: कामयपधृक्।।
असत्य, अशुचि, हिंसा और निघृण (निर्दयता) ये चतुष्पाद काम (चार चरण) रूपधारी भगवान् शिव के अंश हैं।
पापों का पिटारा
असत्य, अशुचि (अपवित्रता), हिंसा (किसी की हत्या करना या किसी को किसी प्रकार का कष्ट देना) और निर्दयता-भगवान् शिव के चरणांश हैं। सारा संसार असत्य रूपी अन्धकार, अज्ञान में जी रहा है इसलिए अज्ञानी प्राणी अपवित्र है और जो अपवित्र है वहीं हिंसक है। हिंसा से भरे प्राणी में उदारता असंभव है। इसलिए वह निर्दयी है।
इन चारों दुष्प्रवृत्तियों को भगवान शिव ने अपने चरणों में जगह दे रखी है। शिव औघड़दानी इसलिए भी कहे जाते हैं क्योंकि सृष्टि की समस्त उटपटांग वस्तुओं का स्थान उनके चरणों में है। जो साधक पंचाक्षर मन्त्र को उठते-बैठते, सोते-जागते, नहाते-खाते मन ही मन जपते रहते हैं उनके जीवन से अज्ञान, अपवित्रता, हिंसा और क्रूरता दूर हो जाती है। ऐसे साधकों को शिव सदा साधे रखते हैं।
कभी-कभी दु:खी लोग ऐसा भी कहते हैं कि सर्वाधिकार ईश्वर का ही है, तो उसने पापमय और दु:खमय संसार बनाया ही क्यों?
स्वर्ग से लेकर पृथ्वी लोक तक मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी भोग योनियाँ हैं, केवल मनुष्य ही भोग योनि और कर्म योनि दोनों ही है। अर्थात् मनुष्य अपने विगत कर्मो को भोगते हुए नये कर्म करके अपना नया भाग्य निर्माण करता है और  पुराणों में कई बार आया है कि ईश्वर को सभी योनियों में मनुष्य सबसे अधिक प्रिय है। अत: मनुष्यों को अपना अच्छा भविष्य बनाने के लिए ईश्वर एक अन्तिम मौका देते हैं इसलिए वह सृष्टि रचना किया करते हैं।
तदर्वाक् कर्म भोगो हि, तदूध्र्व ज्ञान-भोगकम्।
तदर्वाक् कर्म-माया हि, ज्ञानमायादूध्र्वकम्।।
यदि हम वर्तमान जीवन में दुर्गुणों से दूर रहते हैं, तो भी हमें पिछले कमों का भोग भोगना है, इसके आगे वर्तमान जीवन में हमने जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह भी भोगना होता है, उसके आगे कर्म माया का अद्भुत जाल है और इसके भी आगे ज्ञान-माया का क्षेत्र है।
जो साधक ध्यान, धर्म और सदाचार पूर्वक जीवन यापन करता हुआ पंचाक्षर- साधना करता है, उन पर समाधिस्थ आत्मानन्द स्वरूप भगवान् शिव अनुग्रह करते हैं, उनका यह नित्य ध्यान ही नित्य कर्म-यज्ञ है, निश्चित ही भगवान् शिव में उनका प्रेम हो जाता है।
क्रियादि शिवकर्मेभ्य:, शिवज्ञानं प्रसाधयेत्।
तद्दर्शन-गता: सर्वे, मुक्ता एव न संशय:।।
ऊपर बताया गया ध्यान, पंचाक्षर जप, धर्म और सदाचारी जीवन ये सभी कर्म शिव कर्म हैं। इन्हीं कर्मो से शिव का ज्ञान प्राप्त होता है। उनका (शिव जी का) ध्यान-दर्शन (ध्यान में दर्शन करना) करके सभी लोग मुक्त होते ही हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
जब ध्यान लगे शिव की लगन में
अधिकांश साधकों की एक समस्या रहती है कि ध्यान में उनका मन इधर-उधर भटक जाता है। मन के भटकने में चिन्तित नहीें होना चाहिए अपितु प्रयासपूर्वक अपनी बुद्धि को या ध्यान को मन के पीछे लगा दो और देखते रहो कि मन कैसे-कैसे स्थानों में जाता है, क्या सोचता है और क्या करता है? जैसे कोई अभिनेता दो विरोधी पात्रों का अभिनय (डबल रोल) करता है, उसी प्रकार साधक को ध्यान में दोहरा अभिनय करना होता है।
एक तो मन का अभिनय यह है कि मन भटक रहा है और दूसरा मन वह है, जो उसके पीछे-पीछे उसकी चंचलाओं का निरीक्षण करता चलता है। ऐसी स्थिति में भटकने वाला चंचल मन जब अपने पीछे-पीछे ध्यान करने वाले अपने ही स्वरूप को निरीक्षक के रूप में देखता है, तो चंचल मन की भटकन थम जाती है, तब वह पुन: ध्यान में लग जाता है।
ध्यान में यह क्रिया बारम्बार हुआ करती है और अभ्यास करते-करते मन स्थिर होने लगता है। एक बात और है कि चंचल मन को ध्यान में उतना आनन्द (मजा) नहीं आता, जितना सांसारिक माया में। इसी से पुराणकारों ने ध्यान के विविध रूप या श्रेणियाँ निर्धारित की हैं।
संहिता के श्लोक 59 से 99 तक में ध्यान की बड़ी लम्बी यात्रा का वर्णन किया गया है। यह प्रकरण बड़ा मनोवैज्ञानिक है। यह यात्रा कोई भौतिक यात्रा तो है नहीं कि अपने वाहन पर सवार होकर आनन्द से मार्ग के विविध दृश्य देखते हुए जा रहे हैं। इस ध्यान-यात्रा में तो मन को ही सब कुछ करना है।
वह (मन) विभिन्न आध्यात्मिक लोकों की यात्रा मानसिक रूप से करेगा। अर्थात् यात्रा मार्ग के उन सभी विभिन्न लोकों की रचना पढ़े अनुसार उसे स्वयं करनी है। यात्रा क्रम भूल जाने पर वह फिर पहले स्थान से यात्रा प्रारम्भ करेगा।
ऐसा करते-करते उसका (मन का) अभ्यास बढ़ेगा, तब भूल हो जाने पर वह प्रथम पड़ाव (लोक) से यात्रा प्रारंभ नहीं करेगा, अपितु मन को याद रहेगा कि उसने अमुक लोक तक की यात्रा कर ली है और वह वहीं से प्रारंभ करेगा। इस प्रकार मन को इधर-उधर भटकने का अवसर ही नहीं मिलेगा। फिर वृषभ नन्दीश्वर का ध्यान लगायेगा, तो उसे (मन को) भी आनंद आने लगेगा।
इस प्रकार पुराणों के जो प्र्रसंग हमें गप्प प्रतीत होते हैं, वे प्रसंग वास्तव में मन को नियन्त्रित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
ब्रह्र्षिवेदव्यास ने पंचाक्षर मन्त्र की महाव्याख्या में पाँच चक्र इस प्रकार बताए हैं-
1. न- (सृष्टि मोह) ब्रह्म चक्र
2. म:- (भोग मोह) वैष्णव चक्र
3. शि- (कोप मोह) रौद्र चक्र
4. वा- (भ्रमण मोह) ऐश्वर्य चक्र
5. य- (ज्ञान मोह) शिव चक्र
1. न- (सृष्टि मोह) ब्राह्म (ब्रह्मा का) चक्र- यहाँ पर ब्रह्म का अर्थ परं ब्रह्म से नहीं है। ये ब्रह्मा हैं। ब्रह्मा का कार्य सृष्टि रचना हैं। इन्हें सृष्टि रचना का मोह (कत्र्तव्य भाव) होता है, तभी वे सृष्टि रचना कर पाते हैं, और यह एक बार का कार्य नहीं है, अपितु इसका चक्र (पहिया) है, जो सदा ही घूमा करता है। अर्थात् महा प्रलय के पश्चात् वे सदा ही रचना किया करते हैं।
2. म:- (भोग मोह) वैष्णव चक्र- यहाँ भोग का अर्थ स्वयं भोग करना नहीं है, अपितु स्वयं भोग करने की अपेक्षा दूसरों को भोग कराना ही स्वभोग है- इसमें बहुत आनंद आता है। दूसरों को भोजन कराने में आज भी लोग स्व भोजन से अधिक आनंद भोगते हैं। बुजुर्ग कहा करते थे कि –
एक ने खाया कुत्ते ने खाया
सबने खाया अल्लाह ने खाया
श्वान (कुत्ता) रूपी प्राणी सदा अकेले खाता है और कौआ सबके साथ मिलकर खाता है।
भगवान् विष्णु को संसार को भोग कराने (पालन-पोषण करने) में आनंद आता है और जिस कार्य में आनंद आता है, उससे मोह (रूचि) हो जाता है। विष्णु भी अपने भोग मोह चक्र में सदा घूमते रहते हैं। विष्णु विश्व के सभी अणुओं, प्राणिओं का लालन-पालन करते है इसलिए देवताओं में प्रथम हैं और महादेव के प्रिय हैं।
शिवरात्रि, नवदुर्गा, गणेश चतुर्थी, हनुमान जयंती आदि पर्वों के समय भण्डारा करने तथा अनेक लोगों को भोजन कराने से श्री हरि विष्णु प्रसन्न होते हैं। भण्डारा सर्व भोज का प्रचलन श्री विष्णु द्वारा प्रारम्भ हुआ।
3. शि- (कोप मोह) रौद्र चक्र – यह चक्र बहुत स्पष्ट है। भगवान् कोप करके सृष्टि का संहार करते हैं। इनकी चक्र गति है। अत: ये भी सदा यही कार्य किया करते हैं। इन्हें अपने इस कत्र्तव्य के प्रति मोह है।
4. वा- (भ्रमण मोह) ऐश्वर्य चक्र- अपने इस चक्र में ईश्वर (शिव- इस चतुर्थ स्तर में इनका नाम ईश्वर होता है।) समस्त विश्व रचना के बीजों को अपने में समाहित कर लेते हैं। यह इनका चौथा चक्र अनुग्रह है।
इस चक्र में ईश्वर को भ्रमण तो क्रमश: सदा करना ही पड़ता है, परन्तु इस स्थिति में उन्हें मोह (कत्र्तव्य भाव) नहीं रहता। इस समय अपने शेष कर्मो के परिणामों को साथ लिए हुए जीव अपने अन्तिम सूक्ष्म रूप से शिव में समाहित रहता है। इस समय जीवकर्ता भोक्ता नहीं होता। इस समय उसकी विश्रामावस्था होती है। परमेश्वर का चराचर जगत पर यह अनुग्रह है।
5. य- (ज्ञान मोह) शिव चक्र- ईश्वर के ज्ञान की यह शान्ति अवस्था है। इस अवस्था में अपने आप में परमानन्द रहता है। परमेश्वर की यह स्थिति भी कालचक्र से मुक्ति की नहीं है। यद्यपि यह परमेश्वर का शिव-चक्र अर्थात् आनंद चक्र है, परन्तु काल के चक्र में यह भी आबद्ध है। अर्थात् इसका भी एक निश्चित समय है और उतने समय तक आनन्दमग्र रहने के पश्चात् पुन: संसार का चक्र घुमाने लगता है अर्थात् संसार की रचना प्रक्रिया प्रारंभ कर देता है।
अभी ऊपर पाँच चक्र अथवा पाँच पद बताए गये हैं। जब तक इन पदों एवं चक्रों को पार नहीं कर लिया जायेगा, तब तक साधक शिवलोक नहीं पहुँच सकता। इसीलिए इन्हीं पदों और चक्रों को आवरण (परदा) बताया गया

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