भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति

शिव पुराण के अनुसार मुरलीवाला भी
भोलेनाथ के परम उपासक था…
श्रीकृष्ण का गुरुमंत्र भी शिवमन्त्र ही था।
वह कौन सा गुरुमन्त्र था?
 यह लेख कभी
विस्तार से किसी ब्लॉग में अलग से दिया जाएगा।
फिलहाल शिवपुराण के अनुसार द्वारकाधीश
की अटूट शिव भक्ति पढ़ें
 
श्रीमद् भगवत्गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी
अर्जुन को परमहित, सर्वहित ऐश्वर्य की
प्राप्ति का उपदेश देते हुए कहते है कि
ईश्वर शब्द साक्षात् महादेव का वाचक है।
ईश्वरः शर्व ईशानः शंकरचन्द्रशेखरः।।
ईश्वर अर्थात् जगत नियन्ता देवों के देव महादेव
ही सम्पूर्ण जगत् को अपने चन्द्रशेखर रूप में
सबको शीतलता प्रदान कर रहे हैं।
दुर्भगाया न मे धाता नानूकूलो महेश्वरः
देवी या विमुखा गौरी रूद्राणी गिरिजा सती।
श्रीमद् भगवत् में भगवान श्रीकृष्ण के एक बार
अत्यन्त दुःखी और पीड़ित होने पर यह प्रार्थना की..
 कि हे भोलेनाथ, मैं अत्यन्त दुर्भगा, अभागा हूं,
न तो मेरे पर धाता ब्रम्हा की दया है और
ना ही आप विधाता (महादेव) की कृपा है।
जब महेश्वर (भोलेनाथ) ही मेरे अनुकुल नहीं है,
 तो अब किससे गुहार लगाऊँ।
आपकी अकृपा के कारण ही देवा
रूद्राणी गिरिजा सती भी मुझसे विमुख है।
अतः मैं अत्यन्त दीन भाव से हे दीनबंधु, दयासागर आपसे अपने दुःखों से मुक्ति की कामना करता हूं।
महाभारत के सौप्तिक पर्व मं स्वयं भगवान शिव ने कहा है-
अहं यथावदाराध्यः कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
तस्मादिष्टतमः कृष्णादन्यो मम न विद्यते।।

अनेक क्लिष्ट कर्म द्वारा, परिश्रम कारक,
कठिनाई से परिपूर्ण होकर श्रीकृष्ण जी मेरा नित्य
यथावत् अराधना करते हैं इसलिए कान्हा से
बढ़कर मुझे और कोई प्रिय नहीं है।
भगवान शिव का यह वचन..
श्रीकृष्ण के शिवअराधना
के परम उत्कर्ष को दर्शाता है।
महाशिवपुराण –
ज्ञान संहिता के अध्याय 61 से 71
में भगवान श्रीकृष्ण की परम शिवभक्ति
 का विस्तार से वर्णन है कि सुदामापुरी के पास
“बरडा पर्वत” .. बटुकाचल पर सात मास
श्रावण मास से माघ मास की महाशिवरात्रि पर
भगवान श्रीकृष्ण पर विश्ववैश्वर शिव का
!!ॐ नमः शिवाय!!
 मंत्र का जप करते हुए कठोर तप किया।
भगवान श्रीकृष्ण शिवशम्भू की भक्ति में
इतने लीन रहते थे कि…
 अन्दर शिव को देखते और बाहर सबको देखते थे।
श्याम की अगाध शिव साधना से प्रेरित होकर
किसी कवि ने कहा है कि –
कान्हा के नयनों में ऐसा ममीरा था
जो आंख मूंदकर भी शिवधाम देख लेते थे
(ममीरा का अर्थ काजल होता है)
श्याम का ध्यान आते ही मन शाम
सुहानी तथा आत्मा गद्गद् हो जाती है।
यह स्थान वर्तमान का सम्भवतः
राजस्थान का माउंट आबू पर्वत है
यहां आज भी अनेकों
१-  अग्नेश्वर, 
२-  दक्षिणेश्वर, 
३-  कृष्णेश्वर, 
४-  तृप्तेश्वर आदि स्वयंभू शिवालय है।
शास्त्रों में वर्णित वाणी के अनुसार
भगवान श्रीकृष्ण जीवन भर 
नित्य शिव सहस्त्रनाम से बिल्व पत्र चढ़ाते थे।
कान्हा की इस अटूट शिव-साधना के फलस्वरूप
महादेव ने उन्हें अनेक वर दिए,
जिनमें पुत्र प्राप्ति का वर प्रमुख था।
मुरलिया वाला…
 जिस शिवलिंग पर पर शिवार्चन करते थे, 
वह स्वयंभू लिंग बिल्वेश्वर नाम से प्रख्यात है यह स्थान सोमनाथ शिवालय के करीब है और जिस नदी के किनारे उनका मंदिर है उस नदी का नाम बिल्वगंगा है।

भगवान कैलाशनाथ की वराभ्यर्थना के
 समय कान्हा कृष्ण महाभारत के अनुशासनिक 
पर्व अध्याय 15 में भोलेनाथ से विनम्र 
प्रार्थना इस प्रकार की है
धर्मे दृढत्वं युधि शत्रुघातं
यशस्तयाअग्रयं परमं बलं च।
योगप्रियत्वं तव संनिकर्षं
वृणे सुतानां च शतं शतानि।।
द्विजेस्वकोपं पितृतः प्रसादं

शतं सुतानां परम् च भोगम्।
क्ुले प्रीतिं मातृश्च प्रसादं
शमप्राप्तिं प्रवृणे चापि दाक्ष्यम्।।

अर्थात…..
 हे शिवशम्भू, हे महादेव, हे विश्व के नाथ-विश्वनाथ-
धर्म में मेरी सम्पूर्ण दृढ़ता रहे, युध्द में शत्रुघात न हो,
जगत् में उत्तम यश प्राप्त हो परम बल, योग बल,
सर्वप्रियता, आपका (शिव को), सानिध्य की प्राप्ती हो।
दस हजार पुत्र हों। ब्राम्हणों मं कोप,
द्वेष, दुर्भावना का आभाव हो अर्थात पण्डितों
में आपस में प्रेम हो, कटुता न हो।
माता-पिता की प्रसन्नता सदैव बनी रहे।
सैकड़ों पुत्र-पुत्रादि, उत्कृष्ट वैभव भोग, ऐश्वर्य
अर्थात सदा ईश्वर का (आपका) मेरे यहां वास हो।
कुल में प्रीति, माँ का प्रसाद (अनुग्रह)
शम प्राप्ति (शांति लाभ) हो और
सर्वदक्षता कार्यकुशलता से मेरे सभी कार्य पूर्ण हों।
 ये सोलह प्रकार के वर प्रभु गिरधर गोपाल ने मांगे
तथा महादेव और महादेवी पार्वती ने प्रसन्न होकर
ये सभी वर उन्हें दिए।
बंशीवाला परम शिव उपासक था
शास्त्रों-पुरानों में स्वयं श्री कन्हैया ने
शिव महिमा का स्वमुख से वर्णन किया है।
विस्तृत निरूपण से सूक्ष्म विचार से देखा जाये तो
‘यो यदभक्तः स एव सः’।
इस वाक्य समन्वय से भगवना श्रीकृष्ण स्वयं भी पूर्णतः शिवरूप हो चुके थे।
जाने महादेव का पहला लिंग परिवर्तन
एक बहुत ही अद्भुत जानकारी
 
देवी भागवत् में श्रीकृष्ण को गौरी (माँ पार्वती)
का अवतार तथा
महासाधिका राधा को शिव का अवतार बताया गया है।
यह सृष्टि का पहला लिंग परिवर्तन था।
भगवान श्रीकृष्ण जब पूर्ण शिवमय,
शिव रूप हुए तो युध्दक्षेत्र में अर्जुन को ज्ञान
दिया कि संसार का कारण, अकारण, नदीरूप,
वायु अहंकार सभी कुछ मैं ही हूं।
वैसे भी जब साधक शिव साधना की 
और पूर्णतः रम जाता है तो उसको स्वयं ही 
शिवोअहम-शिवोअहम 
का अहसास होकर
भगवान का अहसास होने लगता है।
इसलिए भगवान  श्रीनाथ, तिरूपतिनाथ,
 ने अपने श्री मुख से उद्बोधन किया है कि …
अहं ब्रम्हा च र्श्वश्च जगतः कारण परम्
आत्मेश्वर उपदृष्टा स्वयंदृगविशेषणः।
आत्ममायां समाविश्य सोअहं गुणमयी द्विज।
सृजन रक्षन हरन् विश्वं दद्य्रे संज्ञां क्रियोचित्तम।।
 
भावार्थ….
मैं (विष्णु) ब्रम्हा और शर्व, हम तीनों जगत्
के (अभिन्न अंग) कारण है, स्वरूप
सर्वविशेषवर्जित दृग्रुप होकर अर्थात
अन्तर्मन की दृष्टि से देखने पर हम आत्मा,
 ईश्वर और उपद्रष्टा सभी कुछ है।
 मैं (ब्रम्हा-विष्णु-महेश) अपनी गुणमयी
त्रिगुणात्मिका माया में समाविष्ट (उपहित) होकर सृजन (निर्माण) रक्षण (पालन) और संहार करता हुआ कर्मानुसार ही जीव को धारण करता हूं।

हमें रूप भेद में पड़ना महामूर्खता है।

कल्याणकारी शिव

शब्दों का मायाजाल
कासी के बसैया पर, कासी के दिवैया नाथ
भग के छनैया अरू गंग के धरैया तुम।
बेसके अमंगल औ जंगल के वासी शिव,
तौहू महामंगल हौ, मंगल करैया तुम।।
केतिक उधारे के ते, तारे भवसागरतें,
सबको सम्हारे ऐसे विपद-हरैया तुम।
ऐ हो त्रिपुरारी अधहारी सुखकारी प्रभु,
कृष्ण परयौ द्वारे आज लाज के रखैया तुम।।
 
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