वाणी का विज्ञान !!

  • जीवन का समूचा व्यवहार वाक् से, वाणी से होता है। बिना वाणी के सब कुछ अधूरा है। एक प्राचीन साहित्यकार का कथन है कि बिना शब्दज्योति के समग्र लोक अंधकार में लीन रहेगा-
  1. परम्परा को अंग्रेजी भाषा में Dogmatism and Tradition कहते हैं ।
  2. मनीषा को अंग्रेजी भाषा में Rationalism कहते हैं
  3. Symbolism is the philosophical interpretation of religous myths.
  4. चितिः प्रत्यवमर्शात्मा परावाक् स्वरकोदिता।

शिव-तत्त्व

इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्य।

दि शब्दाह्वयं ज्योतिः संसारं नैव दोप्यते॥काव्यादर्श

  • जड़ और चेतन के अन्तर का आधार ही विमर्श है । वह चाहे कितना ही सूक्ष्म तथा संकेत-निरपेक्ष क्यों न हो, पर शब्द आधारपीठ रहेगा।
  • त्रिक् दर्शन ने परम तत्त्व और परा वाक् की इसी दार्शनिक एक-आत्मीयता के आधार पर वर्णों अथवा मंत्रों को शिवरूप माना है। इसीलिए धार्मिक तथा दार्शनिक, दोनों के लिए वर्ण, वर्णात्मक मंत्र श्रद्धा के विषय हैं।
  • दार्शनिक भी वर्गों को शिव की विभिन्न शक्तियों का रूप मानता है। वास्तव में शक्ति तथा वर्ण का तादात्म्य है । परा शक्ति के रूप में समस्त वर्णों में व्याप्त है।
  • यदि परम शिव में द्वैत की – – दो पृथक् की – – कल्पना नहीं की जा सकती तो शक्ति और वाक् को एकरूप मानना ही होगा । इस प्रकार वर्णात्मक मंत्र का ध्यान परम तत्त्व का ही चिन्तन है। उपासक-साधक पराशक्ति तथा परावाक्, दोनों के ही ध्यान से मोक्ष-लाभ कर सकता है।
  • कश्मीर के शैव- दार्शनिकों ने स्वर तथा व्यंजन-रूप समग्र वर्णों की दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या की है।
  • उन्होंने प्रत्येक वर्ण को किसी-न-किसी तत्त्व का प्रतीक माना है। त्रिक्-दर्शन के अनुसार ३६ तत्त्व है।
  • उन्हें दो भागों में विभाजित किया जाता है – शुद्ध मार्ग तथा अशुद्ध मार्ग | शुद्ध मार्ग वह है, जिसमें “अहन्ता” की प्रधानता होती है।
  • अशुद्ध मार्गं वह है, जिसमें माया-तत्त्व के कारण “इदन्ता” आ जाती है। शुद्ध मार्ग के तत्त्व शैव-दर्शन के अपने हैं और अशुद्ध मार्ग में वेदान्तियों की माया।
  • शक्तिपंचक में सांख्यदर्शन के पुरुष तथा प्रकृति के सभी विकारों को मिलाकर २५ तत्त्वों का संग्रह किया गया है। इन तत्त्वों का रेखाचित्र बड़ा महत्त्वपूर्ण तथा अध्ययन के योग्य है | इन्हें ध्यान से पढ़ना चाहिए।जरा-सा ध्यान देने से विषय स्पष्ट हो जायगा।
  • (मन्त्रा वर्णात्मका: सर्वे वर्णाः शिवात्मकाः!—“प्रत्यभिज्ञानहृदय” में उद्धृत, पृष्ठ ५७)
  • अशुद्ध मार्ग से, या यों कहिए कि माया से, सृष्टि का ऊपर लिखे प्रकार क्रमागत विकास हुआ।
  • आज हमारी सत्ता ही अशुद्ध मार्ग के कारण है। किन्तु जीवन का ठोस सत्य भी तो इसी मार्ग के द्वारा प्रतिपादित होता है।
  • अशुद्ध मार्ग के अन्तर्गत जिन पच्चीस तत्त्वों का वर्णन है, उनके प्रतीक वर्ण हैं, मातृकाएँ हैं।
  • अभिनवपाद गुप्त ने इसका प्रतिपादन इस प्रकार किया है –
  • १. अ से लेकर विसर्ग अः तक शिव-तत्त्व का प्रतीक है।
  • २. क से लेकर ङ तक के वर्ण पृथ्वी तत्त्व से लेकर आकाश तत्त्व के प्रतीक हैं।
  • ३. च से लेकर ञ तक गंध से लेकर शब्द तक तन्मात्राओं के प्रतीक हैं।
  • ४. ट से लेकर ण तक के वर्ण पाद से लेकर वाक तक, यानी पाँचों कर्मेन्द्रियों के प्रतीक हैं ।
  • ५. त से लेकर न तक के वर्ण घ्राण से प्रारम्भ कर श्रोत्र तक अर्थात् पाँच बुद्धीन्द्रियों के प्रतीक हैं।
  • ६. प से लेकर म तक मन, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति तथा पुरुष, इन पाँच के प्रतीक हैं।
  • ७. य से लेकर व तक के वर्ण राग, विद्या, कला तथा माया तत्त्व के प्रतीक है।
  • अधोरा रहस्य विद्या में वर्गों का विभाग दो रूपों में मिलता है — बीज तथा योनि । स्वरों को बीज का तथा व्यंजनों को योनि का प्रतीक माना गया है।
  • योनि इत्यादि के पूजन का तंत्र-शास्त्रों में जो विधान है, उसका लोग बहुत गलत अर्थ लगाते हैं।
  • योनि बीज का प्रतीक है। यह परम शिव का प्रतीक है। परब्रह्म की कल्पना, परब्रह्म का प्रतीक यही बोज अथवा योनि में, सृष्टि के उत्पादन के यंत्र — “महदयोनि” का संकेत है।
  • तान्त्रिक उगसना के विषय में बहुत सी भ्रान्तियाँ हैं।इन भ्रान्तियों का सबसे बड़ा कारण यह है कि उपासक अथवा साधक अपने क्रम को इतना गुप्त रखते हैं कि लोग गलत अर्थ लगा ही लेते हैं।
  • एक आम भ्रान्ति है कि तांत्रिक उपासना का मतलब मदिरापान करना है। जिसके एक हाथ में पात्र हो और दूसरे हाथ में घट ( मदिरा की बोतल ) वही सच्चा तांत्रिक हुआ । वास्तविक उपासना के लिए कैसा पात्र हो कैसी मदिरा हो, इसका पता इस श्लोक से लगेगा।

आधारे भुजगाधिराजतनये पात्रं महीमण्डलं,

द्रव्यं सप्तसमुद्रवारिपिशितं चाष्टौ च दिग्दंतिनः।

सोऽहं भैरवमर्चयन्प्रतिदिनं तारागणै:

रक्षितैरादित्यप्रमुखैः सुरासुरगणंराज्ञाकरैः किंकरैः

  • शेषनाग को आधार यानी रखने का स्थान बनाकर उस पर समूची पृथ्वी को पात्र बनाकर रखे और उस पात्र में सातों समुदों का पानी उड़ेलकर उस मदिरा को पीना चाहिए!
  • (अकारादि विसर्गान्त शिव-तत्त्व राग-विद्या-कला-मायाख्यानि तत्त्वानि परात्रिंशिका पर अभिनवपाद गुप्त की टीका, पृ० ११३ प्रतीक-शास्त्र)
  • यानि अपनी साधना में समूची सृष्टि की कल्पना कर ली गयी है। अब इस तत्त्व को बिना समझे लोग उसका मजाक उड़ायें तो किसका दोष है ?
  • इसी प्रकार यंत्र – उपासना में समूची पृथ्वी का भास करके, मंडल बनाकर अपने देवता को स्थापित कर पूजा करने का विधान है। क्षुद्र भावनाओं को लेकर इतनी महान् कल्पना नहीं की जा सकती।
  • मण्डल के बीच में बीज स्थापित है— उसे शिव-शक्ति का कितना महत्त्वपूर्ण संयोग बनाया गया है, यह कितना महान् प्रतीक है, यह बात केवल समझदार लोग ही समझ सकते हैं।
  • इसी में सूर्यमण्डल का भी आवाहन होता है । सूर्य का प्रतीक मिस्र से लेकर सभो पूर्वी देशों में बहुत अधिकता से पाया जाता है।
  • पश्चिमी मनोवैज्ञानिक फायड ने सूर्य को उत्पादन-शक्ति का प्रतीक, स्त्री का प्रतीक माना है। सूर्य के प्रतीक पर हम आगे चलकर विचार करेंगे

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