क्या आप सुख-सपन्नता चाहते हो?

सुखी रहने के सूत्र हैं-
संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो हमें सदा सुखी               रख सके।  जब शरीर ही हमें सुख नही देता है, तो अन्य वस्तुओं से, विषयों और भोगों से सुख कैसे पा सकते है। जब हम पूर्णतः स्वास्थ्य नहीं रह सकते तो सुख कैसा?
हमें इंद्रिय भोगों के संस्पर्श से, संबंध से जो भी सुख का आभास होता है ये सब दुख की योनियां है। क्योंकि ये सब दुख देकर ही जाते हैं। हम सभी केवल सुख का स्वरूप बनाते है।
अपने चेहरे पर हर कोई सुख का मुखौटा लगाकर घूम रहा है, लेकिन अंदर से हर कोई किसी न किसी रूप में दुखी अवश्य है।
शिव की लीला का न पाया कोई पार
भगवान शिव की इस सृष्टि में स्थायी कुछ है ही नहीं,
[[[  न धन स्थायी हैं,
]]]  न तन स्थायी है और
[[[  न ही मन स्थायी है।
]]]  दुख-सुख भी स्थायी नहीं है।
[[[  शिव के अलावा संपूर्ण ब्रम्हाडों के देवी-देवता
भी स्थायी नहीं है।
]]]  सिध्दि-समृध्दि भी अस्थायी है।
[[[  जब सभी प्रकार के द्वंद, अंतर्कलह समाप्त हो जाते है,
तभी हम जीवन में स्थायी हो पाते है।
समस्त प्रकार से समृध्द सिध्दिकारक होने का  एकमात्र उपाय है शिव की साधना। यदि हमारे साथ शिव है तो संसार का सारा ऐश्वर्य सदा साथ है, सब कुछ है….लेकिन
जो मानव मस्तिष्क शिव रहित है वह शव समान है। 
जिसका भी मस्तिष्क रूपी शिवलिंग ऊर्जावान है-
 उसे दुनिया में सब हरा भरा दिखता है और जिसका मन मस्तिष्क खंडित है उसकी कोई कीमत नहीं।
शिव नाम का अमृत पाये बिना, तू मुक्ति कैसे पायेगा,
हम जन्म लेते है, पलते है, खेलते है, भोग में लिप्त होकर अन्त में चल बसते है। सृष्टि का सबसे बड़ा भोग अंतरिम असीम आनंद हैं। योगी सबसे बड़े भोगी कहे जाते है जो सदा शिव नाम का अमृत रस ग्रहण करते रहते है। स्वयं स्थिर होकर सभी को स्थिरता हेतू प्रेरित करते है।
तुम हजारों साल
माना हम सौ वर्ष जीते है, जिसमें 50 वर्ष सोने में, 25 वर्ष दुख,  क्लेश आदि में और 10 वर्ष खेलकूद में बीत जाते है। बचते है मात्र 15 वर्ष इनमें भी हम सदा प्रसन्न नहीं रह सकते हैं, तो आप कहां सुखी हैं।
सन्सार की जितनी भी भोग्य वस्तुएं हैं, ये सब दुख कारक ही है। यदि आप इनकों ये समझकर अपनाओं कि….. इनसे तो सदा दुख होना ही है, तब आपको दुख नहीं होगा। यदि परिणाम को कर्म के साथ पहले ही देख लेंगे, तो दुख होगा ही नहीं।
जैसे …हम प्रवास के दौरान बड़े-बड़े हॉटलों में रूकते है। हमारा पूर्व में निश्चय रहता है कि प्रातः हमको यहां से जाना हैं, तो जाते समय होटल छोड़ने का बिलकुल दुख नहीं होता है।
तभी तो मनस्वी कहते हैं-कि
 यह तो नश्वर संसारा, भजन तू करले शिव का प्यारा।

बनारस का गुरू शिवालय
पावनपुरी कांशी में संकटाघाट पर विराजमान वृहस्पीश्वर शिवालय की प्राण-प्रतिष्ठा देवताओं के गुरू वृहस्पति जी ने स्वयं कर यहां भगवान शिव का 10 हजार वर्ष तक तप किया था, तब जगदीश्वर महादेव इस वृहस्पति शिवलिंग से प्रकट होकर गुरू वृहस्पति को अनेक वरदान दिए तथा सृष्टि के समस्त देवी-देवताओं के गुरू की उपाधि से विभूषित किया।

गुरु मेरा पारब्रह्म
गुरू वृहस्पति परम
शिव उपासक तपोनिष्ठ थे। ब्रह्मा के मानस पुत्र अंडि.गरा के अंडि.गरस नामक पुत्र थे। वृहस्पति (अंडि.गरस) बचपन से ही परम शिवोपासक, शास्त्र तत्व को जानने वाले, वेदों में पारंगत, बड़े रूपमान, बुध्दिमान, गुणवान एवं शिव संपन्न थे।
महादेव से मिला वरदान
महातपोनिष्ठ, महाज्ञानी गुरू की एकाग्र कठोंर शिवभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें अनेकों वरदान दिए। वृहस्पति के वृहद (बहुत बड़ी) भक्ति के कारण ये वृहस्पति के नाम से जगत में विख्यात हुए। इंद्रादि देवों के पति यानि सदगुरू तथा नौ ग्रहों में प्रथम पूज्य है। विश्व के सर्वश्रेष्ठ वक्ता और विद्वान होने के कारण इन्हें वाचस्पति भी कहा जाता है।
क्या कहती है-जन्मपत्रिका
जन्म पत्रिका में गुरूदोष, महादशा-अंतर्दशा से
पीड़ित जनों को कांशी के वृहस्पतीश्वर महादेव पर
केशर युक्त जल-दूध से गुरूवार को रूद्राभिषेक कराने से चमत्कारी लाभ होता है।
गुरू की शांति एवं गुरू कृपा हेतु प्रत्येक गुरूवार किसी शिवालय में चौबीस दीपक
राहुकी तेल के पान के पत्ते पर रखकर जलाना चाहिए।
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