काशी के खोए हुए दुर्लभ स्वयंभू शिवालय..

स्वयम्भू-व्याघेश्वर के दक्षिण में स्वयंभू शिवलिंग है तथा वहीं उसके पूर्व ज्येष्ठ स्थान में  एक शिवलिंग ओर का था। उसके पश्चिम में पंचचूड़ा द्वारा स्थापित एक शिवलिंग, दक्षिण में प्रहसितेश्वर थे और उत्तर में वासेश्वर। वहीं चतुःसमुद्र नामक एक कूप है।
 दण्डीश्वर शिवलिंग– चतुःसमुद्र कूप के उत्तर में तथा व्याघ्रश के दक्षिण में। उसके उत्तर में दण्डखात नामक एक तालाब है जिसमें स्नान करने से पितृगण तर जाते हैं।
जैगीषव्येश्वर शिवलिंग इसे जागेश्वर भी कहते हैं। मन्दिर और गुफा यहीं है। यहां हथियाराम मठ के परमहंस बाबा ने तप किया, तो तिरुपति बालाजी ने उन्हें दर्शन देकर साथ ले चलने को कहा और बाद में तिरुमाला पर्वत पर आज भी हथियाराम बाबा के नाम से एक मठ स्थापित है, जो मन्दिर से सटा हुआ है।
हथियाराम मठ बहुत ही बड़ी सिद्धपीठ है। वर्तमान में इस मठ के अधिपति पूज्यपाद संतप्रवर हठयोगी श्री श्री भवानी नंदन यतीजी महाराज हैं।
जागेश्वर के पश्चिम में सिद्धकूप, पूर्व में देवल और शतकाल द्वारा प्रतिष्ठित लिंग तथा पश्चिम में शाता पापेश्वर स्थित है।
हेतुकेश्वर शिवलिंग-शातातपेश्वर के पश्चिम में। उसके दक्षिण भाग में कणाद द्वारा स्थापित कणादेश्वर नामक पश्चिमाभिमुख लिंग तथा एक कूप था। कणादेश्वर के दक्षिण में भूतीश का पश्चिमाभिमुख लिंग था। उसके पश्चिम में आषाढ़ नामक पश्चान्मुख चतुर्मुख शिवलिंग है। यहां और भी बहुत से शिवलिंग थे। उसके पूर्व में दैत्येश्वर थे जिनके दर्शन से पुत्रलाभ होता था। उसके दक्षिण में भारभूतेश्वर है।
पाराशरेश्वर–व्यासेश्वर के पूर्व में। उसके सामने महर्षि अत्रि द्वारा स्थापित एक शिवलिंग था। शंखलिखित-व्यासेश्वर के पूर्व में शंख और लिखित द्वारा स्थापित दो शिव मंदिर भी दर्शनीय हैं।
विश्वेश्वर शिवलिंग-इनके दर्शन तथा पाशुपत व्रत से फल मिलता था। उस मन्दिर के पूर्वोत्तर में अवधूत अघोरी तीर्थ था।
असली विश्वेश्वर मूल काशी विश्वनाथ यही हैं । इस मंदिर को ध्वस्त करके रजिया मस्जिद बनी, उसी के बगल में यादगार रूप में महाराज जयसिंह ने वर्तमान मंदिर बनवा दिया। आज भी यह आदिविश्वेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है और स्पर्श दोष से मुक्त है।
वेश्याओं की महादेव से विनती…वर्ष में एक दिन नगर की वेश्याएँ यहाँ रातभर नाचती-गाती हैं।
पशुपतीश्वर-अवधूत तीर्थ से लगा हुआ पूर्व में पश्चिमाभिमुख चतुर्मुख शिवलिंग। उसके दक्षिण भूभाग में गोभिल ऋषि द्वारा स्थापित पंचमुख शिवलिंग था तथा पश्चिम में विद्याधरपति जीमूतवाहन द्वारा स्थापित शिवलिंग।
गभस्तीश्वर-सूर्य द्वारा स्थापित पश्चान्मुख शिवलिंग। उसके दक्षिण में दधिकर्णह्रद तथा उत्तर में एक कूप जिस पर दधिकर्णेश्वर का मन्दिर है।
ललिता-गभस्तीश्वर शिवलिंग के दक्षिण-वरुण कोण में उत्तराभिमुखी देवी हैं जिन्हें अब मंगलागौरी कहते हैं। यहाँ लोग जागरण करते थे, घर बनवाते थे, मूर्ति के आगे दीपदान करते थे, झाडू लगाते थे।
 पशुओं को भरपेट भोजन करते थे। वहीं मुखप्रेक्षणिका की मूर्ति थी जिसकी माघ मास की चतुर्थी को उपवास रखकर पूजा होती थी।
वृत्तेश्वर–मुखप्रेक्षा के उत्तर में। यहाँ त्रिरात्रि का फल था।
चर्चिका-ललिता के उत्तर में। उसके आगे रेवन्त द्वारा स्थापित पूर्वाभिमुख शिवलिंग है। उसके आगे पश्चान्मुख पंचनदीश्वर महादेव हैं। ललिता से लगा पूर्व में एक कूप है और उसके दक्षिण में पंचनद तीर्थ। यहाँ पर उपमन्यु द्वारा स्थापित अनेक मुखोंवाला शिवलिंग है। उसी के पास पश्चिम में व्याघ्रपाद द्वारा प्रतिष्ठित शिवलिंग है। विश्वकर्म और दूसरे अनाम शिवलिंग-गभस्तीश्वर के आगे।
शशांकेश्वर–गभस्तीश्वर के नैऋत्य कोण में। वहीं पर गन्धर्व चित्रेश्वर द्वारा स्थापित महाभारत पांडव-कौरव के पूर्वज के  चित्रेश्वर शिवलिंग हैं।
 जैमिनीश-चित्रेश्वर के पश्चिम में महर्षि जैमिनि द्वारा स्थापित। उसके आगे सामन्त, राजा आदि तथा और ऋषियों द्वारा स्थापित शिवलिंग थे। उनके दक्षिण कोने में बुधेश्वर का पश्चान्मुख शिवलिंग था। बुधेश्वर के वायव्य कोण में पास ही में रावणेश्वर शिवलिंग है, जहां रावण ने शिवतांडव स्त्रोत की रचना की थी।उसके पूर्व में एक चतुर्मुख शिवलिंग था।
वराहेश्वर-रावणेश के दक्षिण में पूर्वाभिमुख शिवलिंग। उसके दक्षिण में भी एक पूर्वाभिमुख शिवलिंग था। उसके दक्षिण में दक्षिणाभिमुख गालवेश्वर का शिवलिंग है। उसी के पास आयोगसिद्धि लिंग है।
वातेश्वर-आयोगसिद्धि के दक्षिण में। उसीके आगे सोमेश्वर का पश्चान्मुख शिवलिंग था। उसी के नैऋत भाग में अंगारेश्वर का पूर्वमुख शिवलिग था। उसके पूर्व में कुक्कुटेश्वर तथा उसके उत्तर में पाण्डवों द्वारा स्थापित पाँच शिवलिग थे। उन्ही के बीच में संवतेश्वर शिवलिंग स्थापित है।

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