आयुर्वेद के ये रहस्य दिमाग घुमा देंगे। जाने 200 से भी ज्यादा रोचक रहस्य की बातें

समय और प्रलय शिव की महानता 

  • महासागर के मंथन से अमृत निकला और उससे जड़ी बूटियां उत्पन्न हुई। संस्कृत के श्लोकों को पढ़कर लगता है कि आयुर्वेद महज ५००० साल पुरानी चिकित्सा पद्धति नहीं है अपितु अरबों वर्ष प्राचीन है। विश्व इस सच्चाई को माने या न माने।

भगवान शिव का वरदान है आयुर्वेद

कज्जल (Carbon ), उद्जन ( Hydrogen), ओषजन अर्थात (Oxygen) आयुर्वेद के मुख्य घटक हैं। भारत के जनता को ऑक्सीजन का संकेत नाम नहीं मालूम।

अंबुयोन्यग्निपवननभसां, समवायतः तन्निव त्तिः”
  • अर्थात — जल पवन अग्नि व आकाश तत्त्व के संयोग होने पर द्रव्यों की होती हैं। जल प्राप्ति का मार्ग पृथ्वी का आश्रय है। इस तरह पंचभूत द्वारा आयुर्वेद की उत्पत्ति हुई है।

आयुर्वेद की उत्पत्ति

  • आयुर्वेद का महादेव ने सर्वप्रथम ज्ञान अपने प्रिय गण नन्दी को दिया। फिर, नन्दी ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने दक्ष प्रजापति को, राजा दक्ष ने अश्वनी कुमारों को इसकी शिक्षा दी। अश्वनी कुमार इन्द्र के दरबार के देवता थे। इन्द्र ने जब इस विद्या की चमत्कारिक उपलब्धियाँ देखी, तो उन्होंने अश्वनी कुमार से इसे सीखा और उन्होंने इसका ज्ञान महर्षि आत्रेय को दिया।
  • महर्षि आत्रेय ने इस विद्या को अग्निवेश, भेड़, जातकर्म, पराशर, क्षीरपाणि, हारित आदि ने उनसे इसका ज्ञान प्राप्त किया। बाद में महर्षि चरक ने इस विद्या पर एक विशाल ग्रंथ चरक संहिता की रचना की। चरक से सुश्रुत, वागभट, बंगसेन, भावमिश्र, शर्ंगधर आदि आयुर्वेदाचार्य हुए।
  • आयुर्वेद परंपरा भगवान शिव की देन है। आयुर्वेद की हस्तलिखित प्राचीन पांडुलिपियों से ज्ञात होता है कि सृष्टि रचना काल से ही आयुर्वेद प्रकट हुआ।
  • आयुर्वेद के 155 रहस्य क्या हैं? इतना गहन ज्ञान पहली बार पढ़ें। इस लेख में जाने कि हनुमानजी को मारुति क्यों कहा जाता है और स्वास्थ्य से इनका क्या नाता है?

बीमारियों, परेशानी से बचने का सरल तरीका

  • बिना समान किए अन्न, रोटी, पराठें, नाश्ता आदि न लेवें। केवल चाय, दूध ले सकते हैं। दूसरी बात ये है कि बार-बार खाने से सूर्यग्रह दूषित होता है और बीमारियां बढ़ती हैं। भाग्य साथ नहीं देता। (आयुर्वेदिक हितोपदेश)
  • आयुर्वेद के 128 पारिभाषिक शब्द क्या है? ऐसी लाजवाब बातें कभी सुनी या पढ़ी नहीं होंगी।

आयुर्वेद मुताबिक बाजीकरण क्या होता है?

  • वाजीकरण-के विषय पर दुनिया के पुरुषों को बहुत गहराई से जानने की तमन्ना रहती है। जिस पदार्थ के प्रयोग से स्त्री के साथ रमण, सम्भोग या सेक्स करने का उत्साह हो, मैथून- शक्ति बढ़े, वह द्रव्य ‘बाजीकरण’ कहलाता है।

बाजीकरण ओषधियां

  • जैसे, असगन्ध, मूसली, चीनी, शतावर, दूध, मिश्री इत्यादि। वाजीकरण दो तरह का होता है- प्रथम. वीर्य को रोकने वाला। दूसरा वीर्य को बढ़ाने वाला दूध, मिश्री, शतावर आदि से वीर्य की वृद्धि होती है और अफीम, भाँग, जायफल आदि वीर्य को स्खलित होने में रुकावट डालते हैं।
  • आयुर्वेद के अनुसार मानव देह को ठीक रखने में वात, पित्त कफ का संतुलन जरूरी हैं। ये सभी ५ -५ प्रकार के होते हैं। मनुष्य या प्राणी का स्वास्थ्य अथवा जीवन कफ, पित्त एवं वात (वायु) नामक ये 3 तत्व पर निर्भर करता है।
  • वात पित्त कफ का असंतुलन ही रोग उत्पन्न करता है। प्रत्येक प्राणी कफ, पित्त या वायु में से किसी एक को विशेष रूप से धारण किये होता है। इस प्रकार कफज, पित्तज या वातज-तीन प्रकार के प्राणी विश्व में पाये जाते हैं। विस्तार से आगे पढ़ें।
  • आयुर्वेद=आयुः+वेद, शाब्दिक अर्थ: ‘आयु का वेद‘ या ‘दीर्घायु का विज्ञान एक मुख्य और सबसे श्रेष्ठ चिकित्सा प्रणाली है जिसकी जड़ें भारतीय उपमहाद्वीप में हैं।
  • आयुर्वेद विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक भारतीय आयुर्विज्ञान है। यह विज्ञान की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।

हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।

मानं च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥ चरक संहिता १/४०

  • अर्थात आयुर्वेद के ग्रन्थ तीन शारीरिक दोषों (त्रिदोष = वात, पित्त, कफ) के असंतुलन को रोग का कारण मानते हैं और समदोष की स्थिति को आरोग्य। जिस ग्रन्थ से आयु का हिताहित और प्रमाण ज्ञात हो उसे ‘आयुर्वेद’ कहते हैं।

आयुर्वेद का आधार

  • प्राचीन ऋषियों ने चिकित्सा कार्य में वनस्पतियों का ही प्रयोग सर्वाधिक किया है।आयुर्वेद में प्रत्येक खनिज या रासायनिक पदार्थों जैसे पारद, कुचला, शिलाजीत आदि का शोधन किया जाता है, ताकि उसकी अशुद्धि समाप्त हो जाये, किन्तु वनस्पतियों का कोई शोधन नहीं होता

आयुर्वेद में योग

  • योग का अर्थ आध्यात्मिक योग, प्राणायाम नहीं है, अपितु यह जड़ी बूटियों, रस भस्म आदि दवाओं का मिश्रण ही योग है, जो amrutam द्वारा किसी विशिष्ट रोग के लिये विशिष्ट तरीके से निर्मित किये जाते हैं।
  • आयुर्वेद योगों से निर्मित औषधियों की चमत्कारिकता और इनके निर्माण की विधियाँ यह स्पष्ट कर देती है कि इतना विकसित ज्ञान लाखों वर्षों या सतयुग से लम्बे समय तक विद्वानों की लम्बी श्रृंखला के परिश्रम से ही प्राप्त हो सकता है।

कलियुग में स्वास्थ्य के देवता

  • भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद के देवता हैं। वे विष्णु के अवतार माने जाते हैं। दीपावली की धनतेरस को इन्हीं का स्मरण कर दीपदान क्रनेवकी परंपरा प्राचीन है। मान्यता है कि इनका ध्यान करने मात्र से ही दवा तुरंत असर दिखाती है।

आयुर्वेद के महत्वपूर्ण आठ अंग

  • आयुर्वेद को त्रिस्कन्ध (तीन कन्धों वाला) अथवा त्रिसूत्र भी कहा जाता है, ये तीन स्कन्ध अथवा त्रिसूत्र हैं – हेतु , लिंग , औषध। इसी प्रकार सम्पूर्ण आयुर्वेदीय चिकित्सा के आठ अंग माने गए हैं।
  • आधुनिक युग में आयुर्वेद का विशेष महत्व है। शरीर के हर अंग की बारीकी से जानकारी केवल आयुर्वेद के करोड़ों साल पुराने हस्तलिखित उपनिषदों, ग्रन्थों में पढ़ने को मिलती है।
  • आयुर्वेद एक जीवन शैली है, जो रोगों को दूर नहीं करता अपितु शरीर की सम्पूर्ण क्रियाप्रणाली को सुचारु कर रोग विकारों पुनः पनपने नहीं देता।
  • द्रव्यगुण विज्ञान के अनुसार आयुर्वेद में सेवन करने यानि अनुपान विधि अनुचित है, तो अमृत ओषध भी विष बन जाती है।
  • जैसे अंजीर बिना दूध में उबले खाने से यकृत को कमजोर करता है। इसी तरह मुनक्का दूध या पानी में उबालकर ही लेना श्रेष्ठ रहता है अन्यथा यह अर्श उत्पन्न कर सकता है।

आयुर्वेद की 200 कार्य क्रिया प्रणाली

  • इस लेख के माध्यम से आयुर्वेद की १५५ से अधिक जानकारी दी जा रही हैं। जिसे पढ़कर अपनी देह के बारे में भी समझ सकेंगे।
  1. आयुर्वेद एक रहस्यमय विज्ञान है। इसमें शरीर के एक एक अंग के बारे में अत्यंत गहराई से समझाया गया है। जैसे त्वचा ७ होती हैं अवभासिनी, लोहिता, श्वेता, ताम्रा, वेदिनी, रोहिणी और सातवी स्थूला है।
  2. तीन दोष, ६०० बड़ी और ३०० छोटी स्नायु होती हैं। २१० संधि होती हैं, जहां तन के जोड़ मिलते हैं।
  3. कपाल, रोचक, बलय, तरुण और नलक ये ३०० अस्थियां यानि हड्डियां होती हैं।
  4. १०८ मर्म, जो शिरा, स्नायु, संधि, मांस, एवम हड्डी ये पांचों एकत्रित होकर एक जगह मिलते हैं उसी स्थान को मर्म स्थान कहते हैं। मर्म 5 तरह की होती हैं!
  5. दोनो पैरों में २२, दोनो हाथों में २२, छाती व कोख में१२, पीठ में १४, गर्दन और ऊपर के हिस्से में ३८। इनमें से 19 मर्म तत्काल प्राण हरते हैं। 33 कालांतर में, 44 विकलता देते हैं था 9 पीड़ादायक, 3 विशल्यनाशक होते हैं।
  6. प्राणनाशक यानि जान लेने वाले मर्म श्रृंगाटक, अधिपति, शंख, कण्ठशिरा, गुदा, हृदय, वस्ति और नाभि यदि इनमें चोट लग जाये तो तत्काल मृत्यु हो जाती है।
  7. a श्रृंगाटक मर्म – नाक, कान, आँख और जीभ – इन चारों इन्द्रिय को तृप्त करनेवाली शिराओं-नसों का जो मस्तक में जुड़ा या मेल हुआ है, इनको श्रृंगाटक कहते हैं। इनमें चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती है।
  8. b अधिपति मर्म मस्तक के भीतर, जहाँ नसों की सन्धि होती है, उसके ऊपर रोगों का आर्त्तव है। यह भी एक मारक मर्म होता है।
  9. c शंख मर्म कनपटियों में दो अस्थि मर्म होते हैं, जिन्हें शंख कहा जाता है। ये भी मारक होते हैं।
  10. d कण्ठशिरा मर्म – गर्दन के ऊपर दोनों तरफ चार-चार नसें होती हैं। ये आठों नसें मर्मस्थान हैं। इनमें भी चोट लगने से मृत्यु हो जाती है। वायु और विष्ठा का त्यागने वाली स्थूल आँतों से गुदा गुदा बँधी हुई होती है, जो माँस मर्म है। इनमें भी चोट लगने से मृत्यु हो जाती है।
  11. हृदय मर्म – दोनों स्तनों के मध्य में छाती होता है; जो सत्व, रज और तम का अधिष्ठान है। वहीं हृदय नामक शिरा मर्म होता है, जहाँ पर चोट लगने से भी मृत्यु हो जाती है।
  12. वस्ति मर्म – पेट, कमर, गुदा, पेडू और लिंग – इनके बीच में वस्ति होती है। यह मूत्र की थैली है। इसका चमड़ा पतला होता है और उसमें दरवाजा होता है, जिसका मुँह नीचे की ओर होता है। वस्ति शिरा मर्म स्थान है। यहाँ भी चोट लगने पर मृत्यु हो जाती है।
  13. नाभि मर्म – इससे सभी परिचित हैं। यह चार अंगुल का शिरामर्म है। यह आमाशय और पक्काशय के मध्य में होता है। इसमें भी चोट लगने से तत्काल मृत्यु हो जाती है।
  14. प्राणघातक मर्म वक्षस्थल के मर्म, सीमन्त, तल, क्षिप्र, इन्द्रवस्ति, वृहती, पसलियों की सन्धि, कटीकतरुण और नितम्ब – इन स्थानों के मर्म भविष्य में प्राण हरण करते हैं।
  15. वक्षस्थल के मर्मों में स्तनों के ऊपर नीचे के चार मर्म, कन्धे की हड्डी के नीचे और पसलियों के ऊपर के दो मर्म, छाती की दोनों ओर के दो मर्म शामिल हैं। इनमें से कोई कफ से, कोई रुधिर से और कोई वायु से भरे हुए होते हैं। इस कारण ये भविष्य में मौत के कारण बनते हैं।
  16. सीमन्त– सिर के सन्धि- मर्म को कहते हैं। ये उन्माद, भय, मूर्च्छा आदि उत्पन्न करके मारते हैं।
  17. तल– हाथ के मध्य की उँगली, हथेलियों और पाँवों के तलवों को मर्म को कहते हैं। ये जल-मर्म कहलाते हैं। इनमें पीड़ा होने से भविष्य में मृत्यु होती है।
  18. क्षिप्र– अँगूठा और उँगलियों के मर्म हैं। ये आशेषिक नाम का वायु रोग पैदा करके भविष्य में मारते हैं। –
  19. इन्द्रवस्ति– दोनों बाजू और दोनों जाँघों में चार माँस मर्म हैं। ये रुधिरक्षय होने से भविष्य में मारते हैं।
  20. बृहती – स्तनों की जड़ के दोनों ओर से लेकर पीठ के बाँसों पर्यन्त शिरामर्म हैं। रुधिर के बहुत निकलने से ये भविष्य में मारते हैं। पार्श्व-सन्धि- जाँघों की दोनों पसलियाँ की सन्धि में शिरा-मर्म है। ये भविष्य में प्राणहरण करते हैं।
  21. कटीकतरुण– चिक या रीढ़ के पास की तीन हड्डियों के पास अस्थि मर्म है। ये रुधिर के क्षय से पीलिया प्रभृति करके कालान्तर में प्राणनाश करते हैं।
  22. नितम्ब – दोनों चूतड़; ये दोनों प्रसिद्ध अस्थि-मर्म हैं। शरीर के नीचे का भाग सूखने से तथा दुर्बलता होने से भविष्य में प्राणनाश करते हैं।
  23. भयानक हानि करने वाले अथवा तत्काल या भविष्य में प्राण – नाश करने वाले मर्मों का हमने वर्णन कर दिया; शेष मर्म इतने भयानक नहीं होते।
  24. चौबीस धमनियाँ धमनी नाम की 24 नाड़ियाँ हैं। ये नाभि- स्थान से प्रकट होकर, दस नीचे को ओर गई हैं; जो वात, मूत्र, मल, शुक्र, आर्तव आदि और अन्न, जल, रस इनको बहाती है।
  25. दस धमनियां ऊपर की ओर गयी है जो शब्द, रूप, रस-गन्ध, श्वासोच्छवास, जँभाई, भूख, हँसना, बोलना, रोना को बहा कर देह को धारण करती है। इनके सिवा तिरछी जाने वाली चार धमनियाँ और हैं। उन चारों से अनगिनत धमनियाँ पैदा हुई हैं। उनसे यह शरीर जाल की तरह ढका हुआ होता है। उनके मुँह रोमकूपों या शरीर के अनन्त छेदों से बँधे हुए हैं। उबटन, स्नान, तेल आदि करने से वीर्य उन्हीं के द्वारा भीतर पहुँचता है। यही 24 रसवाहिनी नाड़ी कहलाती है।
  26. शरीर में होती हैं पाँच सौ माँसपेशियाँ माँसपेशियों से देह में बल होता है और उन्हीं के बल से शरीर सीधा खड़ा रहता है।
  27. आयु का अर्थ– शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग को आयु’ कहते हैं।
  28. द्रव्य क्या है?- पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), पवन, आकाश, आत्मा, मन, काल और दिशाओं के समूह को ‘द्रव्य’ कहते हैं।
  29. चेतन– इन्द्रिय – विशिष्ट द्रव्य को ‘चेतन‘ कहते हैं। जैसे, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि।
  30. अचेतन का मतलब – इन्द्रिय – रहित द्रव्य को ‘अचेतन’ कहते हैं। जैसे, वृक्षादि।
  31. स्थावर– इन्द्रियहीन जीवों को, जो चेतना-रहित है, ‘स्थावर’ कहते हैं।
  32. जंग– इन्द्रिय वाले चैतन्य जीवों को ‘जंग’ कहते हैं।
  33. अर्थ– रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द को ‘अर्थ’ या ‘विषय’ कहते हैं।
  34. शारीरिक दोष… वात, पित्त और कफ को शारीरिक दोष कहते हैं।
  35. मानसिक दोष- रज और तम को मन का दोष कहते हैं।
  36. शारीरिक वायु– तीन दोषों में एक दोष है। यह रूखी, हल्की, शीतल, सूक्ष्म, चंचल, पिच्छिलता-रहित और परुष है। इसके विपरीत गुणवाले द्रव्यों से इसकी शान्ति होती है।
  37. रस– रस छह हैं- मीठा, खट्टा, नमकीन, चरपरा, कड़वा और कसैला।
  38. वातनाशक रस– जिस रस से वादी शान्त हो, उसे वातनाशक रस कहते हैं। मीठा, खट्टा और नमकीन- ये तीनों रस वातनाशक हैं।
  39. पित्तनाशक रस मीठा, कसैला, और कड़वा- ये तीनों रस पित्त को शान्त करते हैं।
  40. कफनाशक रस– कड़वा, कसैला और चरपरा- ये तीनों रस कफ को शान्त करते हैं।
  41. पित्तक्या है? तीन दोषों में से एक दोष है। यह कम चिकनाई लिये, गर्म, तीक्ष्ण, पतला, खट्टा, दस्तावर और चरपरा होता है।
  42. रूखे, शीतल प्रभृति विपरीत गुण वाले द्रव्यों से पित्त दोष की शान्ति होती है। पित्त 5 प्रकार के होते हैं।
  43. a पाचक पित्त– यह पित्त भक्ष्य, भोज्य, लेहाय, और चोष्य चारों प्रकार के अन्नों को पचाता है। इसी से इसे ‘पाचक पित्त’ कहते हैं।
  44. b भ्राजक पित्त– यह पित्त चमड़े में रहता है और कान्ति उत्पन्न करता है। इसी से शरीर में किया हुआ चन्दन वगैरह का लेप, मालिश किया हुआ तेल और स्नान वगैरह का लेप आदि पचते हैं
  45. c रंजक पित्त– यह पित्त रंगने का काम करता है, इसीसे इसे ‘रंजक पित्त’ कहते हैं। यह यकृत और प्लीहा में रहकर खून बनाता है। इसका संतुलन KEYLIV Strong Syrup और Capsule से होता है।
  46. d साधक पित्त– मेधा और धारण शक्ति की वृद्धि कर दिमाग को तेज बनाकर याददाश्त बढ़ाता है। साधक पित्त के असंतुलन से ही तनाव, चिंता, डिप्रेशन, मानसिक रोग, क्लेश, भय, भ्रम आदि मस्तिष्क विकार उत्पन्न होते हैं। Brainnkey Gold Malt साधक पित्त को संतुलित करने के लिए बेहतरीन आयुर्वेदिक ओषधि है। तीन महीने सेवन करें
  47. e आलोचक पित्त– यह पित्त दोनों आँखों में रहता है, इसी से जीव को दिखाई देता है। आलोचक पित्त के दूषित होने से ही तिमिर, मोतियाबिंद नेत्र रोग होते हैं।आलोचक पित्त का संतुलन बनाने के लिए १०० फीसदी आयुर्वेदिक ओषधि EYEKEY Malt तीन से 6 माह तक दूध से लेवें।
  48. कफ दोष क्या है? – तीन दोषों में से एक दोष है। यह भारी, शीतल, मृदु, चिकना, मधुर, स्थिर और पिच्छिल होता है। हल्के गर्म प्रभृति विपरीत गुण वाले द्रव्यों से इसकी शान्ति होती है। कफ पांच तरह का होता है।
  49. (अ) क्लेदन कफ- यह कफ अन्न को गीला करता है। इसी के कारण इकट्ठा हुआ अन्न अलग-अलग हो जाता है। यह आमाशय में रहता है।
  50. (ब) अवलम्बन कफ- यह कफ हृदय में रहता है। यह अवलम्बन आदि कर्म द्वारा हृदय का पोषण करता है।
  51. (स) संश्लेषण कफ यह कफ सन्धियों में रहता है और उनको जोड़ता है। फ्रैक्चर होने बाद टूटी हुई अस्थियों को जोड़ने में संश्लेषण कफ की विशेष भूमिका रहती है।
  52. (द) रसन कफ– यह कफ कण्ठ में रहता है और रस को ग्रहण करता है। इसी से कड़वे और चरपरे रसों का ज्ञान होता है।
  53. (इ) स्नेहन कफ– यह कफ मस्तक में रहता है और इन्द्रियों को तृप्त करता है, इसी से इन्द्रियों में अपने-अपने काम की सामर्थ्य होती है। ये ज्यादा अंग्रेजी दवा खाने से सूखने लगता है और दिमाग में भारीपन, कमजोरी, तनाव, भूलना, डिप्रेशन जेसी समस्याएं होने लगती है। वात के बारे में अन्त में पढ़ें
  54. चार स्नेह क्या हैं? – घी, तेल, चर्बी और मज्जा ये चार स्नेह या चिकने पदार्थ होते हैं।
  55. पंच लवण– क्या होते हैं? संचर नमक, काला नमक, सैंधा नमक, बिड़ नमक और समन्दर नमक- ये पाँच तरह के नमक होते हैं। अजीर्ण, वायुगोला, शूल और उदर रोगों में ये हितकर हैं।
  56. आठ तरह के मूत्र – गाय का मूत्र, बकरी का मूत्र, भेड़ का मूत्र, भैंस का मूत्र, हथिनी का मूत्र, ऊँटनी का मूत्र, घोड़ी का मूत्र और गधी का मूत्र – ये आठ तरह के मूत्र होते हैं।
  57. नौ प्रकार के दूध– भेड़, बकरी, गाय, भैंस, ऊँटनी, घोड़ी, हथिनी, गधी और स्त्री का दूध- ये नौ दूध होते हैं।
  58. तेरह वेग– कोन से हैं? मूत्र, मल, शुक्र, अधोवायु, वमन, छींक, डकार, जँभाई, भूख, प्यास, निद्रा, आँसू और श्वाँस – ये १३ तरह के वेग के रोकने से बड़े-बड़े भयानक रोग होते हैं। .
  59. द्विदोषज– जो रोग वात, पित्त और कफ – इन तीन दोषों में से दोषों से युक्त हो उसे ‘दिदोषज’ कहते हैं।
  60. त्रिदोषज– जो रोग तीनों दोषों से युक्त हो, उसे ‘त्रिदोषज’ कहते
  61. देह स्थित चार अग्नियां– तीक्ष्ण, मन्द, सम और विषम- ये चार अग्नि होती हैं।
  62. मन्दाग्नि– की बीमारी क्या होती है? मनुष्य की कफ की प्रकृति होने से मन्दाग्नि होती है और उसे आहार ठीक ढंग से नहीं पचता।
  63. तीक्ष्णाग्नि– किसे कहते हैं? मनुष्य की पित्त प्रकृति होने से तीक्ष्ण अग्नि होती है और इस प्रकृति वाले को ज्यादा खाया- पिया भी आराम से पच जाता है।
  64. विषमाग्नि– क्या होती है? मनुष्य की वात प्रकृति होने से विषम अग्नि होती है। इस प्रकृति वाले को कभी तो अन्न पच जाता है और कभी नहीं पचता।
  65. समाग्नि– क्या है? जिसकी अग्नि सम होती है, उसका खाया- पिया अच्छी तहर से पच जाता है।
  66. अमृतम आयुर्वेद के तीन रोग– रोग तीन प्रकार के होते हैं। निज रोग, आगन्तुक रोग और मानसिक रोग।
  67. निज रोग शरीर की वायु, कफ और पित्त के कारण से जो रोग होते हैं, उन्हें ‘निज रोग‘ कहते हैं।
  68. विष, हवा और चोट वगैरह के लगने से जो रोग होते हैं, उन्हें ‘आगन्तुक रोग‘ कहते हैं।
  69. प्रिय चीज के न मिलने और अप्रिय चीज के मिलने से जो रोग होते हैं, उन्हें ‘मानसिक रोग‘ कहते हैं।
  70. रोगों के तीन स्थान – a रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि मज्जा, और शुक्र ये सात धातु और त्वचा (चमड़ा);
  71. b मर्म, अस्थि, सन्धि।
  72. c कोष्ठ, या कोठे। ये ही तीनों रोगों के स्थान होते हैं।
  73. गलगण्ड, अपची, अबुर्द, कुष्ठ प्रभृति रोग पहले प्रकार के होते हैं।
  74. पक्षाघात, अंगग्रह, अपतानक, लकवा (अर्दित), सूजन, यक्ष्मा, अस्थिशूल, सन्धिशूल तथा सिर में होने वाले, वस्ति में होने वाले और हृदय में होने वाले रोग।
  75. दूसरे प्रकार ये मर्म स्थानों, हड्डियों और शरीर के जोड़ों में अतिसार, वमन, हैजा, श्वाँस खाँसी, हिचकी, उदर रोग और तिल्ली प्रभृति रोग कोठों में होते हैं।
  76. वात पित्त और कफ को दोष कहते हैं। धातु और मल इन दोषों से दूषित होते हैं, इसलिए इन्हें ‘दोष’ कहते हैं। वात, पित्त और कफ दूषित होने से देह का नाश करते हैं और शुद्ध होने से शरीर को धारण करते हैं।
  77. सप्तधातु – रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि मज्जा और शुक्र – इन सातों को ‘धातु’ कहते हैं। यह मनुष्य के शरीर में स्वयं स्थित रह कर देह को धारण करते हैं, इसीलिए इन्हें ‘धातु’ कहते हैं।
  78. रस क्या है? – भले प्रकार से पचे हुए भोजन के सार को ‘रस’ कहते हैं।
  79. मर्म क्या है? शिरा, स्नायु, सन्धि, माँस और हड्डी ये सब इकट्ठे होकर मिलते हैं, तब मर्मस्थल कहलाते हैं। इन मर्मस्थलों में विशेषकर प्राण रहते हैं। देहधारियों के शरीर में कुल 108 मर्म होते हैं। 36. सन्धि- शरीर के जोड़ों को सन्धि या जोड़ कहते हैं। देह – धारियों के शरीर में 210 सन्धि या जोड़ होते हैं।
  80. शिरा-किसे कहते हैं? शरीर में ७०० शिराएं होती हैं। यह एक प्रकार की नसें हैं। ये शिराएँ नाभि में बँधी और चारों ओर फैली होती हैं। इन्हीं से सन्धियाँ बँधी रहती है और यही वातादि दोषों और रस – रक्त आदि धातुओं को बहाती हैं। इन्हीं शिराओं से शरीर सिकुड़ता और फैलता है। यह गिनती में सात सौ हैं।
  81. अघोरी साधु नाभी पर ध्यान केंद्रित कर इन्हीं शिराओं को शुद्ध पवित्र कर देह में रसायनिक परिवर्तन कर लेते हैं और फिर, अघोरियों को किसी भी वस्तु के खाने पीने से घृणा नहीं होती।
  82. आचार्य परिणी के अनुसार दूषित वायु, नकारात्मक विचार, तनाव, चिंता नाभी में ही एकत्रित होता रहता है, जिससे शरीर में त्रिदोष, मानसिक और शारीरिक रोग पनपने लगते हैं। इसका उपाय amrutam के अगले लेख में पढ़ें
  83. देह में ९०० स्नायु होते हैं – स्नायु भी एक प्रकार की मस्तिष्क की नसें हैं। यह स्नायु मंडल में रहती हैं। ये शिराओं की अपेक्षा ज्यादा मजबूत होती हैं। देह में माँस, हड्डी और सन्धियाँ इन्हीं से बँधी हुई होती हैं। मनुष्य के शरीर में नौ सौ स्नायु होते हैं।
  84. सोलह कण्डरा– बड़ी स्नायुओं को कण्डरा कहते हैं। ये गिनती में सोलह होते हैं। ये भी शरीर के सिकोड़ने और फैलाने में काम आती हैं।
  85. पुरुषों के देहरन्ध्र ९ होते हैं– रंध्र छेदों को कहते हैं। आँखों में दो, कानों में दो, नाक में दो, मुख में एकए लिंग में एक, गुदा में एक-इस तरह मर्द के शरीर में मुख्य नौ छेद होते हैं।
  86. दुर्गा सप्तशती में इन 9 छेदों को नवद्वार बताया है। महाशक्ति मां नवदुर्गा इन 9 छिद्रों की रक्षक है। नवरात्रि में इन्हीं ९निवासों की शुद्धि के लिए व्रत, उपवास रखे जाते हैं।
  87. स्त्री के 12 देहरन्ध्र स्त्रियों के तीन छेद ज्यादा होते हैं। स्तनों में दो और गर्भाशय में एक। इसलिए महिलाओं के अच्छे स्वास्थ्य हेतु १२ महीने के 12 सूर्य देव की उपासना का ग्रंथों में निर्देश है।
  88. कायिक रोग क्या होते हैं?– काया यानी शरीर से सम्बन्ध रखने वाले रोगों को ‘कायिक रोग’ कहते हैं। जैसे, पीलिया, जवर, अर्श, कब्ज आदि
  89. कर्मज व्याधि – श्रीमद्भागवत में प्रारब्ध के पापों के कारण उत्पन्न रोग कर्मज रोग बताए हैं। पूर्व जन्म के प्रबल दुष्ट कर्मों के कारण जो व्याधि होती है, वह अच्छी चिकित्सा पर भी आराम नहीं होती, उसे ‘कर्मज व्याधि’ कहते हैं।
  90. दोषज व्याधि – दूषित खानपान, बार बार खाना, मिथ्या आहार-विहार के कारण वात, पित्त और कफ के कुपित होने से जो रोग होते हैं, उन्हें ‘दोषज व्याधि’ कहते हैं।
  91. त्रिविधा रोग – साध्य, याप्य और असाध्य इन तीनों प्रकार के रोगों को ‘त्रिविधा’ रोग कहते हैं।
  92. आगन्तुक रोग – लकड़ी, पत्थर आदि के लगने से जो रोग होता है, उसे ‘आगन्तुक रोग’ कहते हैं।
  93. स्वाभाविक रोग– जो रोग अपने स्वभाव से होते हैं, उनको ‘स्वाभाविक रोग’ कहते हैं। भूख, प्यास, सोने की इच्छा, बुढ़ापा, मृत्यु, जन्म से अन्धापन आदि स्वाभाविक रोग हैं।
  94. मानसिक रोग– जो रोग मन से होते हैं, उन्हें ‘मानसिक रोग’ कहते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ, भय, मूर्च्छा, भ्रम, अन्धकार और सन्यास जैसे रोग ‘मानसिक रोग’ होते हैं।
  95. अरिष्ट रोग... जिन लक्षणों के प्रकट होने से रोगी की मृत्यु निश्चित हो, उन लक्षणों को ‘अरिष्ट’ या ‘रिष्ट’ कहते हैं।
  96. एकादश इन्द्रिय कान, आँख, जीभ, नाक और त्वचा- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और मुँह, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा- ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।
  97. ग्यारहवाँ ‘मन‘ इनका संचालक है। इन ग्यारहों को ‘एकादश इन्द्रिय’ कहते हैं। इन ११ इंद्रियों की रक्षा रुद्र करते हैं। इसलिए शिवलिंग पर रुद्राभिषेक का महत्व है।
  98. त्रिविध अहंकार- राजस, तामस और सात्विक तीन तरह के अहंकार होते हैं। सांख्य शास्त्र वाले कहते हैं कि इन्द्रियाँ तीन तरह के अहंकारों से उत्पन्न हुई है; किन्तु वैद्यकशास्त्र में इन्हें भौतिक कहते हैं।
  99. पंचतन्मात्रा– शब्दतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा और गन्धतन्मात्रा ये पाँच तन्मात्रायें होती हैं। –
  100. भूतपंचक– आकाश, पवन, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पंच महाभूत हैं।
  101. स्वरस क्या होते हैं?– ताजा रसदार द्रव्य या ओषधि लाकर, उसे तत्काल कूटने और कपड़े में रखकर निचोड़ने से जो रस निकलता है, उसे स्वरस कहते हैं।
  102. विशेष: अगर ताजा रसदार द्रव्य न मिले तो सूखा हुआ आध सेर द्रव्य चूर्ण करके, एक सेर जल में एक दिन-रात भिगोकर छान लें। उस रस को भी ‘स्वरस’ की जगह में लेते हैं, अथवा सूखे द्रव्य को अठगुने जल में पकायें। जब चौथाई पानी रह जाय, तब उतार कर ‘स्वरस’ के स्थान पर प्रयुक्त करें।
  103. कल्क– का अर्थ क्या है? सूखे या जल युक्त ताजा द्रव्य को सिल पर पीसकर लुगदी सी बना लेते हैं, उसी को ‘कल्क’ कहते हैं। आवाप और प्रक्षेप कल्क के पर्याय शब्द हैं।
  104. आयुर्वेदिक चूर्ण– सूखे हुये द्रव्य, जड़ी बूटियों को छाया में सुखाकर, साफ और कूट-पीस कर कपड़े में छान लिया जाय, तो उसे ‘चूर्ण’ कहते हैं।
  105. श्रृत– कूटे हुए द्रव्य को जल मिलाकर आग पर पकाते हैं, फिर मसलकर कपड़े में छानने से जो रस निकलता है, उसको ‘श्रुत’ कहते हैं। काढ़ा, क्वाथ, कषाय और निर्यूह इसके पर्याय हैं।
  106. शीत– आठ तोले द्रव्य को कूटकर बयालीस तोले जल में एक रात भिगो रखें, उसको ‘शीत’ कहते हैं।
  107. तण्डुलोदक – आठ तोले सूखे हुए चावल अच्छी तरह से कूटकर चौगुने जल में एक दिन या एक रात भिगो रखें, फिर छान लें। इस जल को ‘तण्डुलोदक’ कहते हैं।
  108. अक्षत धोवन चार तोले साफ चावलों को अठगुने पानी यानी बत्तीस तोले जल में डालकर हाथ से मसलें। यह ‘चावलों का धोवन, सभी काम में लायें।
  109. फाँट- क्या होता है? आठ तोले द्रव्य को अच्छी तरह से कूटकर मिट्टी के बर्तन में, चौगुने जल के साथ खूब गर्म करके छान लें। इसको आयुर्वेदिक ‘फाँट’ एवं ‘चूर्ण द्रव्य’ कहते हैं।
  110. उष्णोदक – जल को मिट्टी के बर्तन में औटायें, जब औटते-औटते अष्टमांश (सेर का आधा पाव), चतुर्थांश (सेर का एक पाव) अथवा अर्द्धांश (सेर का आधा सेर) रह जाय, तब उतार लें या थोड़ा गर्म कर लें – ऐसे जल को ‘उष्णोदक’ कहते हैं।
  111. अवलेह या माल्ट किसे कहते हैं- सभी क्वाथादि दुबारा आग पर पकाकर घना यानी गाढ़ा किया जाय, तो उसे, ‘अवलेह’ ‘लेह’ या ‘प्रास’ कहते हैं। अमृतम च्यवनप्राश और माल्ट इसी विधि से निर्मित होते हैं।
  112. पंचलवण– बिरिया, संचर, सैंधा, बिड़ उद्भिद् और समन्दर नमक-इन पाँचों के मेल को ‘पंचलवण’ कहते हैं।
  113. सर्वगन्ध– दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेशर कपूर, काकोली, अगर, लोबान और लौंग- इन सबको मिलाकर ‘सर्वगन्ध’ कहते हैं।
  114. त्र्यूषण– पीपल, सोंठ और मिर्च को ‘त्र्यूषण’ कहते हैं।
  115. त्रिमद– बायविडंग, मोथा और चीता- इनको ‘त्रिमद’ कहते हैं।
  116. क्षीर वृक्ष– गुलर, बड़, पीपल, बेंत और पिलखन इन पाँचों को क्षीर वृक्ष कहते हैं।
  117. पंचपल्लव किसे कहते हैं?- आम, जामुन, कैंथ, बिजौरा, नींबू और बेल इन पांचों को पंचपल्लक कहते हैं।
  118. महत् पंचमूल– बेल, श्योनाक, गम्भारी, पाढल और अरणी इन पाँचों को ‘महत् पंचमूल’ कहते हैं।
  119. लघु पंचमूल– शालपर्णी (सरिवन), छोटी कटेरी, पृष्ठपर्णी, (पिठवन) बड़ी कटेरी और गोखरू इन पाँचों को ‘लघु पंचमूल’ कहते है।
  120. दशमूल– लघु पंचमूल और वृहत् पंचमूल-इन दोनों की दसों चीजों को मिलाकर ‘दशमूल’ कहते हैं।
  121. पंचतृण– कुश, काँस, शर, दर्भ और गन्ना इन पाँचों को ‘पंचतृण’ या ‘पंचमूल’ कहते हैं।
  122. बल्लीज पंचमूल- विदारीकन्द, मेढ़ासिंगी, हल्दी, अनन्तमूल और गिलोय – इन पाँचों को ‘वल्लीज पंचमूल’ कहते हैं।
  123. आसव– रस पकाकर जो मद्य तैयार किया जाता है, उसे ‘सीधू’ कहते हैं और गन्ने के कच्चे रस से जो मद्य तैयार किया जाता है, उसे ‘आसव’ कहते हैं ।
  124. पंचक्रिया – वमन, विरेचन, नस्य निरूह और अनुवासन · पाँचों क्रियाओं को ‘पंचक्रिया’ कहते हैं। इन क्रियाओं से शरीर के वातादि दोष शुद्ध होते हैं।
  125. क्वाथ – चार तोले औषधि को, चौंसठ तोले जल में डालकर मिट्टी के बर्तन में हल्की-हल्की आँच पर पकायें। जब आठवाँ भाग यानी 8 तोले पानी शेष रहे, तब उताकर छान लें। इसी को ‘क्वाथ’ (काढ़ा), ‘श्रुत’, ‘कषाय’ और ‘निर्यूह’ कहते हैं। हाँ, काढ़े के बर्तन पर, औटते समय, ढक्कन भूलकर भी न रखें; अन्यथा काढ़ा भारी हो जायेगा।
  126. पुटपाक का अर्थ– गीली वनस्पति को कूट-पीसकर गोला बना लें। गोले को गम्भारी, बड़ या जामुन के पत्तों से लपेट दें। ऊपर से सूत बाँध दें फिर उस पर दो अंगुल मिट्टी चढ़ा दें। इसके बाद कण्डे लगाकर, उसके बीच में गोले को रख कर आग लगा दें। जब गोले की मिट्टी लाल हो जाय, गोले को निकाल लें। गोले के ऊपर से मिट्टी और पत्ते हटाकर, उसे कपड़े में रखकर निचोड़ लें। यह रस ‘पुटपाक‘ विधि से तैयार हुआ। पुटपाक द्वारा तैयार हुआ रस को मधु पंचामृत शहद मिलाकर पिया जाता है।
  127. मंथ-का मतलब आठ तोले जड़ी बूटी को अच्छी तरह कूट लें। बत्तीस तोले शीतल जल को मिट्टी के बर्तन में भरें। फिर उसमें आठें तोले दवा डाल दें। उसके बाद फिर उस दवा को रुई से मथें। जब एक दम झाग आने लगे, उसको छान लें। यही ‘मंथ’ है। इसके पीने की मात्रा फाँट की तरह दो पल या सोलह तोले की है।
  128. हिम- क्या है? आठ तोले दवा को जौकुट कर लें। अड़तालीस तोले जल किसी हाँड़ी में भरकर, उसी में जौकुट की हुई दवा को डाल दें और रात भर भीगने दें। सवेरे उस जल को छान कर पी जायें। इसको ‘हिम’ अथवा ‘शीत काढ़ा’ कहते हैं। इसकी मात्रा भी फाँट के समान सोलह तोले की है।
  129. बुढ़ापा नाशक सप्तधातु – रस, रक्त, माँस आदि को देह का धारक होने से जिस तरह धातु कहते हैं, उस रह सोना, चाँदी, ताँबा, जस्ता, सीसा, राँगा और फौलाद – इन सातों को भी ‘धातु’ कहते हैं, क्योंकि ये भी बुढ़ापे और कमजोरी आदि का नाश करके देह को धारण करते हैं।
  130. धातुशोधन- का तरीका ये सातों धातुएँ पहाड़ों या मिट्टी से उत्पन्न होती है, इसलिए इनमें गंदगी रहती है। इनके बारीक पत्र करके आग में बारम्बार तपा- तपाकर तेल, माठा, काँजी, गोमूत्र और कुलथी का काढ़ा- इनमें से प्रत्येक में तीन-तीन बार बुझाते हैं। इस तरह सुवर्ण आदि धातुओं की गंदगी दूर होकर शुद्धि होती है। इसी को ‘धातु-शोधन’ कहते हैं।
  131. सीसा और राँगा नर्मधातु है। इसलिए जब ये तपने से गल जाये तब इनको तीन-तीन बार तेल, माँठा, काँजी, कुलथी-क्वाथ, गोमूत्र, हल्दी-क्वाथ और आक के दूध में बुझाने से शोधन होता है।
  132. भस्म निर्माण विधि मारण की हुई धातु की भस्म का अन्यान्य चीजों के साथ खरल करके, दो सराइयों के बीच में रखकर, सराइयों का मुँह कपड़ा- मिट्टी से बन्द करके, खड्डे में आरने कण्डे भरकर, उन कण्डों के बीच में सराइयों को रखकर आग लगा देते हैं। आग ठण्डी होने पर फिर उन्हें निकाल लेते हैं। इसी तरह कई बार करने से असल ‘भस्म’ तैयार हो जाती है।
  133. निरुत्थ भस्म – जो भस्म घी, शहद, सुहागा, चिरमिटी और गूगल-इन पाँचों के योग से भी नहीं जीये। ‘निरुत्थ भस्म’ कहते हैं।
  134. निरुत्थ भस्म मनुष्य के बुढ़ापे का नाश करनेवाली, बल बढ़ानेवाली और प्रमेह आदि अनेक रोगों का भी नाश करनेवाली होती है; किन्तु कच्ची भस्म कोढ़, बवासीर जैसे अनेक रोगों को जन्म देती है।
  135. मित्रपंचक– घी, शहद, सुहागा, चिरमिटी और गूगल ‘मित्रपंचक’ कहते हैं। ये बराबर-बराबर लिये जाते हैं।
  136. आयुर्वेद की 7 उपधातु– सोनामक्खी, नीलाथोथा, अभ्रक, सुरमा, मैनसिल, हरताल और खपरिया- ये सात उपधातु हैं। इनका भी शोधन होता है; यानी इनसे भी गंदगी अलग किया जाता है।
  137. दीपन-जो पदार्थ कच्चे को पकाये किन्तु अग्नि को प्रदीप्त करे, उसे ‘दीप’ कहते हैं। जैसे, सौंफ।
  138. पाचन– जो पदार्थ कच्चे को पकाता है; किन्तु अग्नि को दीपन करता है, उसे ‘पाचन’ कहते हैं। जैसे, नागकेशर।
  139. दीपन – पाचन- जो पदार्थ अग्नि को दीपन करता है और कच्चे को पचाता भी है, उसे ‘दीपन- पाचन’ कहते हैं। जैसे, चीता या चित्रक छाल।
  140. शमन – जो पदार्थ तीनों दोषों को शुद्ध नहीं करता, समान दोषों को बढ़ाता नहीं, किन्तु विषम दोषों को सम या संतुलित करता है, वह पदार्थ ‘शमन’ कहलाता है। जैसे, गिलोय।
  141. स्तम्भन जो पदार्थ रूखा, शीतल, कसैला, और लघुपाकी होने के कारण, वायु को उल्टा करने वाला होता है, यानी नीचे जाने वाले पदार्थ को नीचे जाने से रोकता है, उसे ‘स्तम्भन’ कहते हैं। जैसे, कुड़ा, सोनापाठा।
  142. रेचन– जो पदार्थ अधपके अथवा कच्चे मल को पतला करके नीचे गिरा दे, यानी दस्त करा दे उसे ‘रेचन’ कहते हैं। जैसे, निशोथ, जयपाल
  143. वमन– जो पदार्थ कच्चे पित्त, कफ तथा अन्न-समूह को जबर्दस्ती मुँह से निकाले, वह पदार्थ ‘वमन’ कहलाता है। जैसे, मैनफल।
  144. वीर्य-2 तरह का होता है पुरुष का वीर्य बहुधा द्रव्य के आश्रय में रहता है और दो तरह का होता है 1. शीतल और 2. गर्म ।
  145. वाजीकरण– जिस पदार्थ के प्रयोग से स्त्री के साथ रमण करने का उत्साह हो, मैथून-शक्ति बढ़े, वह द्रव्य ‘बाजीकरण’ कहलाता है।
  146. जैसे, असगन्ध, मूसली, चीनी, शतावर, दूध, मिश्री इत्यादि। वाजीकरण दो तरह का होता है- 1. वीर्य को रोकने वाला, 2. वीर्य को बढ़ाने वाला। दूध, मिश्री, शतावर आदि से निर्मित B Feral Gold malt और Capsule के सेवन से वीर्य की वृद्धि होती है। और अफीम, भाँग, जायफल आदि वीर्य को स्खलित होने में रुकावट डालते हैं।
  147. हलका– जो पदार्थ अत्यन्त पथ्य, कफ नाशक और शीघ्र पचने वाला हो, उसे ‘हलका’ या ‘लघु’ कहते हैं ।
  148. भारी– जो पदार्थ भारी हो, वातनाशक हो, पुष्टिकारक हो, कफकारी और देर से पचने वाला हो, उसे ‘भारी’ या ‘गुरु’ कहते हैं।
  149. स्निग्ध– जो पदार्थ वातनाशक, वीर्यवर्द्धक, कफकारक और बलवर्द्धक होते हैं, उन्हें ‘स्निग्ध’ कहते हैं। स्निग्ध का अर्थ ‘चिकना’ होता है।
  150. रूक्ष – रूक्ष का अर्थ रूखा है। रूखे पदार्थ वायु को बढ़ाने वाले और कफ का नाश करने वाले होते हैं।
  151. तीक्ष्ण– तीक्ष्ण पदार्थ पित्त कारक, रस रक्तादि धातुओं को सुखाने वाले, कफ तथा बादी का नाश करने वाले होते हैं।
  152. अम्ल– अम्ल का अर्थ खट्ठा है। इसकी उत्पत्ति पृथ्वी और अग्नि से होती है। यह रस वातनाशक है, किन्तु पित्त और कफ को बढ़ाने वाला होता है। यह गरम होता है।
  153. क्षार – क्षार का अर्थ खारा है। इसकी उत्पत्ति जल और अग्नि से होती है। यह रस कफ तथा पित्त को बढ़ाने वाला और वात का नाश करने वाला होता है।
  154. कटु– कटु का अर्थ चरपरा है। इसकी उत्पत्ति आकाश और वायु से होती है। यह रस वात-पित्त को बढ़ाने वाला और कफ का नाश करने वाला होता है। यह गरम होता है।
  155. तिक्त– इसका अर्थ कड़वा है। इसकी उत्पत्ति वायु और अग्नि से होती है। यह रस वात कारक और पित्त-कफ नाशक होता है। यह शीतल होता है। –
  156. कषाय – इसका अर्थ कसैला है। इसकी उत्पत्ति वायु और पृथ्वी से होती है। यह रस वायु को कुपित करने वाला और कफ, रुधिर और पित्त को हरने वाला होता है। यह शीतल है ।
  157. विषाक– जठराग्नि के संयोग से पचने पर छहों रसों का जो परिणाम होता है, उसे ‘विषाक’ कहते हैं।
  158. विषाक तीन तरह का होता है; मीठे और खारे रस का पाक मीठा होता है। खट्टे रस का पाक खट्टा होता है; कसैले, कड़वे और चरपरे रस का पाक बहुधा तीक्ष्ण या चरपरा होता है।
  159. इन तीनों तरह के पाकों से तीन दोष उत्पन्न होते हैं। मधुर पाक से कफ, खट्टे से पित्त और चरपरे से वायु उत्पन्न होती है।
  160. शरीर को चलायमान और स्वस्थ्य रखने वाली 5 वायु मुख्य हैं एवम कुल 49 मरुत देह की रक्षा करते हैं। इन मरुतों के अधिपति, स्वामी भगवान मारुति यानि हनुमानजी हैं।
  161. हनुमान चालीसा में इसीलिए यह दोहा बोला जाता है कि कांपे रोग, मिटें सब पीरा।
  162. परशुराम शतक के अनुसार जो व्यक्ति श्रद्धा से १०८ बार !!जय जय जय हनुमान गुसाईं, कृपा करो गुरुदेव की नाई। जोर से बोलता है, तो ४९ मरुत उसकी रक्षा करते हैं। संभव हो, तो एक दीपक राहु की तेल का जलाकर बोलें।
  163. एक रोचक रहस्य आयुर्वेद में वायु प्रवाह ठीक से न होने पर वात व्याधि परेशान करती हैं। थायराइड, शरीर में सूजन, कमर, हाथ, पैर जोड़ों में दर्द का कारण वायु संचार में अवरोध है।
  164. वायु 5 प्रकार की होती हैं और शरीर में 5 स्थानों पर रहती है। कंठ में उड़ान वायु, ह्रदय में प्राणवायु, मलाशय में अपान वायु, सारे शरीर में व्ययान वायु एवम उदर के कोठे की अग्नि के नीचे नाभि में समान वायु, ये वायु के रहने के स्थान हैं।
  165. (अ) उदानवायु – यह वायु गले में रहती है। इसी की शक्ति से मनुष्य बोलता और गीत गाता है। इसी के कुपित होने से कण्ठादिक रोग उत्पन्न होते हैं।
  166. (ब) प्राणवायु – यह वायु सदैव मुख में चलती और प्राणों को धारण करती है। इसी के द्वारा खाया- पिया भीतर जाता है। इसके कुपित होने से हिचकी और श्वाँस जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।
  167. (स) समानवायु– यह वायु आमाशय और पक्वाशय में रहने वाली जठराग्नि से मिलकर, अन्न को पचाती है और मल-मूत्र को अलग-अलग करती है। इसके कुपित होने से मन्दाग्नि, अतिसार और वायु-गोला जैसे रोग उत्पन्न होते हैं।
  168. (द) अपानवायु – यह वायु पक्वाशय में रहती है। यह मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को निकाल कर बाहर डालती है। इसके कुपित होने से मूत्राशय और गुदा से सम्बन्ध रखने वाले रोग होते हैं
  169. (ई) व्यानवायु– यह वायु सारे शरीर में घूमती है। यही वायु रस, पसीना और खून को बहाती है। आंख खोलना और बन्द करना, नीचे डालना और ऊपर फेंकना जैसी क्रियाएँ इसी से होती हैं। यह कुपित होकर सारे शरीर के रोगों को प्रकट करती है।
  170. वात रोगों के लक्षण, कारण आदि की जानकारी अलग एक नए ब्लॉग में लिखेंगे।

और भी रोचक ज्ञान अभी शेष है

  • आयुर्वेद के प्रतिनिधि द्रव्य जो औषधि दूसरी औषधि के स्थान पर काम आती है, उसे उसका ‘प्रतिनिधि’ कहते हैं। जैसे- रसौत के अभाव में दारुहल्दी ली जाती है, अतः दारुहल्दी, रसौत की प्रतिनिधि हुई।
  • षट् रस क्या है? मीठा, खट्टा, खारा, कड़वा, चरपरा और कसैला इन 1 षट् रस कहते हैं। ये छह रस पदार्थों में होते हैं।
  • त्रिकुटा– सोंठ, मिर्च और पीपल इन तीनों को एकत्र मिलाकर ‘त्रिकुटा’ कहते हैं। इसे च्यवनप्राश में विशेष रूप से मिलाते हैं
  • पंचकोल– पीपल, पीपरामूल, चव्य, चीता और सोंठ – इन पाँचों को एक-एक कोल यानी आठ-आठ माशे लें, तो उसे ‘पंचकोल’ कहते हैं।
  • षडूषण क्या है?- पीपल, पीपरामूल, चव्य, चीता, सोंठ और गोल मिर्च इनको ‘षडूषण’ कहते हैं।
  • चतुर्बीज- या चारदाना क्या है? मेथी, हालों, काला जीरा और अजवायन इन चारों मिले हुए पदार्थों को ‘चतुर्बीज’ या ‘चारदाना’ कहते हैं।
  • त्रिजातक मसाले कोन से हैं?– दालचीनी, इलायची और तेजपात्र इन तीनों को ‘त्रिजातक’ कहते हैं। अगर इनमें नागकेशर और मिला दें, तो इन्हें ‘चतुर्जातक’ कहेंगे।
  • त्रिफला क्या होता है? हरड़, बहेड़ा और आँवला इन तीनों को एकत्र मलाकर ‘त्रिफला’ अथवा ‘बरा’ कहते हैं। ये त्रिदोषनाशक होता है। त्रिफला चूर्ण इन्हीं 3 दवाओं के मिश्रण से निर्मित होता है।

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  • आयुर्वेद में प्रभाव वाली ओषधि– ओषधि की शक्ति को प्रभाव’ कहते हैं। जो काम रस, “गुण, वीर्य और विषाक से नहीं होते, वे शक्ति या प्रभाव से होते हैं। जैसे, खैर कोढ़ का नाश करता है। यह खैर की विलक्षण शक्ति है। बहुशल्य, यज्ञिय खदिर ख़ैर के संस्कृत नाम हैं।

खदिरः शीतलो दन्त्यः कण्डुकासारुचिप्रणुत्।

तिक्तः कषायो मेदोघ्नः कृमिमेहज्वरव्रणान्।

श्वित्रशोयामपित्तास्त्रपांडुकुष्ठकफान् हरेत्। (भा. प्र. नि.)

अर्थात

  • खैर के गुणफायदे – खैर- शीतल, दाँतों को हितकारी। खून को साफ कर समस्त रुधिर विकार (रक्त दोष), श्वेतकुष्ठ, सफेद दाग, ल्यूकोडर्मा, दाद, एग्जिमा, फोड़े, खुजली, एलर्जी संक्रमित या एलर्जिक खाँसी को जड़ से मिटाता मेद, क्रिमि, पेट के कीड़े, प्रमेह, डायबिटीज में उपयोगी।
  • खैर, करंज, बाकुचि, नीम, हरितकी मुरब्बा से निर्मित एक मात्र आयुर्वेदिक ओषधि है SKINKEY Malt सभी त्वचा रोगों को यह जड़ से दूर करती है।

  • Skinkey Malt acts as a blood purifier. This Ayurvedic Malt recipe is designed to detoxify your channels and bring life to your skin.
  • Rakta dhatu becomes imbalanced due to various lifestyle issues such as sleeping, eating, etc. This malt helps Rakta dhatu (blood tissue) combine with Rasa dhatu (plasma) to nourish the skin
  • भारत, नेपाल और श्रीलंका में आयुर्वेद का अत्याधिक प्रचलन है, जहाँ लगभग ८० प्रतिशत जनसंख्या इसका उपयोग करती है।

हेल्दी बने रहने का अचूक तरीका

  • आयुर्वेद के नियमानुसार देह में त्रिदोष यानि वात, पित्त, कफ असंतुलन या प्रकोपित होने से अनेक उदर रोग पनपने लगते हैं। अतः त्रिदोष की चिकित्सा के लिए Ayurveda Life Style बुक का अध्ययन और अनुसरण करें।
  • आयुर्वेद के योग्य, विद्वान और वरिष्ठ वेदों-चिकित्सकों द्वारा लिखी यह किताब तन मन, अंतर्मन का हिसाब ठीक रखती है।एक बेहतरीन पुस्तक के आधार पर आप असन्तुलित वात-पित्त-कफ अर्थात त्रिदोषों की जांच स्वयं करके हेल्दी बने रह सकते हैं।

  • आयुर्वेदा लाइफ स्टाइल अंग्रेजी की किताब आपकी बहुत मदद करेगी।
  • अमृतम ग्लोबल Amrutam.globle की वेबसाइट पर सर्च करके आप आयुर्वेद के जाने-माने योग्य स्त्री-पुरुष रोग विशेषज्ञ आदि अनुभवी चिकित्सकों से ऑनलाइन सलाह ले सकते हैं।

पांच चमत्कारी हर्ब्स

  • अपनी तासीर के मुताबिक निम्नलिखित क्वाथ आपको स्वस्थ्य और सुखी बनाने में मदद करेंगे।

【1】कफ की क्वाथ 【कफविनाश】

【2】वात की क्वाथ 【वातरोग नाशक】

【3】पित्त की क्वाथ 【पित्तदोष सन्तुलित करने में विशेष उपयोगी।

【4】डिटॉक्स की क्वाथ 【शरीर के सभी दुष्प्रभाव, साइड इफ़ेक्ट मिटाता है】

【5】बुद्धि की क्वाथ 【मानसिक शांति हेतु】

उपरोक्त ये पांचों क्वाथ तासीर अनुसार सर्वरोग नाशक और देह को तन्दरुस्त बनाने में सहायक हैं।

यह जड़मूल से रोगों का नाशकर रोगप्रतिरोधक क्षमता यानि इम्युनिटी को तेजी से बढ़ाते हैं।

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