गायत्री मंत्र के रहस्य

 हमारे सद्गुरु जब एकांत में होते हैं तो
गुप्त गुरु गायत्री विद्या की चर्चा अवश्य
करते है । यह गायत्री मन्त्र से अलग है ।
यह अंतिम गुरु मन्त्र, मुक्ति मन्त्र है ।
अति गोपनीय होने के कारण इसे विशेष
परमशिष्य को ,सन्यासी को , ब्रह्मनिष्ठ को
ब्रह्मचारी को , जिन्हें हर मन्त्र में ॐ लगाने का
गुरु से अधिकार मिल चुका हो, जो शैव सम्प्रदाय से हो,जिन्होंने 1100 स्वयम्भू शिवालयों, 12
ज्योतिलिंगो, 1100 धामों के ,108 तीर्थो  (नदियों)
के दर्शन किये हो ।

नमः शिवाय या गुरु मन्त्र के 5 पुनश्चरण किये हो, सद्गुरु,ओर शिव भक्त हो, उन्हें ही गुप्त गायत्री
विद्या मन्त्र बताने का अधिकार है । कुछ रहस्य ओर भी जिन्हें लिखा नही जा सकता ।
इस मन्त्र के जाप से वाणी सिद्ध,शुध्द,होती है ।
मृत संजीवनी विद्या की शक्ति प्राप्त होती है ।
अथाह धन के कारक,दाता,सद्गुरु संवृद्धि ऐश्वर्य
दायक ग्रह श्री शुक्राचार्य को यह विद्या भगवान शिव से मिली थी । इन्होनें आगे अपने परम् शिष्य भगवान श्री गणेश ओर ज्ञान दाता शिवरूप श्री राहु को दी थी ।
स्कन्दः पुराण के चौथे खंड एवं ग्यारहवें खंड
में भी उल्लेख है ।
सारा संसार एक दूसरे से जुड़ा या बंधा हुआ है अथवा ये माने कि एक के ऊपर एक अंकुश है,कंट्रोल है । हमारा तन ही एक दूसरे के अंकुश में है । जैसे-
?शरीर पर इंद्रियों का कंट्रोल है,
?इंद्रियों पर मन का
?मन पर बुद्धि का
?बुद्धि पर चित्त का
?चित्त पर आत्मा का
?आत्मा पर अहंकार का
?अहंकार पर महत्तव का
?महत्तव पर श्याम विवर
(अर्थात ब्लैक हॉल पर जहां सब कुछ काला और महा अंधकार है ।)
?ब्लैक होल पर काली का
?काली पर सूर्य का
?सूर्य पर राहु (शिव) का
?शिव पर शेषनाग का
?शेषनाग पर प्रकृति का
?प्रकृति पर मन्त्रों का
?मंत्रों पर साधकों का
?साधकों पर सद्गुरुओं का
?सद्गुरु पर परमात्मा का
?परमात्मा पर शक्ति का
?शक्ति पर भक्ति का
?भक्ति पर ॐ का
?और ॐ पर गायत्री का अंकुश है ।
ॐ और गायत्री मन्त्र व छन्द के बिना सृष्टि के
 सब ग्रंथ, वेद-शास्त्र पूजा-विधान,
 कर्मकाण्ड व्यर्थ हो जाते है ।
 सूर्योउपनिषद में आया है कि गायत्री प्रकृति
 तथा ॐ ईश्वर है ।
 गायत्री की शक्ति से लाखों-हजारों पुस्तकें
 भरी पड़ी हैं ।
 गायत्री मन्त्र तथा गुप्त गायत्री विद्या मन्त्रकेवल पुरुष ही कर सकते हैं । महिलाओं को निषेद्ध है । ऐसा सद्गुरुओं का निर्देश है । गायत्री के जाप से अंधकार मिट जाता है
 महर्षियों ने प्रार्थना की की-
 असतो मा सद्गमय
 तमसो मा ज्योतिर्गमय
 मृत्युर्मा अमृतम गमय
 ॐ शांति!शांति:शान्तिं:!!
 हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलें ।
 मृत्यु से अमृत की ओर ।

 गायत्री के जाप से निश्चित ही

 त्रिविध दु:खों का निवारण हो जाता है ।

 हमारे त्रिशूल, त्रिदोष,त्रिपाश, त्रिकाल दुख, तथा संसार के
समस्त दु:खों के कारण तीन हैं—
(१) अज्ञान
 (२) अशक्ति
 (३) अभाव।
 जो इन तीनों कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह उतना ही सुखी बन  सकेगा।

(1) अज्ञान-

अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण
 दूषित हो जाता है। वह तत्त्वज्ञान से
 अपरिचित होने के कारण उलटा- सीधा
 सोचता है और उलटे काम करता है,
 तदनुरूप उलझनों में अधिक फँसता
 जाता है और दुःखी होता है।
 स्वार्थ, भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता
  और क्रोध की भावनाएँ मनुष्य को
  कर्तव्यच्युत करती हैं और वह
   दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक,
   क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है
   तथा वैसे ही काम करता है।
   फलस्वरूप उसके विचार और
    कार्य पापमय होने लगते हैं।

    पापों का परिणाम-

     पापों का निश्चित परिणाम दुःख है।
     दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह
      अपने और दूसरे सांसारिक
       गतिविधियों के मूल हेतुओं
        को नहीं समझ पाता।
        फल स्वरूप
        असम्भव आशाएँ, तृष्णाएँ, कल्पनाएँ किया करता है।  इस उलटे दृष्टिकोण के कारण साधारण- सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती हैं, जिसके कारण वह रोता- चिल्लाता रहता है।
        आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार- चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूँ, वही सदा होता रहे।
        प्रतिकूल बात सामने आये ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनाएँ जब भी घटित होती हैं, तभी वह सबके सामने गिड़गिड़ाता है, रोता- चिल्लाता है।
         तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वञ्चित रहना पड़ता है, यह भी दु:ख का कारण है। इस प्रकार अनेक दु:ख मनुष्य को अज्ञान के अंधकार के कारण प्राप्त होते हैं।

अशक्ति का अर्थ है-

 निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलता के कारण
  मनुष्य अपने स्वाभाविक जन्मसिद्ध
  अधिकारों का भार अपने कन्धों पर
  उठाने में समर्थ नहीं होता !
  फल स्वरूप उसे वञ्चित रहना पडऩा है।
   स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो,
    तो स्वादिष्ट भोजन,
    रूपवती तरुणी,
    मधुर गीत- वाद्य,
    सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं।
    धन- दौलत का कोई कहने लायक
    सुख उसे नहीं मिल सकता।
     बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य,
      काव्य, दर्शन,
       मनन, चिन्तन का रस
        प्राप्त नहीं हो सकता।
        आत्मिक निर्बलता हो तो
         सत्संग, प्रेम,
  भक्ति आदि का आत्मानन्द दुर्लभ है।
          इतना ही नहीं,
          निर्बलों को मिटा डालने के लिए
 प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिए अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं।
 निर्दोष, भले और सीधे- सादे तत्त्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं।
 सर्दी, जो बलवानों को बल प्रदान करती है,
  रसिकों को रस देती है,
   वह कमजोरों को
    निमोनिया,
    गठिया आदि का कारण बन जाती है।
     जो तत्त्व निर्बलों के लिए प्राणघातक हैं,
     वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं।
      बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत् माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु ही नहीं, बड़े- बड़े सम्राट तक अपने राज्य चिह्न में धारण करते हैं।
       अशक्त हमेशा दुःख पाते हैं, उनके लिए भले तत्त्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होते।
       उनकी कोई आशा-आकांक्षा पूर्ण
        नही हो पाती । वे सदा पाप पुण्य,समाज का भय, जमाने की चिंता में घिरे रहते हैं,
 उनका पूरा जीवन ऊहा-पोह में मिट जाता है ।
अभावजन्य दु:ख है-
अर्थात पदार्थों का अभाव।
 अन्न, वस्त्र,
  जल, मकान,
  पशु, भूमि, सहायक,
   मित्र, धन, औषधि,
    पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक
     आदि के अभाव में
     विविध प्रकार की पीड़ाएँ,
      कठिनाइयाँ भुगतनी पड़ती हैं ।
       उचित आवश्यकताओं को कुचलकर मन मानकर बैठना पड़ता है । मन मार-मारकर जीना इनकी मर्जी बन जाती है ।
       और जीवन के महत्त्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है।
        योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुजं-पुजं अनुभव करते हैं और जीवन भर दु:ख उठाते हैं।

क्या करें-

ईश्वर पर अटूट भरोसा ।

गायत्री कामधेनु है— पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है,
 वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकर
  देवता लोग सदा सन्तुष्ट,
  प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते हैं।
   इस गौ में यह विशेषता है कि
   उसके समीप कोई अपनी कुछ
   कामना लेकर आता है, तो
   उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो जाती है।
   कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौ भी अपने निकट पहुँचने वालों की मनोकामना पूरी करती है।
          यह कामधेनु गौ गायत्री ही है।
इस महाशक्ति की जो देवता, दिव्य
 स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है ।
  वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्ध धारा का पान करता है, उसे किसी प्रकार कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मा स्वत: आनन्द स्वरूप है।
   आनन्द मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है।
    दु:खों के हटते और मिटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुँच जाता है।
     देवता स्वर्ग में सदा आनन्दित रहते हैं। मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकार आनन्दित रह सकता है, यदि उसके कष्टों का निवारण हो जाए।
     गायत्री रूपी कामधेनु मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है। जो उसकी पूजा, आराधना, अभिभावना व उपासना करता है, वह प्रतिक्षण समस्त अज्ञानों, अशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवाँछित फल प्राप्त करता है।

वेदों में आया है-

गायत्री सद्बुद्धिदायक मन्त्र है।
वह साधक के मन को,
अन्तःकरण को,
मस्तिष्क को,
 विचारों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है।
  सत् तत्त्व की वृद्धि करना उसका
   प्रधान कार्य है।
   साधक जब इस महामन्त्र के
    अर्थ पर विचार करता है, तो
    वह समझ जाता है कि संसार की सर्वोपरि समृद्धि और जीवन की सबसे बड़ी सफलता ‘सद्बुद्धि’ को प्राप्त करना है।
  यह मान्यता सुदृढ़ होने पर उसकी
   इच्छाशक्ति इसी तत्त्व को प्राप्त करने
    के लिए लालायित होती है।
   यह ‘आकांक्षा’ मन:लोक में एक प्रकार का चुम्बकत्व (मैग्नेटिक शक्ति) उत्पन्न करती है।
    उस चुम्बक की आकर्षण शक्ति से निखिल आकाश के ईथर तत्त्व
   (इसकी गति सूर्य से भी एक लाख गुना है । दुनिया ईथर के बारे में बहुत अनभिज्ञ है ।
    कभी मौका मिला, तो ईथर के विषय में विस्तार से लिखेंगे ।)
    अभी तो फिलहाल-
    अपना दर्द अंदर समेटे हैं
    हम आज आराम से लेटे हैं ।
इश्क ईश्वर से हो या नश्वर से  ।
जिसका हर क्षण-हर पल ध्यान बना रहे
वह भी एक उपासना है । भले ही पत्थर में कुछ नहीं मिलता । इंसान ने पत्थर को धर्म बना दिया
लेकिन इंसान को धर्म नहीं बना पाए । खेर..
 अपनी आस्था का रास्ता बिना वास्ता
मजबूत होना चाहिए ।
 गायत्री साधना भी ऐसी ही है ।
    ईथर में भ्रमण करने वाली सतोगुणी
     विचारधाराएँ,
     भावनाएँ और प्रेरणाएँ
     खिंच- खिंचकर
      उस स्थान पर जमा होने लगती हैं।
      विचारों की चुम्बकत्व
शक्ति का विज्ञान सर्वविदित है।
एक जाति प्रेमी-प्रेमिकाके विचार अपने
सजातीय विचारों को
आकाश से खींचते हैं।
 फलस्वरूप संसार के मृत और जीवित
  सत्पुरुषों के फैलाए हुए अविनाशी
  संकल्प जो शून्य में सदैव भ्रमण करते रहते हैं, गायत्री साधक के पास दैवी वरदान की तरह अनायास ही आकर जमा होते रहते हैं और संचित पूँजी की भाँति उनका एक बड़ा भण्डार जमा हो जाता है।
      शरीर एवं मन में सतोगुण की मात्रा बढऩे का फल आश्चर्यजनक होता है।
स्थूल दृष्टि से देखने पर यह लाभ न तो
 समझ पड़ता है,
  न अनुभव होता है
  और न उसकी कोई महत्ता मालूम पड़ती है;
  पर जो सूक्ष्म शरीर के सम्बन्ध में अधिक जानकारी रखते हैं, वे जानते हैं कि
   तम और रज का घटना और उसके स्थान
    पर सत् तत्त्व का बढऩा ऐसा ही है,
    जैसे शरीर में भरे हुए रोग, मल, विष आदि विजातीय पदार्थों का घट जाना और उनके स्थान पर शुद्ध, सजीव,
    परिपुष्ट रक्त और “वीर्य की मात्रा” बड़े परिमाण में बढ़ जाना।
    ऐसा परिवर्तन चाहे किसी की
     खुली आँखों से दिखाई न दे,
      पर उसका स्वास्थ्य की उन्नति
       पर जो चमत्कारी प्रभाव पड़ेगा,
        उसमें कोई सन्देह नहीं किया जा सकता।
 इस प्रकार के लाभ को यदि ईश्वर प्रदत्त
  कहा जाए, तो
  किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
   शरीर का कायाकल्प करना एक
    वैज्ञानिक कार्य है,
    उसके कारण सुनिश्चित लाभ होगा ही।
     यह लाभ दैवी है या मानवी,
     इस पर जो मतभेद हो सकता है,
      उसका कोई महत्त्व नहीं है।
       गायत्री द्वारा सतोगुण बढ़ता है
        और निम्नकोटि के तत्त्वों का निवारण हो जाता है।
        फलस्वरूप साधक का एक
         सूक्ष्म कायाकल्प हो जाता है।
          इस प्रक्रिया द्वारा होने वाले लाभों को वैयक्तिक लाभ कहें या दैवी वरदान,
          इस प्रश्र पर झगड़ने से कुछ लाभ नहीं,
           बात एक ही है। कोई कार्य किसी भी प्रकार हो, उससे ईश्वरीय सत्ता पृथक् नहीं है,
 इसलिए संसार के सभी कार्य ईश्वर इच्छा
  से हुए कहे जा सकते हैं।
   गायत्री साधना द्वारा होने वाले लाभ
    वैज्ञानिक आधार पर हुए भी कहे जा
    सकते हैं और ईश्वरीय कृपा के आधार पर हुए कहने में भी कोई दोष नहीं।
      शरीर में सत् तत्त्व की अभिवृद्धि होने से शरीरचर्या की गतिविधि में
 काफी हेर- फेर हो जाता है।
  इन्द्रियों के भोगों में भटकने की
   गति मन्द हो जाती है।
चटोरपन,
तरह- तरह के स्वादों के
पदार्थ खाने के लिए मन ललचाते
 रहना, बार- बार खाने की इच्छा होना,
  अधिक मात्रा में खा जाना,
   भक्ष्याभक्ष्य का विचार न रहना,
   सात्त्विक पदार्थों में अरुचि
    और चटपटे, मीठे,
     गरिष्ठ पदार्थों में रुचि
     जैसी बुरी आदतें धीरे- धीरे
      कम होने लगती हैं।
      हलके, सुपाच्य,
      सरस, सात्त्विक भोजन से
      उसे तृप्ति मिलती है
       और राजसी, तामसी खाद्यों से घृणा हो जाती है।
       इसी प्रकार कामेन्द्रिय की
       उत्तेजना सतोगुणी विचारों के कारण संयमित हो जाती है।
       मन कुमार्ग में, व्यभिचार में,
        वासना में कम दौड़ता है।
        ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा बढ़ती है।
         फल स्वरूप वीर्य- रक्षा का मार्ग
          प्रशस्त हो जाता है।
          कामेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय
           दो ही इन्द्रियाँ प्रधान हैं।
           इनका संयम होना स्वास्थ्य- रक्षा और शरीर- वृद्धि का प्रधान हेतु है।
  इसके साथ- साथ परिश्रम,
   स्नान, निद्रा, सोना- जागना,
    सफाई, सादगी
    और अन्य दिनचर्याएँ
    भी सतोगुणी हो जाती हैं,
     जिनके कारण आरोग्य
      और दीर्घ जीवन की जड़ें मजबूत होती हैं |
मानसिक क्षेत्र में सद्गुणों की वृद्धि
 के कारण
  काम, क्रोध, लोभ,
   मोह, मद, मत्सर, स्वार्थ,
    आलस्य, व्यसन, व्यभिचार,
    छल, झूठ, पाखण्ड, चिन्ता,
     भय, शोक, कदर्य सरीखे दोष
      कम होने लगते हैं।
      इनकी कमी से
      संयम, नियम, त्याग,
       समता, निरहंकारिता,
       सादगी, निष्कपटता,
       सत्यनिष्ठा, निर्भयता,
       निरालस्यता, शौर्य, विवेक,
        साहस, धैर्य, दया, प्रेम, सेवा, उदारता,
         कर्तव्यपरायणता, आस्तिकता सरीखे सद्गुण बढ़ने लगते हैं।
          इस मानसिक कायाकल्प का
           परिणाम यह होता है कि
           दैनिक जीवन में प्राय: नित्य ही
            आते रहने वाले अनेकों दु:खों का
             सहज ही समाधान हो जाता है।
              इन्द्रिय संयम और संयत दिनचर्या के कारण शारीरिक रोगों का बहुत बडा
 निराकरण हो जाता है।
 विवेक जाग्रत् होते ही अज्ञानजन्य
  चिन्ता, शोक, भय,
  आशंका, ममता, हानि
  आदि के दुःखों से छुटकारा मिल जाता है।
  ईश्वर- विश्वास के कारण मति स्थिर
  रहती है और भावी जीवन के बारे
   में निश्चिन्तता बनी रहती है।
   धर्म प्रवृत्ति के कारण
   पाप, अन्याय- अत्याचार
    नहीं बन पड़ते हैं।
    फलस्वरूप राज- दण्ड,
    समाज- दण्ड,
    आत्म- दण्ड और ईश्वर- दण्ड
    की चोटों से पीडि़त नहीं होना पड़ता।
     सेवा, नम्रता, उदारता, दान,
      ईमानदारी, लोकहित आदि गुणों के कारण दूसरों को लाभ पहुँचता है ।
       हानि की आशंका नहीं रहती।
       इससे प्राय: सभी उनके कृतज्ञ, प्रशंसक, सहायक, भक्त एवं रक्षक होते हैं।
        पारस्परिक सद्भावनाओं के परिवर्तन से आत्मा को तृप्त करने वाले प्रेम
        और सन्तोष नामक रस दिन- दिन
         अधिक मात्रा में उपलब्ध होकर जीवन को आनन्दमय बनाते चलते हैं।
          इस प्रकार शारीरिक और
          मानसिक क्षेत्रों में सत् तत्त्व की वृद्धि होने से दोनों ओर आनन्द का स्रोत उमड़ता है
           और गायत्री का साधक उसमें निमग्न रहकर आत्मसन्तोष का,
           परमानन्द का रसास्वादन करता रहता है।
आत्मा ईश्वर का अंश होने से
 उन सब शक्तियों को बीज रूप में छिपाये रहती है जो ईश्वर में होती है।
 वे शक्तियाँ सुषुप्तावस्था में रहती हैं
  और मानसिक तापों के,
  विषय- विकारों के, दोष- दुर्गुणों
   के ढेर में दबी हुई अज्ञान रूप से पड़ी रहती हैं। लोग समझते हैं कि हम दीन- हीन,
   तुच्छ और अशक्त हैं,
    पर जो साधक मनोविकारों का
     पर्दा हटाकर निर्मल आत्मज्योति
      के दर्शन करने में समर्थ होते हैं,
       वे जानते हैं कि सर्वशक्तिमान्
       ईश्वरीय ज्योति उनकी आत्मा में मौजूद है
        और वे परमात्मा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अग्रि के ऊपर से राख हटा दी जाए,
         तो फिर दहकता हुआ अंगार प्रकट हो जाता है। वह अंगार छोटा होते हुए भी भयंकर अग्रिकाण्डों की संभावना से युक्त होता है।
         यह पर्दा हटते ही तुच्छ मनुष्य महान् आत्मा (महात्मा) बन जाता है।
          चूँकि आत्मा में अनेकों ज्ञान- विज्ञान, साधारण- असाधारण, अद्भुत,
          आश्चर्यजनक शक्ति के भण्डार छिपे पड़े हैं, वे खुल जाते हैं और
          वह सिद्ध योगी के रूप में दिखाई पड़ता है।
           सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए बाहर से कुछ लाना नहीं पड़ता,
            किसी देव- दानव की कृपा की जरूरत
             नहीं पड़ती, केवल अन्तःकरण पर पड़े हुए आवरणों को हटाना पड़ता है। गायत्री की
              सतोगुणी साधना का सूर्य तामसिक
               अन्धकार के पर्दे को हटा देता है और आत्मा का सहज ईश्वरीय रूप प्रकट हो जाता है।
                आत्मा का यह निर्मल रूप सभी ऋद्धि- सिद्धियों से परिपूर्ण होता है।
       गायत्री द्वारा हुई सतोगुण
 की वृद्धि अनेक प्रकार की
 आध्यात्मिक और सांसारिक समृद्धियों
  की जननी है।
   शरीर और मन की शुद्धि सांसारिक
    जीवन को अनेक दृष्टियों से सुख- शान्तिमय बनाती है।
    आत्मा में विवेक और आत्मबल
     की मात्रा बढ़ जाने से अनेक ऐसी कठिनाइयाँ जो दूसरे को पर्वत के समान मालूम पड़ती हैं,
      उस आत्मवान् व्यक्ति के लिए तिनके
       के समान हलकी बन जाती हैं। उसका कोई काम रुका नहीं रहता।
        या तो उसकी इच्छा के अनुसार
        परिस्थिति बदल जाती है या वह परिस्थिति के अनुसार अपनी इच्छाओं को बदल लेता है।
        क्लेश का कारण इच्छा और परिस्थिति के बीच प्रतिकूलता का होना ही तो है।
         विवेकवान् इन दोनों में से किसी को अपनाकर संघर्ष को टाल देता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। उसके लिए इस पृथ्वी पर भी स्वर्गीय आनन्द की सुरसरि बहने लगती है।
       वास्तव में सुख और आनन्द का आधार किसी बाहरी साधन सामग्री पर नहीं,
 मनुष्य की मनःस्थिति पर रहता है।
  मन की साधना से जो मनुष्य एक समय
  राजसी भोजनों और रेशमी गद्दे- तकियों
   से सन्तुष्ट नहीं होता, वह किसी सन्त
    के उपदेश से त्याग और संन्यास
     का व्रत ग्रहण कर लेने पर जंगल की
      भूमि को ही सबसे उत्तम शय्या और वन के कन्दमूल फलों को सर्वोत्तम आहार
      समझने लगता है।
       यह सब अन्तर मनोभाव और विचारधारा के बदल जाने से ही पैदा हो जाता है।
 गायत्री बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी है
 और उनसे हम सद्बुद्धि की याचना
  किया करते हैं।
   अतएव यदि गायत्री की उपासना के परिणाम स्वरूप हमारे विचारों का स्तर ऊँचा
   उठ जाए और मानव जीवन की वास्तविकता
    को समझकर अपनी वर्तमान स्थिति में ही आनन्द का अनुभव करने लगें,
    तो इसमें कुछ भी असम्भव नहीं है।
      काफी लम्बे समय से हम गायत्री उपासना के प्रचार का प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिए अनेकों साधकों से हमारा परिचय है।
हजारों व्यक्तियों ने इस दिशा में
 हमसे पथ- प्रदर्शन और प्रोत्साहन पाया है।
 इनमें से जो लोग दृढ़तापूर्वक साधना मार्ग पर चलते रहे हैं, उनमें से अनेकों को
  आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं।
  वे इस सूक्ष्म विवेचना में जाने की
  इच्छा नहीं करते कि किस प्रकार
   कुछ वैज्ञानिक नियमों के आधार पर
   साधना श्रम का सीधा- सादा फल उन्हें मिला।
    इस विवेचना से उन्हें प्राय: अरुचि होती है। उनका कहना है कि
     भगवती गायत्री की कृपा के प्रति
      कृतज्ञता ही हमारी भक्ति- भावना
       को बढ़ाएगी और उसी से हमें
        अधिक लाभ होगा। उनका यह मन्तव्य बहुत हद तक ठीक ही है।
        श्रद्धा और भक्ति बढ़ाने के लिए इष्टदेव के साधना- स्वरूप के प्रति प्रगाढ़ प्रेम,
        कृतज्ञता, भक्ति और तन्मयता होनी आवश्यक है। गायत्री साधना द्वारा
         एक सूक्ष्म विज्ञान सम्मत प्रणाली से लाभ होते हैं, यह जानकर भी इस महातत्त्व से आत्मसम्बन्ध की दृढ़ता करने के लिए कृतज्ञता और भक्ति- भावना का पुट अधिकाधिक रखना आवश्यक है।
अपने सद्गुरु श्री श्री महामंडलेश्वर परिव्राजक
हठयोगी, फलाहारी परम् शिवस्वरूप श्री भवानी नंदन यति जी महाराज की प्रेरणा, से जो अंशरूप
में ग्रहण किया वही लिखा है । यह बहुत ही गोपनीय विद्या है ।
 इसमें कुछ विचार,शायरी, कविता भी लिखने में अपने आप आ गई या शब्द प्रकट हो गये । उन्हें भी लिख दिया गया है ।

 

 

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