केवल शिवजी को मानने वाले अवधूत-अघोरियों का अध्यात्म क्या है।

गुरुपूर्णिमा पर जाने आदि अघोरी 
गुरु महादेव तथा अघोरपंथ के
60 से भी ज्यादा रोचक रहस्य...
कलयुग में भय-भ्रम, मानसिक
सन्ताप, रोग, महामारी, संक्रमण
फैलने के क्या कारण हैं।
दुर्लभ रहस्यमयी जानकारी युक्त
यह लेख 12 हजार शब्दों का है।
जरा आराम से पढ़ें-
www.amrutam.co.in
5 जुलाई 2020 को गुरुपूर्णिमा पर
सन्सार के सभी गुरु-शिष्यों को
अमृतम परिवार की शुभकामनाएं प्रेषित हैं।
अमृतम मासिक पत्रिका द्वारा प्रकाशित
अघोर विशेषांक के 900 पृष्ठों के 
कुछ अंश से साभार...
गुरुपूर्णिमा का मतलब है-गुरु-पूर्ण+मां!
अघोरी अपने गुरु को माँ के बराबर
मानकर सम्मान देते हैं।
महादेव ने भी माँ के महत्व को समझकर ज्योतिष-पञ्चाङ्ग में पूर्णिमा तिथि का
निर्माण किया।
माँ महाशक्ति होने से जगत-जननी आदिशक्ति महाकाली, महालक्षमी
को तीन लोक की मालकिन बनाया होगा।
सदगुरू की महिमा….
बृहदारण्यकोपनिषद् १/३/२८ में 
वर्णित संस्कृत श्लोक से जाने-
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माअमृतम गमय ॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः ॥ 
अर्थात-
हे सदगुरू! हमें अंधकार से प्रकाश 
अर्थात असत्य से सत्य की तरफ ले चलो! 
हमें जन्म-मृत्यु के झंझट और कष्ट-क्लेश से मुक्ति दिलाकर ईश्वर की शरण में ले चलो!
“अमृतम पत्रिका” परिवार का भी यही
उदघोष है। 
अंधकार का हथियार गुरु..  
अज्ञान, अविद्या, अहंकार बहुत ताकतवर 
होते है, किन्तु ब्रम्हाविद्या उससे कई गुना शक्तिशाली है। गुरूकृपा से हमें भी ऐसी ब्रम्हविद्या सुलभ हो, जो हमारी अज्ञानता 
को नष्ट कर दें। हमारे मन-मस्तिष्क और
जीवन में ऐसा प्रकाश हो जाये कि सारा 
अंधकार दूर हो जाय। 
 
अवधूत-अघोरियों का कहना हैं कि-
अज्ञान तिमिरांधश्च ज्ञानांजनशलाकया,
चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नमः।।
अर्थात-
सच्चा सदगुरु अज्ञानता तिमिर यानि
अंधकार का ज्ञानांजन-शलाका से
निवारण कर देता है।
गुरु शब्द की व्याख्या-अर्थ क्या है?...
‘गु’ अक्षर के अर्थ अंतर्गत अंधेरे-अज्ञान
का भास-भाव प्रतीत होता है।
‘गु’ अर्थात जिनकी बुद्धि-विवेक में
विकार-अंधकार, अज्ञानता और
अंधकार भरा हुआ है।
गुरु का दूसरा अक्षर ‘रु’ अर्थात
आत्मा में प्रकाश का आभास कराता है।
गुरु मन्त्र के जाप और गुरुभक्ति से
तन-मन, अन्तर्मन स्थित अरबों
अन्धकार से भरी नाड़ियाँ, ग्रंथियां,
सन्धियाँ, कोशिकाएं गुरुदृष्टि से
प्रकाशित हो जाती हैं। सदगुरू की
कृपा से न्म-जन्म की गन्दगी,
नकारात्मक विचार, विकार
नष्ट हो जाते हैं।
गुरु करो जानकर, 
पानी पीओ छानकर…..
कलयुगी गुरुओं की परिभाषा, अर्थ-
अघोरियों के अनुसार सन्सार में विचरण 
कर रहे गुरुओं पर भौतिक सुख सवार है। 
कुछ पाखंडी गुरुओं ने गुरु रूप को  कलंकित कर रहे हैं।
अब गुरु का अर्थ है- 
गु यानि मल, गन्दगी और 
रु का अर्थ है-देह। अर्थात 
वर्तमान में जिसके शरीर में जितना 
अधिक गू भरा भरा है, वह उतना ही 
बड़ा गुरु है। 
गुरु की गरिमा...
अवधूत-अघोरी मानते हैं कि-
गुरु और समुद्र दोंनो ही गहरे होते हैं।
लेकिन दोनों की गहराई में एक अंतर है ..
समुद्र की गहराई में इंसान डूब जाता है..
और – – –
गुरु की शरण, गहराई में जाकर इंसान 
जन्म-मृत्यु के झंझट से मुक्त हो जाता है।
ये तभी गहरे होते हैं जब-
गुरु खरा हो और समुद्र खारा हो।
 
गुरु-चेले में हो ये 7 अंडरस्टैंडिंग...
(१) समुद्र या ज्ञान की गहराई में जाने
के लिए गुरू और शिष्य दोनों का
स्वस्थ रहना जरूरी है।
(२) शिष्य में जिज्ञासा और
गुरू में समाधान शक्ति बनी रहे। 
(३) गुरू-शिष्य में झगड़ा, वैमनस्य
दुराव, दोगलापन न हो।
(४) शिष्य में निरंतर त्याग की भावना रहे। 
(५) गुरू में लोभ न हो। 
(६) शिष्य में विराग श्रध्दा हो। 
(७) गुरू में परम स्नेह हो। 
गुरु हमें यथार्थ में जीना सिखाता है।
सच्चे सदगुरू वाहेगुरू की पहचान..
सच्चिदानंद सदगुरु कभी साधक को
बचाता नहीं, मिटाता है। वह गहरे पानी
में धकेल देता है, जब चेला डूबने को
होता है, तभी बचाता है।
गुरु को ज्ञान है कि-
जब तक उसे अकेला नहीं छोड़ेंगे
वह तैरना नहीं सीख पायेगा।
तुम्हारे अंदर स्थित अज्ञान, राग, लोभ,
मोह, चिंता सप्त विकारों को मिटाता है।
जो बचाने, बतियाने वाले गुरू हैं.….
वर्तमान में उनके पीछे लाखों की भीड़ है,
कोई गुरू ताबीज बांट रहा है, कोई राख,
तो कोई भभूत दे रहा है। हमें लगता है
कि इन सब टोटकों से लाभ हो रहा है।
गुरू की बड़ी कृपा है। गुरू बचा
रहा है, वे हमारी रक्षा कर रहे है।
इन अनसिखे, अज्ञानियों चेलों को यह
पता नहीं है कि सच्चा गुरू तुम्हे मिटाएगा, बचाएगा कैसे? तुम्हें ताबीज से तम यानि अंधकार के बीच रखकर तुम्हे नहीं बचाएगा।
सदगुरु जानता है कि… यदि ये अब इस
जन्म में बच गए, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य
कोई नहीं होगा। सदगुरु चमत्कार नहीं
दिखाता वरन जन्म-मरण का चक्कर
मिटाता है।
अवधूत-अघोरी कहते हैं-
गुरू चक्कर और चमत्कार से मुक्ति
दिलाता है। अतः गुरू में पूर्णतः समर्पण
ही शिष्य का चित्र, चरित्र बदलकर जीवन
को इत्र से महकता है। गुरु चरण में अर्पण
से व्यक्ति स्वयं को दर्पण में देखने योग्य
बना लेता है।
सब धरती कारज करूँ,
लेखनी सब वनराय!
७ समुद्र की मसी करूँ,
गुरुगुण लिखा न जाये!!
कबीरदास जी ने गुरु की अरदास में लिखा..
सारी धरती को कागज, सभी वृक्षों की कलम और सात समुद्रों की स्याही बनाकर भी लिखें, तो भी गुरु का गुणगान नहीं किया जा सकता।
गुरुमन्त्र का महत्व….
गुरु द्वारा दिया गया गुरु मन्त्र स्वतः सिद्ध
होता है, क्योंकि गुरु-शिष्य परम्परा के
अनुसार शिष्य को मिला गुरुमन्त्र हमारे
पूर्वज गुरुओं द्वारा हजारों वर्षों से जपा-
अजपा होता है।
गुरुमन्त्र का निरन्तर जाप हमारे गुरुर
यानी अहंकार का नाशकर भाग्य के
कपाट खोल देता है।
गुरुगीता में कहा है कि.
गुरुकृपा से गुदा और गुर्दे में स्पंदन 
होकर मस्तक में मन्त्र गूंजता है-
“शिवोsम..शिवोsम” इस अजपा-जाप
से अनुभव कर कह सकोगे….
सुमिरन मेरा गुरु करे, मैं पाया विश्राम। 
परम गुरु भक्त परमहँस सन्त मलूकदास
कहते हैं- “प्रकटे आपे आप”…
यह सब सदगुरू के प्रति गहरी निष्ठा,
श्रद्धा और गुरुमन्त्र के जाप से ही
सम्भव है। इसलिए सबको सदगुरु से गुरु मन्त्र लेकर दीक्षित होना जरूरी है।
..
अघोरियों के लिए गुरु आदेश ही सर्वोपरि होता है, ये गुरु एवं शिवजी के अलावा
किसी की बात नहीं मानते।
अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसे मानने वालों को ‘अघोरी’ कहते हैं।
जाने- अघोरियों की 60 खास बातें, 
जिन्हें आप आज तक नहीं जानते…
【१】अघोरपंथ के प्रवर्त्तक-प्रणेता
स्वयं अघोरनाथ भगवान शिव माने जाते हैं।
【२】शिवपुराण, शिवोपनिषद आदि में कहा गया है कि भगवान शिव ने अपने 5 मुखों में एक को अघोरमुख कहकर स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था।
 【३】श्वेताश्वतरोपनिषद ३/५ केे अनुसार
रुद्र की मूर्ति को अघोरमुख, अघोरा
तथा मंगलमयी कहा गया है।
【४】 अघोर मुख यह शिवजी के पांच मुखों में से एक है।
【५】रुद्राष्टाध्यायी का अघोर मंत्र भी प्रसिद्ध है। अवधूत-अघोरियों के लिए कहते हैं कि-वह परम शिव भक्त होते हैं।
शिव ही साधे सब मिले, 
सब साधे सब जाएं।
【६】अघोरी अपने मन, मनोभाव भटकाने
वाली विचारधारा से तटस्थ रहना
पसंद नहीं करते हैं।
【७】अघोरी लोग भोलेनाथ की भक्ति में लीन होकर खुद को भौतिक सन्सार और समाज से एकदम अलग कर लेते हैं।
【८】अघोरी अक्सर गाते हैं-
भोले पर लगा दे, 
अबकी बार लगा दे।
हम हैं तेरी शरणा,
【९】खोजी ग्रन्थों के अनुसार
अघोरियों का इतिहास करीब
1000 वर्ष पुराना हैं।
【१०】अघोर शब्द की उत्पत्ति रहस्य….
अघोर पन्थ के मतानुसार अघोर शब्द
 मूलतः दो शब्दों ‘‘ और ‘घोर‘ से मिल
कर बना है जिसका अर्थ है, जो कि घोर न हो, कट्टर न हो, जिद्दी, क्रोधी, गुस्सेल न हो! अर्थात अघोर यानि सहज और सरल हो।
【११】प्रत्येक मानव जन्मजात शिशु रूप
में अघोर अर्थात सहज-सरल होता है।
【१२】हर बालक छोटी उम्र में शिव का
अघोर रूप होता है।
【१३】बच्चा जैसे-जैसे बड़ा और समझदार होता जाता है, वैसे-वैसे वह अंतर करना सीख जाता है और बाद में उसके अंदर विभिन्न बुराइयां और असहजताएं उसे घेरती जाती हैं। घर कर लेती हैं और वह अपने मूल प्रकृति यानी अघोर रूप में नहीं रह जाता।
【१४】कहने का आशय यही है कि एक अबोध बालक अघोरी स्वरूप ही होता है।
【१५】अघोर साधना के द्वारा पुनः अपने सहज और मूल रूप में आ सकते हैं
और इस मूल रूप का ज्ञान होने पर ही
मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
【१६】वाराणसी में क्रींकुण्ड अघोर सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र है।
【१७】अघोरियों के तीर्थ, आश्रम..
बनारस, रायगढ़, राजनांदगांव, डभरा 36 गढ़, उड़ीसा के कोरापुट, जयपुर के जंगल,
उड़िया में महानदी के विशाल पाट पर
स्थित हूमा या हुमा शिवालय और बिहार
के चंपारण, शिखरजी पर्वत के आसपास क्षेत्रों में अधोरियों की भरमार है।
【१८】अघोरियों का रूप सामान्य से काफी अलग होता है इसलिए बहुत से लोग उन्हें देखकर भयभीत भी हो जाते हैं।
【१९】अघोरी अपनी योग-साधना और
शिवभक्ति से अवधूत परमहंस बन
जाते हैं।
【२०】शिव के त्रिशूल पर टिकी काशी
के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का
गिरनार पर्वत भी अघोर सम्प्रदाय का
एक महत्वपूर्ण स्थान है।
【२१】गुजरात के जूनागढ़ को सन्यासी
साधुजन अवधूत भगवान दत्तात्रेय के
तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं।
【२२】अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरू माना जाता है।
【२३】अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव
का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय
के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया था।
【२४】अघोर पंथ के कुछ अनुयायी गुरु गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित मानते हैं तथा
पहले से प्रचलित बतलाते हैं
【२५】अघोर पन्थ की तीन शाखाएँ हैं-
(१) औघर या औघड़
(२) सरभंगी तथा
(३) घुरे नामों से प्रसिद्ध हैं जिनमें
से पहली में कल्लूसिंह वा कालूराम हुए,
जो बाबा किनाराम के गुरु थे।
【२६】काशी-बनारस में अघोरियों की आदि तप:स्थली मानी जाती है।
【२७】उज्जैन के विक्रम घाट पर अक्सर
कुछ अघोरी साधना करते मिल जाते हैं।
【२८】उज्जैन के विक्रम घाट पर कुछ प्राचीन सिद्ध अघोरियों की समाधियां शिंवलिंग रूप में स्थापित हैं।
【२९】महाकाल मंदिर के पिछवाड़े में 4 अघोरियों की समाधि शिंवलिंग रूप में हैं,
【३०】रावण रचित शिव तांडव नृत्य यह विश्व प्रसिद्ध है। यह  विनाश से संबंधित नृत्य माना जाता है। क्योंकि शिव इस तांडव को अपने अघोर रौद्र रूप में करते हैं।
【३१】अवधूत-अघोरपंथ के प्रमुख प्रचारक मोतीनाथ हुए जिनके विषय में अभी तक अधिक पता नहीं चल सका है। 
【३२】अघोरियों का संबंध शैव मत के पाशुपत के अतिरिक्त कालामुख संप्रदाय के साथ भी जोड़ते हैं।
【३३】अघोर दर्शन और मरघट साधना….
∆ अघोर साधनाएं मुख्यतः मुक्तिधाम, श्मशान घाटों और निर्जन स्थानों पर की जाती है।
∆ शव साधना एक विशेष साधना प्रक्रिया
है, जो केवल गुरु के आदेश पर किसी
विशेष तिथि, दीपावली की रात्रि में अथवा चंद्रग्रहण या सूर्य ग्रहण काल में की जाती है,  जिसके द्वारा स्वयं ही शिव मानकर
खुद के अस्तित्व का विभिन्न चरणों की प्रतीकात्मक रूप में अनुभव करते हैं।
∆ अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता
अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान
होते हैं।
【३४】कुछ-कुछ अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं  【३५】सिद्ध अघोरी नरमुंड पात्र में भोजन आदि ग्रहण करते हैं।
【३६】श्मशान साधना में मृतात्मा की चिता राख या  भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि अघोरियों के सामान्य कार्य हैं।
【३७】कुछ अघोरी शिव के भैरव रूप में साधना करते हैं। वह मांस-मदिरा भी
लेते हैं।
【३८】शिवजी के सरल साधक
शिव को उनके भैरव रूप में प्रसन्न कर उनसे शक्तियां प्राप्त करने के लिए अघोरी अलग-अलग तरह से साधनाएं करते हैं।
【३९】अघोरी द्वारा की जाने वाली ये साधनाएं भी सामान्य नहीं होतीं क्योंकि इन साधनाओं का समय, स्थान और विधियां कुछ अलग होती हैं।
【४०】अघोरियों का निराला स्वरूप
अघोरियों से भयभीत होने का कारण केवल उनका स्वरूप ही नहीं बल्कि उनकी जीवनशैली ही कुछ ऐसी होती है, जो
समाज में जिज्ञासा ओर डर-भय, दूरी
भी पैदा करती है।
【४१】जलती हुई चिताएं....
श्मशान में जलती हुई चिता से या कब्रिस्तान में दफन शव को निकालकर उसे कच्चा या पकाकर खाना तांत्रिक अघोरपंथ साधना की एक शाखा है।
【४२】शमशान में तंत्र क्रिया करने वाले इन साधुओं को तांत्रिक अघोरी बाबा कहते हैं।
 【४३】घोर अघोरी भैरव की साधना तब करते हैं, जब पूरी दुनिया सो चुकी होती है।
【४४】श्मशान में तांत्रिक पूजा…
बनारस में हरिश्चंद घाट पर स्थित
श्मशानेश्वर शिवालय पर अनेक अघोरियों
का साधना स्थल है।
【४५】मप्र के श्योपुर जिले के अंतर्गत केनाल के किनारे ढोंढर-रघुनाथपुर से आगे
पचनदा यानि 5 नदियों के संगम पर रामेश्वरम शिवालय तीर्थ, जो कि घनघोर जंगल में बसा है। यहां हमेशा तांत्रिक अघोरी मिल जाते हैं। विशेष तीज-त्योहारों पर ये शव-साधना से श्मशान सिद्धि करते हैं। रामेश्वरम का यह तीर्थ दिन में भी बहुत डरावना लगता है।
【४६】तन्त्र के ज्ञाता अघोरी रात के अंधेरे में श्मशान के भीतर बैठकर कंकालों और जलती हुई चिताओं के सामने अघोरी साधना कर अपने आराध्य को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।
【४६】बाबा कीनाराम के समय अघोर अनुयायियों में सभी जाति के लोग तथा  मुसलमान भी थे।
【४७】सन्सार में अघोर भक्तों, अनुयायियों की संख्या बेशुमार बताई जाती है।
【४८】विलियम क्रुक ने अपनी पुस्तक दि अघोरा में  अघोरपंथ के सर्वप्रथम प्रचलित होने का स्थान राजपुताने के आबू पर्वत को बतलाया है।  
【४९】अघोरियों के अनेक स्थान जैसे-बिहार, उड़ीसा, मेघालय, उत्तरांचल, असम नेपाल, गुजरात एवं समरकंद आदि घने वन में हैं।
【५०】अघोरी अपनी कठोर हठी शिवसाधना द्वारा भाव-विभाव, भेदभाव एवं घृणा को खत्म कर लेते हैं।
【५१】अपने को ‘अघोरी’ और औघड़’ 
बतलाने वाले साधु अधिकांशत: शवसाधना करना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना आदि में संग्लन देखे जा सकते हैं। 
 【५२】घोर अघोरियों का संबंध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़कर उन्हें कापालिक भी कहा जाता है।
 【५३】कपालिक परम्परा में मानव खोपड़ी के खप्पर में  मदिरा आदि सेवन किया जाता है
【५४】कुछ कपालिक हमेशा अपने पास मदकलश रखकर साधनारत रहते हैं।
【५५】अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी औघड़ों से भी मिलते-जुलते हैं,  जो गुरु मछन्दरनाथ नाथपंथ के प्रारंभिक साधकों में गिने जाते हैं। हालांकि अघोर पंथ के साथ इनका कोई भी संबंध नहीं है।
【५६】अघोरियों में निर्वाणी और गृहस्थ दोनों ही होते हैं।
【५७】अघोरी की वेशभूषा में भी सादे अथवा रंगीन कपड़े होने का कोई कड़ा नियम नहीं है।
【५८】अघोरियों के सिर पर जटा, गले में स्फटिक की माला तथा कमर में घाँघरा और हाथ में त्रिशूल रहता है जिससे दर्शकों को भय लगता है।
【५९】आजकलअघोर पन्थ की ‘घुरे’ नाम की शाखा के प्रचार क्षेत्र का पता नहीं चलता किंतु ‘सरभंगी’ शाखा का अस्तित्व विशेषकर चंपारन जिले में दीखता है जहाँ पर भिनकराम, टेकमनराम, भीखनराम, सदानंद बाबा एवं बालखंड बाबा जैसे अनेक
अघोरी आचार्य हो चुके हैं। 
 
【६०】कई अघोरियों की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, लेकिन आम आदमी इनसे अपरिचित है। 
 
गुरु पूर्णिमा का महत्व क्या है...
सनातन धर्म पंचांग के अनुसार पूर्णिमा
प्रत्येक माह आती है। लेकिन आषाढ़ मास
की शुक्ल पक्ष को गुरु पूर्णिमा इसलिए
विशेष है क्योंकि इस दिन कलयुग के
आदिगुरु श्री वेदव्यास जी का जन्म
हुआ था। गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा
बही कहते हैं।
शिव भक्त ऋषि पराशर के पुत्र महर्षि वेदव्यासजी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे।
उप्र का कालप्रिय तीर्थ इनकी 
जन्मभूमि है, जो आज का कालपी है।  
शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव जी
द्वारा रचित आदिकालीन
श्रुति वेदों को चार भागों में
【१】ऋग्वेद,
【२】यजुर्वेद,
【३】सामवेद और
【४】अथर्ववेद
विभाजन, सम्पादन लेखन करके
व्यासजी ने गुरु पूर्णिमा के दिन विश्व के
वैदिक धर्माचार्यों को समर्पित किया था।
वेदों को श्रुति क्यों कहते हैं
ऐसी मान्यता है कि इसके पहले वेद
लिखित में नहीं थे। वेदों को श्रुति कहा
गया है, क्योंकि यह करोड़ों वर्ष पुरानी
परम्परा के हिसाब से सदगुरु अपने शिष्यों
को कण्ठस्थ कराते थे। केवल याद करने
और सुनने के कारण वेद श्रुति ग्रन्थ कहे
गए। यह भ्रम या झूठी बात है कि
ऋषि व्यास ने वेदों की रचना की थी।
 
गुरुमन्त्र से आती है सिद्धियां...
महानिर्वाणतंत्र: उल्लास-६,
पद-६७/१६८ और अंक प्रतीक
कोष-७९ आदि ग्रंथों में उल्लेख है-
मंत्राणा देवता प्रोक्ता देवता गुरुरुपिणी।
अभेदेन भजेद्यस्तु तस्यसिद्धिरनुत्तमा।
गुरु शिरसि सन्चिंत्य देवता हॄदयाम्बुजे।
रसनायां मूलविद्या विद्या तेजोरुपा ..आदि
कैसे करें मन्त्र का जाप….
इस श्लोक में सदगुरू से प्राप्त दीक्षा मन्त्र
के जाप का विधान बताया है। लिखा है कि.
सदगुरू और सदाशिव का शरीर के विभिन्न
अंगों पर अधिष्ठान है यानि स्थित है,
इसलिए गुरु का ध्यान हमेशा मस्तक में,
शिव का ध्यान ह्रदय में तथा गुरुमन्त्र या
अन्य मन्त्र का ध्यान जिव्हा पर होना चाहिए।
इन तीनो का एकीकरण होने पर कुण्डलिनी
जागरण होकर शीघ्र ही सिद्धि और सम्पत्ति मिलती है।
बाबा हरिदास कहते थे...
गुरु की शरण और चरण में चारों धाम,
आठों याम, राम-श्याम तथा सभी
काम-दाम है। बिना गुरु कृपा के
जीना हराम हो जाता है। अतः
किसी ताम-झाम में पड़कर सदगुरू के
प्रति, शिव से भी ज्यादा श्रद्धा बनाये रखें।
एक गूढ़ गुरु ज्ञान यह भी है कि...
मन्त्र का जाप अपनी नाभि में एकत्रित
यानि स्टोर करने चाहिए। मतलब सीधा सा
यह है कि..मन्त्र जपते समय ऐसा एहसास करें कि मन्त्र हमारी नाभि में इकट्ठा हो रहा है।
क्या आपको मालूम है कि-गुरुबिन 
जप-पूजा-अनुष्ठान का फल नहीं मिलता?
शिवपुराण के प्रथम अध्याय में महादेव,
महाशक्ति को समझा रहे हैं कि- निर्गुरे
व्यक्ति को ॐ का जप करने का
अधिकार नहीं है।
बिना गुरु बनाये, जो भी पूजा-पाठ,
यज्ञ-अनुष्ठान किये जाते हैं, उनका
कोई फल नहीं मिलता।
अवधूत-अघोरियों के मुताबिक
जब लग नाता जगत का,
तब लग भगति न होय।.
बिना गुरु वाले तथा प्रार्थना से दूर
व्यक्ति को परमात्मा दरिद्र-दुखी
बना देता है। गुरु के बिना सब
प्रार्थनाएं अनसुनी हो जाती हैं। सारे
प्रपंच पूजा-पाठ, कर्मकांड, अभिषेक,
छप्पन भोग एवं फूलबंगला आदि अर्पित
करने का फल पूर्णतः प्राप्त नहीं होता।
सदगुरु की पूजकर, सबकी पूजा होय...
गुरुभक्ति से शिष्य के सम्पूर्ण दोषों का
नाश, प्रारब्ध के पापों तथा जन्म-मरण
की प्रक्रिया का संहार हो जाता है। फिर,
गुरु में शिव और शिव में गुरु के दर्शन
का सौभाग्य मिलता है, इसीलिये
गुरु को ब्रह्मा-विष्णु-महेश पारब्रह्म,
परमपिता और परमात्मा स्वरूप
बताया गया है।
गुरु को समर्पित प्रसिद्ध श्लोक है..
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः 
गुरुदेवो महेश्वरा!
गुरु साक्षात परब्रह्म 
तस्मै श्रीगुरवे नमः!!
इसके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं-
पहली बात तो यह है कि गुरु मूर्ति में
जगत के तीनों पालनहारों का वास है।
सदगुरू के ध्यान, और गुरुमन्त्र के जाप
से जीवन में १०० फीसदी परिवर्तन होता है।
गुरुवाणी के द्वारा जीव के अंदर ज्ञान की
गति का भाव उत्पन्न होता है।
ज्ञान का अंकुर फूटने से ही गुरु ब्रह्मा का स्वरूप है। जब शनै-शनै गुरु के उपदेशानुसार जीव, जब निवृत्ति मार्ग की और जाने लगता है, तब अंकुरित स्वरूप उस वृक्ष से ज्ञान रूपी चार स्कन्द एवं चार गोदे चार वेद कहलाते हैं। जब उसी गोदों से शाखाएं फूटती हैं,
वह १८ पुराण कहे जाते हैं। ऐसे अनंत
ज्ञान की अनुभूति होने पर सदगुरू शिष्य
के लिये विष्णु स्वरूप हो जाता है।
गुरुरेकोजगत्सर्वं ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मकम!
गुरो परतरं नास्ति तस्मात् सम्पुज्येत गुरूम!!
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तीनो गुरु में
समाहित हैं। ब्रम्हा… माता-पिता है
इसलिए ये जगत की रचना करते हैं।
जैसे….माता-पिता हमारी रचना करते है
अतः ब्रम्हा को संसार (सांसारिक) कहा है इसलिए ब्रह्मा की पूजा निषेध है।
विष्णु – भंडारी है जिन्हें भंडार भरने में आनंद आता है। सभी कहते है लक्ष्मी जी
का भंडार भरपूर रहे।  विष्णुजी का नहीं
है ये संसार पालक है। पालने के कारण
पूज्यनीय है।
विश्व के हर अणु के मालिक विष्णुजी हैं,
इसलिए इन्हें विश्व+अणु= अर्थात विष्णु
कहा जाता है। ये सृष्टि ने कण-कण के रक्षक-पालक हैं। मोह माया लोभ-लालच
में ललचाना इनका काम है।
महेश अर्थात शिव। शिव का अर्थ है
कल्याण! जो सबके भले व परोपकार की
भावना रखते हैं, वे ही शिव उपासक हो
सकते है।
जाने आदि अवधूत-अघोरी बाबा कीनाराम की राम कहानी और उनके द्वारा रचित ग्रन्थ....
 अघोर सन्त कीनारामजी का जन्म बनारस जिले के रामगढ़ गाँव में हुआ था। बाल्यकाल से ही शिवभजन में मस्त एवं विरक्त भाव में रहते थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की…
 विवेकसार उज्जैन में शिप्रा के किनारे बैठकर लिखा था।
विवेकसार’ इस पंथ का एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें बाबा किनाराम ने आत्माराम की वंदना और अपने आत्मानुभव की चर्चा की है। उसके अनुसार शिव ही सत्य वा निरंजन है जो सर्वत्र व्यापक और व्याप्य रूपों में वर्तमान है और जिसका अस्तित्व सहज रूप है। ग्रंथ में उन अंगों का भी वर्णन है जिनमें से प्रथम तीन में सृष्टिरहस्य, कायापरिचय, पिंडब्रह्मांड, अनाहतनाद एवं निरंजन का विवरण है; अगले तीन में योग साधना, निरालंब की स्थिति, आत्मविचार, सहज समाधि आदि की चर्चा की गई है।
गीतावलीरामगीता आदि प्रसिद्ध हैं।
इन दोनों ग्रन्थों में संपूर्ण विश्व के ही आत्मस्वरूप होने और आत्मस्थिति के लिए दया, विवेक आदि के अनुसार चलने के विषय में कहा गया है।
बाबा कीनाराम जी ने पहले बाबा शिवाराम वैष्णव से दीक्षा ली थी, किंतु वे फिर गिरनार के एक परमहंस अवधूत से प्रभावित हो गए। उन महात्मा को प्राय: गुरु दत्तात्रेय समझा जाता है। जिनके विषय में इन्होंने स्वयं भी कुछ संकेत किए हैं। अघोरी कीनाराम अंत में ये काशी के बाबा कालूराम के शिष्य हो गए और उनके सानिध्य में क्रीं कुंड पर रहकर इस अघोरपंथ के प्रचार हेतु प्रयास करने लगे।
 
वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है। काशी के अतिरिक्त गुजरात के जूनागढ़ का गिरनार पर्वत भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। जूनागढ़ को अवधूत भगवान दत्तात्रेय के तपस्या स्थल के रूप में जानते हैं। वाराणासी में क्रींकुण्ड अघोर सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र है।
हरिहरपुर का महाकाली….
बाबा किनाराम ने इस पंथ के प्रचारार्थ रामगढ़, देवल अघोर आश्रम बनाये।
गाजीपुर जिले के हरिहरपुर ग्राम
हथियाराम शैव मठ के पास आज भी महाकाली की स्वयम्भू मूर्ति है, जिसकी देखभाल वर्तमान पीठाधीश्वर हठयोगी भवानी नंदन यतीजी के अधिनस्थ है।
अघोरपंथ का महान मठ...
बनारस क्रींकुंड पर क्रमश चार मठों की स्थापना की जिनमें से चौथा प्रधान केंद्र है।
जून मास में सन् १८२६ में बाबा ने समाधि ली। जहाँ हर वर्ष जून महीने में देश-दुनिया के अवधूत-अघोरी सन्त कीनाराम जी की पुण्यतिथि पर एकत्रित होते हैं। इस पंथ को साधारणतः ‘औघढ़पंथ’ भी कहते हैं।
क्या कहानी है-क्रींकुण्ड की…
क्रींकुण्ड से ही एक और शाखा का उदय 1916 में हुआ जो अपने को बहुत ही गुप्त एवम शांत तरीके से चकाचौंध से दूर ,फकीरी कुटिया के रूप में हुआ। क्रींकुण्ड के छठे पीठाधीश्वर बाबा 108 श्री जय नारायण राम जी महाराज के प्रिय शिष्य अघोराचार्य बाबा 108 श्री गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज, जो कि
एक कायस्थ कुल में जन्मे हुए थे।
 बाबा जय नारायण राम जी महाराज ने गुरु दक्षिणा में अपने प्रिय शिष्य बाबा गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज से तीन चीज माँगा…
1- प्रथम अघोराचार्य बाबा 108 श्री कीनाराम जी महाराज की तीनों पांडुलिपियों को छपवाकर प्रचार प्रसार करने की जिम्मेदारी
दूसरा–आप अपने नाम के अंत मे आनन्द लगाए!
 और तीसरी उनके बाद क्रींकुण्ड की महंती को स्वीकार करना।
बाबा गुलाब चन्द्र आनन्द जी महाराज भी अपने गुरु की तरह बहुत ही दुर्दशी थे अतः उन्होंने पहले दोनों बातो के लिए तुरंत ही अपनी सहमति दे दी।
 परन्तु क्रींकुण्ड पर सातवे महन्त के रूप में पीठासीन होने की बात बड़े ही विनम्रता से मना कर बोला कि- जिस स्थान पर हमारे गुरु विराजमान हो, उस स्थान पर अघोराचार्य
बनकर पद पर बैठना उनके जैसे तुच्छ शिष्य की सामर्थ्य में नही है।
हमें तो आपका आशीर्वाद एवम फकीरी चाहिए। यह कहकर उन्होंने अपने गुरु एवम क्रींकुण्ड के छठवें महन्त अघोराचार्य बाबा 108 श्री जय नारायण राम जी महाराज की खड़ाऊ अपने निज भवन सेनपुरा चेतगंज वाराणसी में लाकर अघोर की आराधना में लीन हो गए और करीब 700 से ज्यादा किताबे लिखी जिनमे से आज भी कुछ
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) के पुस्तकालय (लायब्रेरी) में संग्रहित हैं।
बाबा के चमत्कार से नतमस्तक…
ऐसी ऐसी सिद्धियां अर्जित करके मानव समाज के भलाई के कार्य किये।किसी को जिंदा कर देना तो कभी नाराज होने पर किसी को लड़का से लड़की बना देना छड़ी मारकर तो कभी गोरखपुर में आग लगे तो निम के पेड़ में पानी डाल दे तो आग वभ बुझ जाए और न जाने कितने अनगिनत चमत्कार किये। इन्हें तो बस अपने गुरु की भक्ति एवम फकीरी चाहिए थी सो इन्होंने बहुत विरला ही शिष्य बनाये। परन्तु इनके समाधि के बाद बाबा गोपाल चन्द्र आनन्द जी महाराज ।फिर बाबा राधेकृष्ण आनन्द जी एवम वर्तमान में बाबा लाल बाबू आनन्द जी अघोर सम्प्रदाय की साधना करते हुए क्रींकुण्ड के बाबा छठे पीठाधीश्वर अघोराचार्य बाबा जय नारायण राम जी महाराज की वन्दना करते हुए इस परंपरा को क्रियान्वित कर है।
अघोर संप्रदाय के एक महान तपस्वी संत के रूप में बाबा कीनारामजी की पूजा ज्यादा होती है। इन्होंने अनेक चमत्कार दिखाए थे। अघोर संप्रदाय के लोग शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
बिखरी अनसुलझी कहानियाँ...
@ एक अघोर साधक के मुताबिक
विदेशों में, विशेषकर ईरान में, भी ऐसे पुराने मतों का पता चलता है तथा पश्चिम के कुछ विद्वानों ने उनकी चर्चा भी की है।
अघोर पंथ, नर भक्षण और भ्रांतिया
अघोर संप्रदाय के साधक मृतक के मांस के भक्षण के लिए भी जाने जाते हैं। मृतक का मांस जहां एक ओर सामान्य जनता में अस्पृश्य होता है वहीं इसे अघोरी एक प्राकृतिक पदार्थ के रूप में देखते हैं और इसे उदरस्थ कर एक प्राकृतिक चक्र को संतुलित करने का कार्य करते हैं। मृत मांस भक्षण के पीछे उनकी समदर्शी दृष्टि विकसित करने की भावना भी काम करती है। कुछ प्रमाणों के अनुसार अघोर साधक मृत मांस से शुद्ध शाकाहारी मिठाइयां बनाने की क्षमता भी रखते हैं। 
 
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की जय-जय हो-
अगस्त्य मुनि अघोर आश्रम उत्तरांचल
आप कभी केदारनाथ जाएं तो, गौरीकुंड से
काफी पहले मुख्य मार्ग पर “अगस्त्य मुनि” नामक स्थान पड़ता है। मेन मार्किट में महर्षि अगस्त्य के नाम से एक शिवालय है। इस शिंवलिंग पर केवल तेल चढ़ाया जाता है।
बताते हैं कि जब मुनि अगस्त्य पर शनि का प्रकोप आया, तो इसी शिवमन्दिर में शनिदेव की शान्ति हेतु 2 वर्ष तक अघोर साधना करते हुए, तेल द्वारा शिंवलिंग का रुद्राभिषेक किया था।
तभी से महर्षि मुनि अगस्त्य नाम पड़ा।
यहां अक्सर बहुत अघोरी रहते हैं।
कभी जाना हो, तो तेल अवश्य अर्पित करें।
सदैव सूर्यपुत शनिदेव की कृपा बनी रहेगी।
इतिहास के पन्नों में दफन एक हैरंतगेज घटना गणपति के अघोरी रूप ने फैलाया था-संहार…
शिवपुत्र श्री गणेश का तांडव रूप
लेकिन क्या आप जानते हैं एक अघोरी द्वारा गणपति को भी तांडव रूप में प्रस्तुत किया गया था जिसने एक पूरे परिवार का सर्वनाश कर दिया। ये कहानी शुरू हुई थी वर्ष 1765 में जब भारत में पेशवाओं का साम्राज्य काफी चर्चित था और गद्दी पर बैठे पेशवा थे सवाई माधवराव।
यह पूरी जानकारी हेतु अलग से एक
ब्लॉग में दी जावेगी….
अगोरी की तिजोरी से दुर्लभ ज्ञान
चार युगों में कैसे बदला मानव
इसे बहुत आराम से पढ़ें….
क्या है-ब्रह्म, धर्म, कर्म और भ्रम…
【1】सतयुग में केवल ब्रह्म यानि शिव
का दौर था। लोग उस समय केवल शिव
को ही गुरुु या सब कुछ मानते थे।
~ सतयुग में शिव ही ब्रह्म था।
शिव ही सबका सदगुरु था।
शिव गुरु कृपा से हर कोई ब्रह्मज्ञानी था। शिवपुराण में आया है कि शिंवलिंग गुरु
का ही प्रतीक स्वरूप है।
~ भक्तों-साधकों के विशेष आग्रह
पर भगवान शिव ने गुरु के प्रतीक रूप
में शिंवलिंग की स्थापना की थी।
जबसे यह परम्परा चली कि-
सद्गुरु की समाधि के बाद, उस स्थान
पर शिंवलिंग स्थापित कर देते हैं।
~ शिंवलिंग गुरु का ही एक रूप है।
आपने देखा होगा कि साधु-सन्यासी
की समाधि, देहत्याग या मृत्यु के बाद
उस स्थान पर शिंवलिंग
की प्राण-प्रतिष्ठा करा दी जाती है।
यो गुरु:स शिवः प्रोक्तो य:शिव:स गुरुस्मृत:!
अर्थात… जो गुरु हैं, वही शिव हैं और जो
शिव हैं, वे ही सदगुरू हैं। दोनों में अंतर
मानने वाला घोर गरीबी में जीता है।
शिवपुराण आदि उपनिषदों में शिंवलिंग
को सदगुरू का स्वरूप बताया है।
दुनिया में जहाँ भी सुप्रसिद्ध शिंवलिंग
या स्वयम्भू ज्योतिर्लिंग हैं, वे सब कठोर
शिवभक्त साधकों के समाधि स्थल है।
भोलेनाथ ने उस जगह दर्शन देकर
ज्योतिर्रूप में शिंवलिंग में समाहित हो गए।
स्कंध पुराण में ऐसे चौरासी हजार शिवलिंगों
का उल्लेख चौथे खण्ड में है। इसमें से हजारों
शिवमंदिरों का जीर्णोद्धार परम शिव भक्त
ऋषि परशुरामजी न करवाया था।
【2】फिर आया त्रेतायुग..
इस युग में धर्म का बोलबाला बढ़ा।
हर कोई प्राणी धार्मिक था। चारो तरफ
केवल धर्म की चर्चा होती थी। गुरूवाक्य
सर्वोच्च था। अधिकांश उपनिषदों की
रचना त्रेतायुग में हुई।
परम शिवभक्त महर्षि अष्टावक्र 
जो कि राजा दशरथ के गुरु थे,
इनके द्वारा रचित ग्रन्थ “अष्टावक्र गीता”
इसी युग में लिखा गया था।
त्रेतायुग में सदगुरू और शिंवलिंग
पूजा का ही विधान था।
महादेव की महानता....
महादेव एक ऐसे देवता हैं, जिन्हें कभी
किसी से कोई मतलब नहीं है। यह निष्काम,
निस्वार्थ भाव से अपने में तल्लीन हैं।
ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण नकारात्मक
ऊर्जा, दुःख-दारिद्र के मालिक हैं।
सृष्टि की सारी निगेटिव ऊर्जा को
सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करने
का अधिकार इनके पास है।
इसीलिए कहा गया…
भावन्ही मेट सकें त्रिपुरारी
सदाशिव बड़े से बड़े दुःख तकलीफ
को पलभर में मिटा सकते हैं।
हानि-लाभ, जीवन-मरण,
सुख-दुख विधि हाथ !
इन ६ चीजों में बदलाव का अधिकार
विधि यानि शिव जी के पास है।
ये सुपर महा कम्प्यूटर तथा सॉफ्टवेयर
के आविष्कारक एव रचनाकार हैं।
महादेव का भी मोबाइल नम्बर,
वेबसाइट, ईमेल एड्रेस भी है
इसकी जानकारी
आगे के लेखों में दी जावेगी।
शिव” सबसे बड़ा हत्यारा....
यह बात कुछ अटपटी लगेगी, लेकिन
शिव की तरह सत्य है। सन्सार में शिव
को ही सत्य और सुंदर माना गया है।
इसलिए ही इन्हें सत्यं-शिवं-सुंदरम
कहा गया।
जो व्यक्ति एक या दो लोगों को मारता है,
उसे लोग हत्यारा कहते हैं। 100-50
लोगों को मारने वाले को वीर सिपाही
कहकर, सेना में सम्मान दिया जाता है
और जो सम्पूर्ण जीव-जगत का संहार
करता है, उसका नाम महाकाल शिव है।
फिर आया द्वापर युग
【3】द्वापर युग..में कर्मयोग सब कुछ था…इस युग में कर्म पर जोर दिया गया।
गीतासार के माध्यम से
कर्मयोगी भगवान कृष्ण ने प्रेरित
किया कि केवल कर्म करो- फल की इच्छा मत करो। कर्म के द्वारा सारे मर्म, दुःख-दर्द दूर किये जा सकते हैं।
कर्मों के द्वारा नये-नये अविष्कार का चलन इसी युग में अधिक हुआ। हम कर्म के रहस्य को जानने का प्रयास नहीं करते। जीवन की रक्षा, समाज, देश, विश्व और इस जीव-जगत
भला करने के लिए कर्म करना अति आवश्यक था।
दुःख की वजह भी कर्म है….
 यह भी सत्य है कि दुखों की उत्पत्ति का कारण भी कर्म ही है। कर्म करते-करते व्यक्ति से कुकर्म और पाप भी हो जाते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में
शुभ कर्म को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
कर्म के द्वारा ही शिव, गुरु और
ईश्वर की प्राप्ति संभव है।
कर्मयोग का वैदिक सिद्धान्त…
कर्मयोग सिखाता है कि कुछ भी अच्छा
पाने के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म
करो। कर्मयोगी को कर्म करना अच्छा
लगता है, इसलिए वह कर्म करता है।
वह कभी भी कर्म का त्याग नहीं करता। कर्मयोगी केवल कर्मफल का त्याग करता है। वह कुछ पाने की चाह नहीं रखता।
कर्मयोगी दाता के समान होता है, वो किसी से कुछ मांगता नहीं है। कुछ पाने की चेष्टा नहीं करता। सदगुरु ऐसा होना चाहिए।
!ॐ शिव कल्यानेश्वराय नमः! ……
कर्म सबके कल्याण के लिए
हमेशा करते रहना चाहिए।
वेद के अनुसार गुरु और शिव का एक अर्थ कल्याण भी है, जो लोग कल्याण या भला करने का भाव नहीं रखते, उन्हें
गुरु के चरण में तथा शिव की शरण
में स्थान नहीं मिलता
【4】भ्रम का दौर...
कैसे कलयुग में फैलना शुरू हुआ..भ्रम
यह कलयुग है। चारो तरफ केवल भ्रम ही भ्रम फैला हुआ है।
चित्रकूट के अवधूत
सन्त शंकरानन्द जी कहते थे कि..
कलयुग में ज्यों-ज्यों व्यक्ति ईश्वर से
दूर होता जाएगा, अश्रद्धा, तन्त्र-टोटके,
बिना मेहनत, जुगाड़ की कमाई तथा
कम कर्म और फल की अधिक इच्छा
की वजह से हर प्राणी में
भ्रम की भरमार होती चली जायेगी
किसी को भी मानसिक शांति नहीं मिलेगी।
लोगों के चित्र-चरित्र बिगड़ जाएंगे।
अतः वर्तमान में भ्रम को दूर करने का
एक मात्र उपाय है…
भगवान शिव की शरण में जाना।
¶ अन्य पंथ एवं धर्म व्यवसाय का
रूप ले लेंगे।
¶ कथा वाचक धर्म की कम,
मृत्यु की चर्चा ज्यादा करेंगे।
¶ दुनिया में रोगों का रायता
फैलता चला जायेगा।
¶ शहरी साधु-सन्त ममता आसक्ति,
राग, द्वेष-दुर्भावना, दुष्टता को फैलाने
में माहिर हो जाएंगे।
दुखों को बटोरने वाले नहीं मिलेंगे।
¶ भयंकर महामारियां, बीमारियां,
संक्रमण, वायरस फैलेंगे।
शिव और शव में अन्तर…..
जीवित शरीर में अग्नि यानि
शिव का वास होता है।
शिव शब्द में से छोटी
“इ” की मात्रा हटाते ही व्यक्ति
शिव से “शव” हो जाता है। 
प्राणी के शिव से शव 
होते ही उसे अधिकतम
24 घण्टे के अन्दर उसे मुक्तिधाम ले
जाकर उसका दाह संस्कार कर देते हैं।
~ “छोटी इ की मात्रा” …
हमारी अग्नि रूपी इकार शक्ति है
जब यह इकार शक्ति
विकारयुक्त होकर दूषित हो जाती है,
तब यह आशा, तृष्णा, इच्छा, वासना,
कामना, मनोविकार, भय-भ्रम, लोभ-मोह
अहंकार, दुःख-दारिद्र, गरीबी, रोग-बीमारी,
ग्रह दोष, गृह क्लेश, राग, द्वेष-दुर्भावना, बेईमानी, अशांति आदि तकलीफ,
परेशानी उत्पन्न होने लगती हैं।
गुरु गीता ग्रन्थ में उल्लेख है कि…
व्यक्ति जैसे-जैसे सदगुरू और सदाशिव
से दूर होता चला जाता है,
उसके जीवन में कष्टों का अंबार
लगने लगता है।
गुरुमन्त्र के लगातार जाप से इन सब ताप-तकलीफ से मुक्ति मिल सकती है।
अवधूत की अमृतम भभूत...
अवधूत-अघोरियों का पूर्ण विश्वास है,
सदगुरू में ही शिव का वास होता है..
बड़े-बड़े परम योगियों ने, महायोगियों-
अवधूतों,अघोरियों ने अंतर्मुखी होकर,
अंतरात्मा की साधना करके गुरु को नाद
रूप में और ज्योतिर्लिंग एवं ज्योतिर्रूप में मूलाधार चक्र से ऊपर उर्धगामी यात्रा में
अपने गुरु का व्यापक रूप का, उनके
चमत्कार का अनुभव किया है। गुरु में ही
शिव एवं अपने इष्ट के दर्शन पाए हैं।
महावेज्ञानिक महादेव ही मस्तिष्क को 
मनोविकार रहित बना सकते हैं...
मन को शान्त और प्रसन्न रखने के लिए
भोलेनाथ का ध्यान, स्मरण अत्यंत
लाभकारी है।
अपनी आत्मा रुपी ज्योति को जलाए
रखने हेतु गुरु से भावविभोर होकर
प्रार्थना करें कि…
हे सद्गुरु स्वरूप शिव!
गुणों के गणित में
वृद्धि करने वाले गुणातीत,
भय-भ्रम भगाकर,
भाग्योदय करने वाले
हे सदगुरू!
आप कालातीत हैं।
महेश्वर से कहकर-
¶ मुझे महाएश्वर्य दिलवा दो।
मुझ पर दया करो।
¶ मेरे मन में सदैव शुभ-शिव संकल्प,
शुभकामना का उदय हो।
¶ मेरा जीवन मंगलमय हो।
¶ मेरे मन के सभी सन्ताप मिटा दो।
¶ धर्म-दर्शन शास्त्रों में बताया है कि…
जीवन का दर्शन, गुरुअर्चन में है।
¶ मेरे परिवार व बच्चों की रक्षा करो।
बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी 
किस युग में कोंन गुरु-
स्कन्ध पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण,
अग्नि पुराण में व्यासजी से पहले
१– सतयुग में महादेव को आदिगुरु
बताया गया है। लेकिन
२– कलयुग के आदिगुरु वेदव्यास
कहे जाते हैं।
३-द्वापर युग के गुरु भगवान श्रीकृष्ण थे।
४–  त्रेतायुग में परशुराम जी,
५– शुक्राचार्य,
६– ऋषि अगस्त,
७– वशिष्ठ ऋषि
आदि बहुत से गुरु थे।
 हरिवंशपुराण में लिखा है कि...
जिनके गुरु नहीं हैं, वे लोग भगवान
शिव या महर्षि वेदव्यास को अपना
गुरु मानकर
 !!नमःशिवाय च शिवाय नमः!!
इस शिवशक्ति मन्त्र को अपना
गुरुमन्त्र मानकर जप सकते हैं।
हनुमानजी भी गुरुरूप में हैं
जय-जय-जय हनुमान गुसाईं!
कृपा करो गुरुदेव की नाईं !!
यह भी कलयुग में सृष्टि का सबसे
शक्तिशाली तारण गुरुमंत्र है।
गुरु से गति....
वैदिक हिंदी शब्दकोश में  अक्षर का
अत्यंत महत्व बताया है। ग से गाय, गुरु,
ज्ञान, गाँव, गणेश, गौरी शक्ति, गन्धर्व,
गण आदि शब्द ग से बनते हैं।
गुरु शरणागति छाड़ि कै,
करें भरोसा और।
सुख-सम्पत्ति की कहा चली,
नहीं नरक में ठौर।
गुरु गुणोत्कर्ष से भरा होता है।
गुरु में गुणों की प्रधानता होने से
ज्ञान की वैज्ञानिक व्याख्या गुरुमुख
से ही अच्छी लगती है।
मन-मस्तिष्क और अन्तर्मन की
गुत्थम-गुत्था… गुरु शरण में जाकर
ही समाप्त होती है
गुरु के प्रति बुरा भाव रखने वाले सदैव
अभाव में जीवन व्यतीत करते हैं।
गुरु के प्रति दुर्भाव का एक दुष्प्रभाव 
यह भी होता है कि…ऐसे शिष्य गुदारोग, बवासीर, ठंडी तासीर तथा अनेकों 
आधि-व्याधि से पीड़ित रहकर अपना 
प्रभाव खत्म कर लेते हैं।
गुरुज्ञान- यह भी है कि गूदेदार
पदार्थ के सेवन एवं
अमृतम पाइल्स की गोल्ड माल्ट
खाने से गुदा के रोग या बवासीर
आदि विकार नहीं होते।
गुरु से दूर व्यक्ति में सदा गुरुर रहता है।
गुरु बिन भजन हराम है..
● गुरु में ज्ञान का गूदा भर होता है।
● गुरु के गीत..गुनगुनाने से जीवन
गुदगुदा, हल्का हो जाता है।
● गुरुमन्त्र का जाप, ध्यान-साधना गुपचुप
तरीके से करने का विधान है।
● अपने गुरु मंत्र को अन्य किसी ओर
को न बताने का भी यही कारण है।
● बताने से शरीर की ऊर्जा क्षीण हो
जाती है।
● तप नष्ट हो जाता है।
शिवपुराण में लिखा है कि..
गुरु दीक्षा के पश्चात ही आप किसी
भी मन्त्र में ॐ लगाने के अधिकारी
हो सकते हैं।
निगुरा मोको न मिले,
पापी मिले हजार!
इक निगुरे के शीश पे,
लख पापी का भार!!
शिव रहस्योउपनिषद में कहा है कि..
जो लोग निरगुरे हैं, जिन्होंने गुरु
नही बनाये है तथा गुरु से दीक्षित नहीं हैं, जिनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, उन्हें तथा
स्त्रियों को ॐ की जगह मन्त्र में श्री
का प्रयोग करना चाहिए। बिना गुरु
दीक्षा के ॐ नमः शिवाय के स्थान पर
! नमःशिवाय च शिवाय नमः!
का जाप करना ज्यादा हितकारी होता है।
ॐकार का अधिकार केवल गुरु के पास
शिवपुराण प्रथम अध्याय में आया है कि..
सम्पूर्ण सृष्टि में ॐ अर्थात प्रणव ही मूलमन्त्र है। प्रणव मन्त्र के जप का अधिकार सबको नहीं है। केवल गुरु मुख से मिलने पर ही सर्वफलदायक, सिद्धिकारक होता है।
जब तक किसी के गुरु नहीं हैं, तब तक
!!ॐ नमःशिवाय!! को छोड़कर किसी भी मन्त्र में ॐ न लगावें।
गुरुपूजां बिना नाथ, 
कोटिपुण्यं वृथा भवेत।…..
¶ सदगुरू की विशेषता यह है कि वह कैसा
भी हो, कभी किसी को गुमराह नहीं करता।
¶ अघोरी गुरु तो गुमसा यानि सड़े-गले को भी गले लगाकर उसका भक्षण कर लेते हैं।
¶ गुरु के प्रति गुमान करने से शिष्य गुमनामी के गहन अंधेरे में गुप्त हो जाता है।
¶ गुरु के ज्ञान का अनुमान करना मतलब खुद को गुम करना है।
कवि रसाल के शब्दों में…
गुरुर व गुमान गयो, गुरु शरण पाएं के।
गुरु के ज्ञान को कभो गुमान या गवांना
नहीं चाहिए। गुरु अज्ञानी को, तो
आसानी से मिल सकते हैं….लेकिन अभिमानी को मिलना मुश्किल है।
अहंकार से साकार व्यक्ति को निराकार
के दर्शन असम्भव हैं।
कभी कालिदास, तुलसीदास,
वरदराज आदि ये कभी अज्ञानी लोग थे
लेकिन गुरू कृपा से परम ज्ञानियों के
रूप में जगतविख्यात हुए।
आयुर्वेद के ग्रन्थ भेषजयरत्नाकर
के हिसाब से अहंकार, सप्त-विकार
बढ़ाकर सात धतुओं का नाश कर देता है।
 
जहाँ आपा तहां आपदा, 
जहाँ संशय तहां रोग
यानि जब मनुष्य में घमण्ड हो जाता है, उस
पर आपत्तियों का पहाड़ टूटने लगता है और
रोगों की उत्पत्ति संशय, संदेह, शंका होती है वहीं रोग पैदा हो जाते हैं।
सोता साधु जगाइए, करें नाम का जाप!
यह तीनों सोते भले, साकित-सिंह और सांप!
अर्थात-
साधु भटक जाए, सोता मिले, तो उसे
जागृत करना जरूरी है, लेकिन सुप्त
अधर्मी, शेर एवं नाग को कभी न जगाए।
¶ गुरगा यानी शिष्य और गुप्तचर चेतन्य
होने पर ही कुछ पाते हैं अन्यथा गर्त में
चले जाते हैं।
¶ गुरु की सेवा और आदेश का पालन करने के लिए बड़ा गुर्दा चाहिए। गुरु द्रोणाचार्य ने
एकलव्य से अंगूंठा मांग लिया था। यह किस्सा हर कोई घिस्सा खाते हुए पहले
समय में लोग सुनाया करते थे।
गुणकारी गुरु..
आयुर्वेदिक औषधियों की तरह गुरु भी
गुणकारी होते हैं। शब्दकोश में गुरु का
अर्थ है- हर क्षेत्र में बहुत वजनदार प्राणी।
दूसरा है- लंबे-चौड़े आकार वाला,
भारी वजनी, कठिनाई से पकने या पचने वाला खाद्य पदार्थ।
कलयुग में कौन किसका गुरु....
वैसे तो आजकल सब गुरु हैं। कोई चेला
नहीं हैं। जिस पर टका यानि पैसा है,
वही सबकी नजर में पका है, पूर्ण है।
बिना टका सब थका-थका है। 
कलयुग में यदि मजाकिया लहजे में
गुरु की व्याख्या करें, तो गुरु का अर्थ कुछ
अटपटा सा है, वह गलत भी हो सकता है।
अन्धा-अंधे ठेलिया, दोनो कूप पड़न्त!
मुण्डकोउपनिषद १/२/८ 
अविद्या, अहंकार से भरे लोगों की स्थिति अंधे को अंधा रास्ता दिखाने वाली होती है।
गुरु का संधि-विच्छेद करने पर गु+रु अर्थात
गुरु दो शब्दों से मिलकर बनता है।
ग्रामीण भाषा में ‘गु’ का अर्थ गन्दगी, गू आदि भी है। ‘रु’ का अर्थ अरबी भाषा में शरीर बताया है। मतलब यही हुआ कि कलयुग में जिसके तन में जितनी ज्यादा गन्दगी भरी है, वह उतना बड़ा गुरु है। यह केवल एक व्यंग्य प्रतीक है।
इसलिए कबीरदास जी वर्षों पहले
लिख गए थे की….
फूटी आंख विवेक की,
लखे न सन्त-असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं,
ताको नाम महन्त।
बाबा बनना अब फैशन बन गया है।
गुरु गण एक बार में हजारों लोगों को एक साथ दीक्षा दी रहे हैं। रामनाम के सहारे
दुनिया भर का ताम-झाम फैलाकर
सीधे-सादे, सच्चे लोगों के साथ छल
किया जा रहा है।
सुमरित सूरत जगाय कर,
मुख से कछु न बोल।
बाहर का पेट बन्द कर,
अंदर का पेट खोल।।
कबीरदास जी कहते हैं, जो चुप है वही सच्चा सन्त है, जो बोल रहा है, वो भटका रहा है।
सन्त सच्चा है, तो कहीं अन्त मिलेगा।
जरूरी नहीं कि वो दाढ़ी-मूछों में हो घुटमुण्डा हो। लेकिन सत्य की राह पर टिका मिलेगा। कहा गया है कि…
साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय।
चाहें बोले केस रख, चाहे घोंट मुड़ाय।
परमात्मा सत्य के साथ ही। तुम चाहो जटा बढ़ाकर बोलो या मुड़ाकर। वेश-भूषा बदलने से इंसान नहीं बदलता।
¶ गुरुता अर्थात चालाकी से भरे व्यक्ति को
भी गुरु कहते हैं।
¶ अध्यापक, उस्ताद, चालक, धूर्त, घण्टाल,
 नाई, बहुत भारी इन्हें भी गुरु कहा गया है।
¶ सिख धर्म के जिस ग्रन्थ में गुरुओं के
उपदेश हैं, उसे गरूग्रंथ साहिब और
¶ गुरु के स्थान को गुरुद्वारा कहते हैं।
¶ एक ही गुरु के शिष्य गुरुभाई कहलाते हैं।
¶ गुरुमुख से प्राप्त मन्त्र गुरुदीक्षा होती है।
¶ सात वारों में एकदिन गुरुवार का होता है।
¶ गुरुकुल में शिष्यों को शिक्षा, अनुभव
प्रयोग सिखाये जाते हैं। यह पुरानी परम्परा थी, जब आचार्यों द्वारा वेद-पुराणों का
ज्ञान कराया जाता था।
¶ गुरु के गुर्राने से, चिल्लाने से, क्रोध करने
और समझाने से दुःखी नहीं होना,
अच्छे चेले की पहचान है।
¶ सच्चा गुरु कभी….गुलदस्ता, गुलाब फूल, गुल, गुलशन आदि अर्पित करने अथवा
गुलछर्रे उड़ाने, से कृपा नहीं करता।
¶ गुरु से जुड़ने के लिए गुरुमन्त्र का
अधिक से अधिक जाप जरूरी है।
¶ गुरु की गुलामी से बड़े-बड़े गुल्म रोग तथा तन-मन आत्मा की गन्दगी मिट जाती है।
सदगुरुओं द्वारा लिखित उपनिषद-ग्रंथों
में गुरुओं की महिमा का विस्तार से
व्याख्या की गई है।
गुरु कीजै दण्डवत, 
कोटि-कोटि परनाम….
■ महेश के गुरु शेषनाग
■ विष्णुजी के गुरु महादेव
■ काल यानि समय के गुरु महाकाल
■ देवताओं के गुरु बृहस्पति,
■ दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य
■ मां पार्वती के गुरु नारद जी
■ ब्राह्मणों के गुरु सन्यासी या महादेव
■ वैश्यों के गुरु शिव-भोलेनाथ
■ गुर्जर, कमरिया जाति के गुरु श्रीकृष्ण
■ क्षत्रियों के गुरु श्रीराम
■ शूद्रों के गुरु शिव-शंकर
गुरुओं की बहुत लंबी श्रंखला है।
बस इतना ध्यान रखें कि…..
[[]] वैश्य व क्षत्रिय जाति के लोगों को कभी कर्मकांडी विद्वान गायत्री उपासक ब्राह्मण
का अपमान नहीं करना चाहिए।
[[]] गायत्री को जपने वाला ब्राह्मण भी
गुरु समान होता है।
[[]] स्त्रियों को अपने पति के अलावा अन्य किसी को गुरु नहीं मानना चाहिए।
इससे धन की हानि होती है और कभी भी
[[]] स्त्रियों को किसी के भी समक्ष साष्टांग प्रणाम नही करना चाहिए,
इससे बच्चे कष्ट में रहते हैं।
[[]] महिलाओं को कभी भी हवन में आहुति नहीं डालना चाहिए, क्यों कि इससे धन की हानि होती है और वंश नहीं चलता।
यह सब रहस्यमयी जानकारी ईश्वरीयुपनिषद में बताई गई है।
जब तक किसी प्राणी को कोई ज्ञान नहीं है, तब तक कोई भी कर्म दोषपूर्ण नहीं माना गया है, किन्तु जानने के बाद पुनः गलती करना बहुत बड़ा पाप बताया है।
बलिहारी गुरु आपनो, 
घड़ी-घड़ी सौ सौ बार!
मानुष से देवत किया, करत न लागी बार!!
अर्थात- गुरु साधारण मनुष्य को भी अपने ज्ञान से देवता, ज्ञानी बना देता है।
कबीरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और!
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर!!
अर्थात- वे लोग अंधे हैं, जो गुरु को ईश्वर
से छोटा मानते हैं क्योंकि भगवान के रूठने
पर, तो गुरु सहारा हैं लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद जगत में कोई ठिकाना नहीं है।
राम रहे वन भीतरे, गुरु की पूंजी ना आस!
कहें कबीर पाखंड सब, झूठे सदा निराश!!
बिना गुरु की सेवा किये और बिना गुरुदीक्षा के जिन झूठे लोगों ने यह जान लिया कि…
राम तन में नहीं, वन में रहता है।
यह सब पाखंड है।
झूठे लोग परमात्मा को न खुद
ढूढ़ते हैं, न दूसरों को खोजने देते हैं।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय!
सार-सार को गहि रहे, थोथा देइ उड़ाय!!
अर्थात– साधु और शिष्य को ईश्वर का भजन के अलावा सब मोह-माया छोड़ देना चाहिये।
गुरु घासीराम जी, 
जो कबीरदास के मुख्य
शिष्यों में से एक हैं, इनका भी जन्म गुरुपूर्णिमा को ही हुआ था।
ये भक्तिकाल के सन्त थे।
क्या है चतुर्मास का महत्व…
गुरुपूर्णिमा वर्षाऋतु के आरम्भ में आती है।
ये समय साधु-सन्यासियों, परिव्राजक के लिए चतुर्मास का समय होता है। चतुर्मास का मतलब है कि 4 पखवाड़े अर्थात 2 महीने अथवा 4 महीने तक वे एक ही स्थान पर रहकर जप-तप, अनुष्ठान करते हैं। शिष्यों के लिए यह काल गुरुचरणों में भक्ति, सेवा और ज्ञान एकत्रित करने का होता है।
मंत्रों का विज्ञान या मन्त्र का साइंस….
पढ़ने के लिए
गुरु व्यास के वेदों में क्या है?…
सन्सार या ब्रह्माण्ड का हर रहस्य
एवं ज्ञान, वेदों में समाया हुआ है।
इसकी अकाट्य वैज्ञानिकता के कारण
करोड़ों वर्षों से इसका महत्व कम नहीं हुआ।
वेद एक प्रकार से भगवान शिव और
सदगुरुओं की वाणी है।
 ■ आयुर्वेद ऋग्वेद का ही अंश है।
 ■ यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है, इसमें
 युद्ध सम्बंधित सभी कला-कौशल,
 अणु-परमाणु, आदि की जानकारियां
 और शक्ति समाहित है।
 ■ सामवेद पूरा संगीत से भरा है। सन्सार का सम्पूर्ण गीत-संगीत, वाद्य यन्त्र तथा साज के राज्य छुपे हुए हैं। सामवेद का उपवेद
 गन्धर्ववेद है।
 ■ अथर्ववेद में धर्म-,अर्थ, काम-मोक्ष के
 रहस्य भरे पड़े हैं।
दक्षता पाने के लिए गए थे व्यासजी दक्षिण…
एक बहुत ही दुर्लभ और रहस्यमयी जानकारी यह भी है कि…महर्षि व्यासजी
ने इन वेद-पुराणों का लेखन कर
“श्लोकेश्वर शिंवलिंग” पर रुद्राभिषेक
करते हुए 54 दिन तक भोलेनाथ एवं
राहुदेव को सुनाया था।
कहाँ पर है श्लोकेश्वर शिंवलिंग-
यह शिंवलिंग दक्षिण भारत के तिरुपति
बालाजी मंदिर से 35 किलोमीटर दूर श्रीकालाहस्ती वायुतत्व शिवालय में स्थित
है। मन्दिर में प्रवेश करते समय बाहें हाथ
की तरफ यानी लेफ्ट हैंड पर एक छोटा
सा शिंवलिंग श्लोकेश्वर है।
कालसर्प-पितृदोष से पीड़ित थे-व्यास…
महर्षि व्यास जैसे गुरु भी राहु ग्रह
द्वारा निर्मित कालसर्प-पितृदोष से
पीड़ित थे, इसी कारण राहु की शांति
के लिए उन्होंने 54 दिन लगातार राहुदेव
की उपासना की थी। शेष जानकारी
कभी अलग लेख में दी जावेगी।
क्यों बनाया राहुकी तेल…..
जिंदगीभर बहुत भटकने के बाद
एक दिन काशी के शमशानेश्वर शिंवलिंग
के नीचे, नदी किनारे शिवधुन में तल्लीन था। तभी काले वस्त्र धारण किये हुए एक
अवधूत सन्त मेरे बगल में आकर
बैठ गए, कुछ समय शांत रहने के पश्चात
उन्होंने मुझे झकझोरा। दरअसल मैं उस
समय ध्यान मग्न था।
बाबा ने पूछा ?… किधर से आया है बेटा!
थोड़ा चेतन्य होते हुए मैंने अपना परिचय
दिया, वे बहुत समय तक मुझसे बतराते रहे।
करीब एक घण्टे पश्चात वहाँ से चलने लगे,
तो मैने उन सन्त को चरण स्पर्श किया।
कुछ देर मौन रहकर बाबा ने पेन-कागज
निकालकर कुछ लिखने का बोला।
सब कुछ लिखने के पश्चात बाबा ने
बताया कि यह एक चमत्कारी तेल
का फार्मूला है।
इस तेल के बनाने की विधि,
जलाने का समय, विधि-विधान से
करने पर जीवन में चमत्कार होने लगेंगे।
अमृतम ने नाम दिया राहुकी तेल:-
राहुकी तेल बनाने का विधान…
अवधूत बाबा के बताए मुताबिक हम
प्रत्येक महीने की पंचमी, या मास शिवरात्रि
को राहु की शांति के लिए उपयोगी जड़ीबूटियों जैसे-जटामांसी, देवदारु, नागवल्ली, नागकेशर, नागदमन आदि को जौकुट करके 16 गुने पानी में उबालते हैं।  फिर इसके काढ़े से शिंवलिंग का रुद्राभिषेक कराकर, उस काढ़े को
तिल के तेल में मिलाकर 7 दिनों तक
पकाते हैं। ठंडा होने के बाद इसमें
राहु-केतु एवं शनि की धातु वंग भस्म,
नाग भस्म, यशद भस्म तथा राहु के
पसंदीदा इतर गुलाब, चन्दन, आदि 7 सात
तरह की खुशबू मिलाकर पैक करते हैं।
इसके अलावा भविष्य-पुराण एवं
स्कन्द पुराण के अंतर्गत राहु के रहस्य
और दोष निवारण उपाय के अनुसार
राहुकी तेल का निर्माण कर पिछले
17 सालों से दीपदान भी कर रहे है।
राहुकी तेल के दीपक जलाने से लाभ-
घोर परेशानियों के पश्चात सन 2002 में
मुझे जब राहुकी तेल का घटक-योग बाबा
जी ने दिया, तो मैंने इसे तैयार कर नियम से
54 दिन तक नियम से 5 दीपक राहुकी तेल
के जलाना शुरू किया। करीब 2 महीने बाद
मुझे कुछ चमत्कारी फायदे दिखने लगे।
जबसे आज तक यह नियम बरकरार है।
होली, दीपावली, मास शिवरात्रि और
महाशिवरात्रि, हनुमान जयंती, गणेश चतुर्थी
जैसे उत्सवों के समय एक बार में करीब
100 से अधिक राहुकी तेल के दीपक
जलाए जाते हैं। इस पूजा प्रक्रिया से
जीवन में परिवर्तन भी हुआ।
इसके अलावा राहु से पीड़ित अनेकों
जातकों ने राहुकी तेल के दीपक जलाये,
तो उनका भी भाग्योदय हुआ।
राहुकी तेल के 54 दिन लगातार
राहुकाल में दीपक जलाने से निश्चित
रूप से राहु की कृपा होने लगती है।
ये बहुत से लोगों का अनुभव है।
राहु ही कालसर्प दोष के कारक ग्रह हैं।
अतः राहुकी तेल के दीपक
प्रज्जलित करने से निश्चित ही
कालसर्प-पितृदोष दूर होता है।
इस प्रयोग से अनेको कालसर्प दोष तथा
राहु पीड़ितों को आश्चर्यजनक लाभ हुआ है।
राहुकी तेल के बारे में उपरोक्त जानकारी देना जरूरी थी, क्योंकि 90 फीसदी लोगों की
मानसिक अशांति का कारण राहु ही है।
राहु हमेशा गुरु मंत्र के जाप से, गुरु की
सेवा से या फिर राहुकाल में राहुकी तेल
के दीपक जलाने से प्रसन्न होता है।
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Comments

One response to “केवल शिवजी को मानने वाले अवधूत-अघोरियों का अध्यात्म क्या है।”

  1. Sangita Darji avatar
    Sangita Darji

    From last 27 months my husband is suffering due to paralysis left side he can walk no grip in fingers
    Can he recover

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