एकादशी को रोगों से बचने के लिए चावल भूलकर भी न खाएं…क्यों?

भारतीय परम्परा लगातार चलने वाला और तन-मन-अन्तर्मन को स्वस्थ्य रखने वाला मार्ग है।

यह महान महर्षियों (प्रकृति वैज्ञानिक) की खोज है। हमारे ग्रन्थ थोपी हुई रूढ़ि नहीं है।

अगर तन्दरुस्त रहना है, तो प्राचीनता को ही सबसे बड़ी ओषधि मानकर चलें।

आयुर्वेदिक शास्त्रों एवं हरिवंश पुराण के अनुसार चावल यानि अक्षत और जौ को जीव मानते हैं।

भगवान शिव के महान भक्त महर्षि मेधा ने चावल और जौ के रूप में धरती पर जन्म लिया।

ऐसे ही परम् गुरुभक्त शनिदेव के आराध्य गुरु महर्षि पिप्लाद ने घनघोर तपस्या के फलस्वरूप महादेव से पीपल वृक्ष बनने का वरदान मांगा था।

आप कभी गौर करना कि दुनिया में पीपल के पेड़ के नीचे सर्वाधिक शिवलिंग होते हैं।

पीपल में ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों देवताओं का वास होता है।

पीपल के पत्ते नाग फन के आकार के क्यों होते हैं।

इस बारे में अलग लेख में बताया जाएगा।

अब अक्षत पर आते हैं…

एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त के सेवन करने जैसा माना जाता है।

मेधा हमारे ज्ञान, विवेक को भी कहते हैं। इसलिए ग्यारस के दिन चावल के भक्षण से बुद्धि भ्रष्ट कमजोर होने लगती है।

हमारे निर्णय सटीक नहीं बैठते।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया है कि- ब्रह्माजी के पसीने से एक बूंद गिरी, तो विशाल दांव बन गया और हदेव ..

कि भक्ति कर महाशक्ति शाली होकर उत्पात मचाने लगा, तब भोलेनाथ ने उसे शिवलिंग रूप अक्षत में वास करें।

साथ में यह भी कहा कि तुम्हारे पाप के कारण, तुम ग्यारस तिथि को कीड़े के रूप चावल में रहोगे।

इसलिए ऐसा मानते हैं कि ग्यारस के दिन चावल का सेवन कीड़े के खाने के बराबर हैं।

यह परंपरा उत्तर भारत में ज्यादा है, क्योंकि यहां वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले ज्यादा है।

यह भगवान विष्णु की धरती है। दक्षिण को सदाशिव भूमि मानते हैं।

महर्षि अगस्त्य ने इस शाप को दूर कर दिया था।

दक्षिण में परम्परा है कि- शिवालय के दर्शन के बिना अन्न का दाना तक नहीं खाते।

गेहूं से परहेज…

दक्षिण भारत में गेहूं न खाने के पीछे मान्यता यह है कि-गेहूं का आकार योनि की तरह होता है।

इसके उपभोग से आलस्य-प्रमाद, सुस्ती तथा सेक्सुअल विचार आते हैं।

व्रतराज ग्रन्थ के मुताबिक….

ग्यारस को चावल के सेवन से मानसिक अशांति होती है। अवसाद यानि डिप्रेशन आने लगता है।

शरीर में आलस्य बना रहता है। अकर्म के कारण भाग्योदय में रुकावट होती है।

अतः ग्यारस का उपवास सभी सनातन धर्मियों को जरूर करना चाहिए।

यह शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखता है।

पितृदोष का शर्तिया उपाय…

यदि पितृदोष है, तो 11 बार ग्यारस के व्रत करके अपने पितृ-पूर्वजों को अर्पित करें।

इससे जीवन में अपार सफलता मिलने लगती है। यह आजमाया हुआ उपाय है।

निराहार व्रत का सर्वाधिक महत्व है।

चावल की चर्चा…

दरअसल शास्त्रों में चावल को अक्षत कहा गया है।

हम पूजा में चावल शब्द का इस्तेमाल करते हैं। यह गलत है।

अक्षत का अर्थ है, जो क्षत न हों अर्थात टूटे हुए न हों।

दूसरी बात यह है कि यह धान्य कही जाती है।

धन-धान्य की वृद्धि के लिए महीने में दोनों ग्यारह या एकादशी तिथि को चावल न खाने की सलाह दी जाती है।

शिवतन्त्र, स्कंदपुराण एवं द्रव्यगुण सहिंता किताबों के अनुसार चावल का स्वरूप शिवलिंग की तरह होता है।

एकादशी तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है।

ये भोलेनाथ के परम भक्त और मुख्य गण कहे जाते हैं।

भगवान विष्णु के हाथ में स्थित सुदर्शन चक्र इन्हें महादेव की भक्ति से ही वरदान स्वरूप मिला था।

सार यही है कि श्रीहरि विष्णु के कारण अपने आराध्य महाकाल के रूप में शिवलिंग स्वरूप चावल न खाने की परम्परा चल पड़ी हो।

वैसे देखा जाए, तो दक्षिण भारत में ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब चावल न खाते हों। शास्त्रों की बाते पूर्णतः सत्य ही होती हैं।

यदि यह मान्यता चली आ रही है, तो शायद इसमें कोई हानि नहीं होगी। एक दिन चावल न खाकर अपने पूर्वजों-,पितरों को प्रसन्न करें।

हमारे यहां भी बिगत 90 वर्षों से एकादशी या ग्यारस को चावल नहीं खाते हैं।

अपने पितरों के निमित्त पूरा परिवार उपवास भी रखता है।

और कुछ जानकारी कहीं से मिली, तो विस्तार से बताएंगें।

एक बात और ध्यान रखें कि ईश्वर को नैवेद्य अर्पित करते हैं ….न कि प्रसाद या भोग। क्यों?

इस बारे में जरूर आगे कभी जबाब देंगें।

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