जब हिम्मत ही टूट जाये तो क्या करें…

जब मन अशांत हो तो क्या करें?
  • मन 40 किलो का होता है और हमारे शरीर का वजन मन से अधिक होने के बावजूद भी हम दबाव में आ जाते हैं।

आध्यात्मिक ऋषियों की रिसर्च माने तो सब कुछ अपने अंदर ही है।

हम अंदरूनी ऊर्जा, मनोबल को जागृत नहीं करते, तो हर कमजोर चीज हम पर हाबी हो जाती है।

    • अशांत मन को शांत करने हेतु खुद को जगाना होगा।
    • सुबह जल्दी उठें। उठकर सुबह घूमे, कसरत करें।
    • अपने आप को इतना थकाएं कि मन शांत हो जाये।
    • आलसी, सुस्त लोगों का मन सदैव भारी रहता है।
    • भागने-दौड़ने वाले, मेहनती लोगों का मन मस्त रहता है।
    • जीवन एक यात्रा है इसलिए बिना रुके, हमेशा चलते रहो
    • रुका जल, ठहरा जल दोनों ही खराब होते हैं।
    • वेद के मत से उन्नत होना और आगे बढ़ना प्रत्येक जीव का लक्षण है –

आरोहणमाकमणं जीवतो जीवतोअनम् — अथर्ववेद

जीवन के लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि उसको रुकना नहीं चाहिए।

  • मनुष्य के हृदय की एक-एक धड़कन और प्रत्येक सांस से ईश्वर का यह संदेश सुनाई पड़ता है
  • कि चलते रहो, चलते रहना ही जीवन की प्रकृति या सद्गति है।रुक जाना उसकी विकृति या दुर्गति है।
    • तत्वदर्शी मनीषियों ने मनुष्य मात्र को यही उपदेश दिया है
    • कि चलते रहो परिश्रम से थके बिना सौभाग्य की प्राप्ति नहीं होती।
      • बैठे हुए आलसी को पाप धर दबाता है।
      • ईश्वर उसी का सहायक है जो दिन रात चलता रहता है इसलिए चलते रहो, चलते रहो…

नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम!

पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा चरैवेति!! ….(ऐतरेय ब्राह्मण, अध्याय 3, खण्ड 3)

      • अर्थात- मेहनत या परिश्रम से थकने वाले व्यक्ति को भांति-भांति की श्री यानी लक्ष्मी, धन, वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं।
      • एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं ।
      • विचरण में लगे जन का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है। अतः तुम चलते ही रहो। अतः विचरण ही करते रहो, चर एव

चलते रहने से जांघें पुष्ट होती हैं। थके बिना फल प्राप्ति तक उद्योग या व्यापार करने वाला व्यक्ति आत्म पुरुषार्थी होता है।

प्रयत्नशील व्यक्ति के पाप भावमार्ग में ही नष्ट हो जाते है।

पुष्पिएयौ चरतो जंघे भूष्णुरात्मा फलग्रहिः

शेरे त्र्प्रस्य सर्वे पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः

चरैवेति चरैवति।।

  • भगवान बुद्ध ने भी अपने प्रधान शिष्य को जीवन की सार्थकता का यही मूल मंत्र बताया था।
  • आनंद किसी दूसरे की शरण में ना जाकर अपनी आत्मा का ही आश्रय लो सत्य को दीपक की भांति पकड़े रहो और बिना रुके आगे बढ़ते जाओ।
  • महापुरुषों के वाक्यों से ही नहीं उनके चरित्र से भी यही प्रमाणित होता है के चलते रहने में ही जीवन की सफलता और सबलता है।
  • कहा भी कहा गया है कि- चलना ही जिंदगी है, रुकना है मौत तेरी।
  • यह देखा गया है कि चलते रहने से जीवन मार्ग सुगम हो जाता है।
  • प्रतिकूल परिस्थितियां भी अनुकूल हो जाती हैं और मनुष्य कहीं से कहीं पहुंच जाता है।
  • चलने वाला स्वस्थ स्वतंत्र स्वाबलंबी एवं शक्तिशाली होता है उसे पद पद पर शकुन मिलते हैं।
  • दूर तक की दुनिया आंखों के आगे दिखाई देती है। ईश्वर में सचमुच उसकी सहायता करता हुआ मिलता है।
  • संसार भी अपने मार्ग पर चलने वाले की खोज खबर लेता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में आशा उमंग की धारा प्रवाहित रहती है।
  • वह आगे बढ़ता हुआ उन्नति करता हुआ दिखाई देता है।
    • इसके विपरीत जो बैठा रहता है वहां जहां का तहां ही रह जाता है, जो आराम के लिए पड़ा रहता है
    • अथवा आ- राम, आ-राम…. चिल्लाते हुए भाग्य की प्रतीक्षा करता है, उसे न राम मिलता है और ना आराम!
  • ऐसे व्यक्ति को केवल मक्खियां ही पूछती हैं गति हीन प्राणी…. प्रायः मतीहीन हो ही जाता है, उसका संसार बहुत संकुचित शून्य और अंधकारमय बन जाता है!
  • अपने ही हाथ-पैर उसके अपने काम नहीं आते। दूसरे के काम क्या आएंगे। उसकी प्रक्रिया विभूतियां उसके मिट्टी के शरीर में कंजूस के धन की तरह व्यर्थ गड़ी रहती हैं।
  • बिना चले तनाव में रहकर उसकी नाव डूब जाती है। रुके हुए आदमी का विकार ग्रस्त तन धीरे नहीं बड़ी शीघ्रता के साथ मिट्टी में मिलने लगता है
  • जीवन तो नदी की धारा के समान है। प्रभाव रुकते ही उसकी मिठास जाती रहती है और उसका अस्तित्व भी मिट जाता है।
      • एक अनुभवी विचारक ने बड़े और छोटे आदमियों में यही अंतर माना है कि एक तो प्रगतिशील होता है दूसरा घुटने टेके पड़ा रहता है।
      • उसका कथन है कि जिन्हें हम अपने से बड़ा मानते हैं इसलिए बढ़े हैं कि हम अपने घुटने टेके पड़े हैं हमें उठ जाना चाहिए

The great are great only because we are on our knees . Let us rise __ Stirner

  • उठ जाने का अर्थ है चल पड़ना आगे बढ़ना चलते रहने से जीवन की उन्नति क्यों होती है इसको समझने के लिए जीवन के यथार्थ रूप को देखना चाहिए।
  • मानव जीवन प्रकृति का एक अंग है। प्रकृति द्वारा उसका पोषण तभी तक हो सकता है जब तक वह अपने प्राकृतिक गुणधर्म को धारण किए रहेगा।
  • अप्राकृतिक होने पर उसका विनाश निश्चित है संपूर्ण सृष्टि के जो गुणधर्म होंगे वही उसके अंग प्रत्यंग के भी होंगे — ब्रह्माण्डे ये गुणाः सन्ति पिण्डमध्ये च ते स्थिताः।
  • अपने जीवन के आदर्श को समझने के लिए हमें जगत को और उसकी प्रगति के रहस्य को समझना चाहिए मानव प्रकृति विश्व प्रकृति से भिन्न नहीं हो सकती।

सृष्टि का आदर्श क्या है—

    • संसार कर्मात्मक है। यह भवचक्र चलता ही रहता है। जगत का अर्थ ही है प्रगतिशील।
    • आगे बढ़ने वाला विश्व व्याप्त एक चेतना शक्ति उसको चलाती है।
    • कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है ईश्वर सब प्राणियों के ह्रदय में रहकर माया हमसे प्राणी मात्र को ऐसा घुमा रहा है मानव सभी कृषि यंत्र पर चढ़ाए गए हो —

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेअजुर्न तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।

  • सृष्टि के भिन्न-भिन्न रंगों में एक ही आध्यात्मिक प्राणशक्ति है उसी की प्रेरणा से संपूर्ण प्रकृति अपने अनंत लोग शक्तियों के साथ एक निश्चित योजना के अनुसार प्रत्येक क्षण नवजीवन का निर्माण करती हुई आगे बढ़ती दिखाई देती है।
      • प्रकृति में कहीं आलस नहीं है, स्तब्धता और स्वच्छन्दता नहीं है।
      • यह नित्य नवीन होती रहती है।
      • प्रकृति के विकास नियम में हस्तक्षेप नहीं हो सकता।
      • भगवान की यहां कार्यकारिणी शक्ति ना तो स्वयं बैठना जानती है और ना अपने किसी अंग को बैठने देना चाहती है।
      • यही ईश्वरीय विधान है अतक्र्य और यथार्थ है प्रकृति की इस आंतरिक चेष्टा का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति स्वयं कर सकता है।
      • किसी की प्रतीक्षा में जब आपको बेकार बैठना पड़ता है अथवा चुपचाप खड़े रहना पड़ता है, तब आप ऊबने लगते हैं।
      • बेचैनी और भारीपन का अनुभव करने लगते हैं उस समय उठ कर इधर-उधर टहलने से या अंगड़ाइयां लेने से अथवा अंग संचालन से मन हल्का हो जाता है।
      • शरीर को सुख मिलता है इससे स्पष्ट है कि अंत प्रकृति चाहती है कि जीवन में जड़ता ना उत्पन्न हो।…

सुप्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने ठीक ही कहा है कि सक्रियता ही जीवन है – Life is movement

प्रख्यात जर्मन महाकवि गेटे ने प्रकृति की इस मूल प्रवृत्ति को लक्ष्य करके कहा है कि- प्रकृति अपनी प्रगति और विकास क्रम में रुकना नहीं जानती और प्रत्येक निष्क्रिय निरर्थक वस्तु को हठपूर्वक नष्ट कर देती है!

“Nature knows no pause in her progress and development and attaches her curse on all inaction ”

प्रकृति चाहती है कि सब स्वयं चले और उसके कार्यक्रम को निर्विघ्न चलने दे।

एक दार्शनिक ने कहा है कि बढो और मिट्टी में मिलो यही प्रकृति का कर्म सिद्धांत है।

पेड़ जब तक प्रकृति से संयुक्त होकर बढ़ता है, तब तक प्रकृति का एक एक तत्व उसका पोषण करता है।

जब उसका विकास रुक जाता है, तो वही प्रकृति धीरे-धीरे उसे नष्ट कर देती है।

  • मानव जीवन का भी यही हाल है जब तक उसमें आगे बढ़ने की क्षमता होती है, तब तक उसकी स्वाभाविक शक्तियों के साथ साथ प्रकृति की समस्त शक्तियां उसके विकास में सहयोग देती है।
  • जब उस में शिथिलता आ जाती है तो प्रकृति संसार से उसका अस्तित्व मिटाने के लिए तुल जाती है।
  • प्रकृति, परमात्मा या दुनिया वह निश्चेष्ट और निर्जीव पर दया नहीं करती।
  • किसी आलसी को स्वस्थता प्रसन्नता और शांति नहीं मिलती। इससे प्रकट होता है की उत्तरोत्तर विकासशील होना ही प्राकृतिक जीवन का आदर्श है।
  • प्रकृति के साथ असहयोग करना वास्तव में आत्मा द्रोह है, उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने को बांधकर कोई जीवन का सच्चा लाभ नहीं पा सकता।
  • मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह लोग प्रकृति के साथ अपनी अंत प्रकृति कासंयोग स्थापित करें यही योग है।
  • यही नव जीवन दायक और सर्व सिद्धि प्रदायक है। सहयोग स्थापित करने का अर्थ है चलते रहना।
  • स्वर्गीय प्रेम चंद्र जी ने अप्रैल 1936 में प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में भाषण करते हुए कहा था —
  • प्रकृति से अपने जीवन का सुर मिलाकर रहने में हमें इसलिए आध्यात्मिक सुख मिलता है कि उसे हमारा जीवन विकसित और पुष्ट होता है।
  • प्रकृति का विधान वृद्धि और विकास है और जिन भावों अनुभूतियों और विचारों से हमें आनंद मिलता है वह इसी वृद्धि और विकास की सहायक है — हंस जुलाई 1936
  • प्रकृति के वृद्धि और विकास के नियम से परिचित होने पर किसी को यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि प्रगतिशील ता जीवन के लिए आवश्यक है उसे जीवन का मुख्य धर्म ही मानना चाहिए
  • मनुष्य एक यात्री है —
  • चलते रहना मनुष्य का मुख्य जीवन धर्म क्यों है इस पर एक अन्य दृष्टि से भी विचार कीजिए।
  • सांसारिक जीवन मनुष्य के लिए क्या है एक उर्दू कवि के शब्दों में समझें अगर इंसान तो दिन-रात सफर है इस अस्थिर और परिवर्तनशील जगत में मनुष्य एक निश्चित समय के लिए आता है और उसके उपरांत चला जाता है।
  • संसार में वहां ठहरने के लिए नहीं आता विश्वविख्यात कर्मयोगी स्वर्गीय हेनरी फोर्ड ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि- जहां तक मैं समझता हूं जीवन कोई पड़ाव नहीं है बल्कि एक यात्रा है जो व्यक्ति इस प्रकार का विश्वास करके संतोष कर लेता है कि अब मैं ठीक ठिकाने से जम गया हूं उसे किसी अच्छी स्थिति में नहीं मानना चाहिए!
  • ऐसा व्यक्ति संभवत अवनति की ओर जा रहा है गतिशील होना ही जीवन का लक्षण है — Life as see it is not a location but a journey even the man who most feels himself settled is not settled – he is probably sagging back life flows — my life and work
  • मनुष्य एक यात्री है लोक मार्ग मैं वह स्वेच्छा से खड़ा नहीं रह सकता उसे या तो आगे बढ़ना चाहिए अन्यथा पीछे हटना पड़ेगा!
  • संसार के लिए कहीं ठहरने का स्थान नहीं है कोई छुट्टी का दिन नहीं है!
  • किसी मार्गदर्शक या संयोग की प्रतीक्षा में उसे अपने लौकिक यात्रा को स्थगित करने का अधिकार नहीं है!
  • यदि वह आत्मा उन्नति करना चाहता है कहीं पहुंचना चाहता है, तो उसे विघ्न बाधाओं में भी चलना पड़ेगा!
  • चलते रहना ही लोग पथिक के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। वहां जब उचित मार्ग पर चलता है, तो उसे लोग शक्तियों का साहचर्य सहज रीती से प्राप्त हो जाता है।
  • साधारण यात्रा में भी लोग एक दूसरे के साथ शीघ्र हल मिल जाते हैं और एक दूसरे की सहायता करते हैं। क्योंकि सब स्वभाव से यात्री हैं।
  • जीवन यात्री को भी सहायकों की कमी नहीं रहती मूल ने भटकने वाले या पड़े रहने वाले संसार में कष्ट भोंगते ही मिलते हैं मैं अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते चलने वाले ही आगे बढ़े हुए मिलते हैं
  • मनुष्य एक सैनिक है —
  • जीवन के स्वरूप को एक प्रकार से और देखिए उससे भी स्पष्ट हो जाएगा कि मनुष्य के लिए चलते रहना क्यों स्वाभाविक और आवश्यक है बाहर और भीतर के भौतिक जीवन संघर्ष में हैं उसकी उत्पत्ति ही संघर्ष से हैं।
  • शरीर विज्ञान के पंडित आपको बताएंगे की जन्म धारण के पूर्व दो करोड़ से लेकर 20 करोड़ तक जीवाणु में प्रतियोगिता होती है, उनमें जो सबसे प्रबल और शीघ्रगामी में शुक्राणु होता है…. वही विजय होकर जीवन धारण करता है!
  • शेष बिछड़ने वाले नष्ट हो जाते हैं इससे सिद्ध होता है कि जीवन स्वभाव से ही एक विजयाकांक्षी सैनिक है।
  • सैनिक का काम खड़े रहना अथवा पीठ दिखाना नहीं है, उसे तो गमन शील होना ही चाहिए प्रत्येक क्षेत्र में अग्रसर होने में ही सजीवता और सफलता है।
  • व्यवहारिक जगत में सर्वत्र यही भावना कार्य करती है।
  • विषम परिस्थितियों में संघर्षों के बीच से प्रतियोगिता करते हुए जो आगे बढ़ जाता है वही जीवन में स्वाधीन और विजय होता है डर और आलस वश जो अपनी जान बचाने के लिए जीवन संग्राम से दूर रहता है।
  • वह अपने स्थान पर भी सुरक्षित नहीं रहता वह या तो लड़खड़ा कर गिर जाता है अथवा पराधीन हो जाता है।
  • अंत में यह वैदिक मन्त्र आपका पथ या मार्गदर्शक हो सकता है- भारत का यही उदघोष श्लोक है-
  • सत्यमेव जयते नानृतम्॥
    उत्तिष्ठ,जागृत,प्राप्य वरान्निबोधत॥

    अर्थात अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की! उठो, जागो और अपना लक्ष्य प्राप्त करो!

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