श्रीमद्भागवत गीता क्या है-

कौरव 100 भाई थे। उन कौरव भाइयों के नाम इस ब्लॉग में पढ़े। इस लेख में श्रीमद्भागवत गीता के बारे दुर्लभ जानकारियाँ प्रस्तुत हैं

प्रेरणादायक ग्रन्थ है श्रीमद्भागवत गीता-

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन
को उपदेश दिया है कि

विश्वव्यापी चैतन्य सभी प्राणियों में कर्ता और भोक्ता के रूप में ईश्वर ही काम कर रहा है।
इसलिए सबसे गहरे स्तर पर व्यक्ति की
आत्मा की अलग से सत्ता नहीं है।
संसार की सारी सत्ता किसी अदृश्य
शक्ति के हाथों में है। 

आगे युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए श्रीकृष्ण ने कहा है कि-
सम्मानित व्यक्ति के लिए अपमान मृत्यु से भी बढ़कर है।
हे अर्जुन विषम परिस्थितियों में

कायरता को प्राप्त करना,

श्रेष्ठ मनुष्यों के आचरण
के विपरीत है। ना तो ये स्वर्ग प्राप्ति का साधन है और ना ही इससे कीर्ति प्राप्त होगी।
कमजोर तेरा समय है, तू नहीं।
सुख – दुःख, लाभ – हानि और जीत – हार की चिंता ना करके मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्य -कर्म करना चाहिए। ऐसे भाव से कर्म करने पर मनुष्य को पाप नहीं लगता
जीवन में चिन्ता-फिक्र किस बात की है, जब
खाली हाथ आए हो ओर किसी दिन खाली हाथ ही चले जाओगे, जिसे तुम आज मेरा-कर कर रहे हो,
या जो कुछ भी आज तुम्हारा है, कल किसी अन्य का था, परसों किसी और का रहा होगा। इसीलिए, जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान भोलेनाथ के समक्ष अर्पण करता चल।

गुरु ग्रन्थ साहिब में भी यही लिखा है कि-
मेंरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा

महाभारत काल में
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन
को आत्म ज्ञान का जो उपदेश दिया था।वह भीष्मपर्व का अंग कहा जाता है।
श्रीमद्भगवदगीता
में १८ अध्याय और 700 श्लोक हैं।

जैसा गीता के शंकर भाष्य में कहा है-
  तं धर्मं भगवता यथोपदिष्ट वेदव्यास: सर्वज्ञोभगवान् गीताख्यै:
सप्तभि: श्लोकशतैरु पनिबंध।

गीता का महत्व-

योग की दूसरी परिभाषा है

 ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
श्रीमद्भागवत गीता बिना फल की इच्छा के
कर्म के लिए प्रेरित करती है। और फल की जहाँ तक बात है, तो वह बाजार में मिल जाते हैं।

चले-चलो-
जो भी हो रहा है, वह सब ठीक ही हो रहा है,
जो आगे होगा वह भी अच्छा होगा।
भूत का पश्चाताप न करके भविष्य बनाने
पर पूरी शक्ति लगा दो।  दूसरे की लकीर छोटी न करके अपनी लकीर को बड़ा बनाओ।
वर्तमान अभी चल रहा है।

आत्मबल, आत्मविश्वास, आत्मप्रेम
और सद्मार्ग, सदगति की तरफ ले जाने के लिएमहाभारत काल में
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने अर्जुन
को आत्म ज्ञान का उपदेश दिया था।
इस ग्रन्थ में वही चर्चा है।
चिन्ता के लिए कहा गया है-
क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो?
किससे व्यर्थ डरते हो?
कौन तुम्हें मार सकता है?
आत्मा ना पैदा होती है, न मरती है।

आदिशंकराचार्य के शब्दों में-
ईश्वर के समक्ष स्वयं को हमेशा
छोटा मानो। ब्रह्मांड में शिव से बड़ा कोई
है ही नही। ये भाव या विचार आपको अथाह
शक्ति से भर सकते हैं-
मैं अति दुर्बल,मैं मतिहीना।
जो कछु कीना, शम्भू कीना।।
पर जो हुआ, मेरे हाथों भया।
भोलेनाथ विचारो दया।।

भारतीय आदि कालीन शास्त्र
परंपरा के अनुसार श्रीमद्भागवत गीता
का स्थान वही है जो प्राचीन समय के
वेद-पुराण, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों का है।

20वीं सदी के करीब भीष्मपर्व का जावा की भाषा में एक अनुवाद हुआ था। उसमें अनेक मूलश्लोक भी सुरक्षित हैं।

श्रीमद्भागवत गीता के सम्मान में
उपनिषदों को गौ और गीता को उसका
दुग्ध कहा जाता है।

श्रीमद्भगवद्‌गीता की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है। यह युद्ध निरन्तर हरेक मानव मन में चलता रहता है, इस अन्तरदुंद, आत्मिक लड़ाई और स्वयं से युद्ध की शांति के लिए गीता ग्रन्थ एक सच्चा मार्गदर्शक है। जीवन जीने की कला एवं मार्गदर्शन गीता से सहज प्राप्त होता है।

सतना के पास धारकुंडी आश्रम के शिव साधक परमपूज्य परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद जी द्वारा रचित यथार्थ गीता नामक एक अद्भुत ग्रन्थ है, जिसमें शरीर रूपी सेना का वर्णन है।

विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में श्रीमद्भागवत गीता शामिल है।

एक अत्यंत दुर्लभ जानकारी

कैसे उपजी श्रीमद्भागवत गीता-

स्कन्द पुराण, भविष्य पुराण,
ईश्वरोउपनिषद आदि और भी ब्राह्मण
ग्रंथों में आया है कि श्रीमद्भागवत का
ज्ञान-ध्यान व विचार सर्वप्रथम
शेषनाग के मन में आया, जिनके फन पर धरती टिकी है शेषनाग ने इसे भगवान भोलेनाथ को सुनाया।

श्रीमद का अर्थ-
गीता सृष्टि का पहला ऐसा उपदेश ग्रन्थ है,
जिसमें श्रीमद शब्द आया है।
श्री का अर्थ होता है-
लक्ष्मी, धन, बुद्धि, ज्ञान, विवेक
और मद का मतलब है-
अहंकार, ऊर्जा, ताकत, शक्ति, विष या जहर
अर्थात आशय यह हुआ कि
गीता ग्रन्थ में बुद्धि की शुद्धि कर
अहंकार नाश करने वाले उपाय बताये गए
 हैं।

कैसे हुआ श्रीमद्भागवत गीता का प्रसार-प्रचार
सर्वप्रथम शेषनाग के मन में एक आत्म ध्यान
से एक विचार प्रकट हुआ वही श्रीमद्भागवत गीता थी।
शेषनाग ने सबसे पहले यह ज्ञान भोलेनाथ को
दिया।

 महादेव शिव ने

मद्भागवत गीता का रहस्य माँ आदिशक्ति को समझाया था, यही वह अमरकथा है, जिसे

भगवान शिव ने अमरनाथ में सुनाई थी।

इसकी सम्पूर्ण वैदिक जानकारी

अमृतम मासिक पत्रिका के जून 2009

के अंक में विस्तार से प्रकाशित कर चुके हैं।

माँ आदिशक्ति ने वृषभ नन्दी को सुनाया।
नन्दी ने

चंद्रमा की सुनाया, चन्द्र ने रुद्रों को, फिर रुद्रों ने

ब्रह्मांड में सभी देवी-देवता,ऋषि-महर्षियों
श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान कराया।
भगवान श्रीकृष्ण को जब गीता का ज्ञान हुआ, तो उन्होंने सबसे पहले भगवान भास्कर सूर्य से कहा था। भगवान भास्कर अंधकार के नाशक हैं।
वेदों में प्रार्थना है
असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्युर्मा अमृतम गमय
ॐ शान्ति! शांति!! शांती!!!

अंधकार से प्रकाश की तरफ
ले जाने वाले
सूर्य ज्ञान का प्रतीक है अतः श्री कृष्ण
का मानना है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी
अनेक अनुसंधान करने वाले साधक ओर
भक्तों को यह ज्ञान दिया जा चुका है।
यह अपरा ईशवाणी है यानि ईश्वर के मुख
से निकले शब्द हैं। जिसमें सम्पूर्ण सांसारिक, आध्यात्मिक जीवन का निचोड़ तथा सार-आधार है। गीता के उपदेशानुसार चलने वाले मनुष्य
ईश्वर और ऐश्वर्य दोनों को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।

धर्म का उपयोग

धर्म शब्द का प्रयोग गीता में स्वयं के स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए बहुत स्थानों पर हुआ है।
गीता के अनुसार हर प्राणी को धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। धर्म ही आत्मा है।

आत्ममंथन, आत्मचिंतन, आत्मज्ञान और आत्मा में तल्लीन पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है।
आत्मा का भी स्वभाव धर्म है

आत्मा अनंत अक्षय ज्ञान का स्रोत है।
ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकृति के तीन गुणों का प्रादुर्भाव
होता है।
प्रकृति के गुण सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है।
धर्म औऱ अधर्म का जन्म-
सात्विकता तथा रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तामसिक प्रवृति एवं रज दोनों की अधिक
मात्रा मनुष्य में होने पर आसुरी व गंदी विचारधारा या वृत्तियाँ प्रबल होती हैं।

धर्म की स्थापना-
अन्तरात्मा में गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिए, सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी शिवब्रह्म स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर ईश्वरीय अवतार धारण करती है।

गीता ग्रन्थ की ग्रंथि खोलने की प्रक्रिया

गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है।
अधर्म क्या है-
अज्ञान, अशांति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है।
गीता का सार
सम्पूर्ण गीता शास्त्र का सार बस इतना ही है कि बुद्धि को हमेशा पूरी एकाग्रता से अपने में सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि स्वयं की आत्मा में लगाये रक्खो।
चिन्ता रहित जिओ-
क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो?
किससे व्यर्थ डरते हो?
कौन तुम्हें मार सकता है?
आत्मा ना पैदा होती है, न मरती है।

कर्म ही पूजा है-
केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है,
कर्म का फल या परिणाम नहीं। इसलिए
तुम कर्मफल की आशक्ति में ना फंसो
rतथा अपने कर्म का त्याग भी ना करो

प्रत्येक प्राणी को इस जगत के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहना चाहिए। स्वभावगत कर्म करना बहुत सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना या करना कुछ कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति एवं आदतों को लेकर जन्मा है।
जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका जीवन निर्वाह हो जाता है।
आत्मप्रेम का रहस्य-
श्री कृष्ण जी ने सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित, आत्मप्रेमी होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है।
योग्य मनुष्य के लिए योग का महत्व
बसंतेश्वरी श्रीमद्भागवत गीता में लिखा है कि
यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग,
बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि को गीता में समझाया गया है। परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग एवं कर्म बुद्धि से “श्री द्वारकाधीश” को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग, निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है।
मैं कौन हूँ, कहाँ से आया
संसार का हर मनुष्य जब एकाग्र होता है, तो बस
यही विचार करता है कि
मेरे संसार में आने का क्या कारण है?
मैं कौन हूँ?
यह देह क्या है?
इस देह या शरीर के साथ मेरा आदि और अन्त
क्याहै?
देह त्याग के पश्चात् या मेरे मरने के बाद
क्या मेरा अस्तित्व रहेगा?
यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा?

मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा।
कहाँ जाना होगा?
हर किसी जिज्ञासु के हृदय आत्मा में यह बातें
सदैव घूमती रहती हैं। हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते।
हर दर्द की दवा है-गीता

यह  तन-मन और धन न तुम्हारा है, न तुम तन-मन के हो।  संसार में सब कुछ पंचमहाभूतों की देन है। यानि यह  सब कुछअग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, अाकाश से बना है ओर इसी में मिल जायेगा।
परन्तु आत्मा स्थिर है – फिर तुम क्या हो?

गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री कृष्ण ने धर्म संवाद के माध्यम से अर्जुन को दिये हैं। इस देह को जिसमें 36 तत्व जीवात्मा की उपस्थिति के कारण जुड़कर कार्य करते हैं।
मनुष्य ही इस देह का स्वामी है परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है, जब वह प्रकट होता है;

  शिवः संकल्प मस्तु-
तपस्वी गण अपने कर्मों के द्वारा, अपने नियम, संकल्प के बलबूते
36 तत्वों वाले इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा (क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है। यही उत्तम पुरुष यानि शिव साधक ही परम स्थिति और परम सत् है। यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है।
जीव की आत्मा नित्य है
जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है। शरीर की मृत्युउपरांत जीवात्मा अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है। शास्त्रों में ऐसी 84 लाख योनियों का वर्णन है।
जीवन जीने के निर्देश-

जिसकी इन्द्रियां वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

विषयों का चिंतन करने से विषयों की आसक्ति होती है। आसक्ति से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से क्रोध होता है।

क्रोध से सम्मोहन और अविवेक उत्पन्न होता है, सम्मोहन से मन भ्रष्ट हो जाता है। मन भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का पतन होता है।

शान्ति पूर्वक जीवन जीने से सभी दुःखों का नाश हो जाता है और शान्तचित्त मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर होकर परमात्मा से युक्त हो जाती है।

काम, क्रोध और लोभ, ये मनुष्य को नरक की ओर ले जाने वाले तीन द्वार हैं, इसलिए इन तीनों का त्याग करना चाहिए|

श्रीमद्भागवत गीता की विशेषतायें

पाण्डव 5 भाई थे
पाण्डु के पाँचों पुत्रों में से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन
की माता कुन्ती थीं ……तथा , नकुल और सहदेव की माँ का नाम माद्री था।
महादानी कर्ण की कहानी-
इन पांचों पाण्डव भाइयों के अलावा
दुर्योधन का अभिन्न मित्र महाबली कर्ण
की मां का नाम भी कुन्ती था, किंतु कर्ण
की गिनती पांडवों में नहीं की जाती है।

कौरव 100 भाई थे, जिसमें दुर्योधन
सबसे ज्येष्ठ थे
ये सभीधृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र थे, जो
कौरव कहलाए जिनके नाम हैं –
1. दुर्योधन      2. दुःशासन   3. दुःसह
4. दुःशल        5. जलसंघ    6. सम
7. सह            8. विंद         9. अनुविंद
10. दुर्धर्ष       11. सुबाहु।   12. दुषप्रधर्षण
13. दुर्मर्षण।   14. दुर्मुख     15. दुष्कर्ण
16. विकर्ण     17. शल       18. सत्वान
19. सुलोचन   20. चित्र       21. उपचित्र
22. चित्राक्ष     23. चारुचित्र 24. शरासन
25. दुर्मद।       26. दुर्विगाह  27. विवित्सु
28. विकटानन्द 29. ऊर्णनाभ 30. सुनाभ
31. नन्द।        32. उपनन्द   33. चित्रबाण
34. चित्रवर्मा    35. सुवर्मा    36. दुर्विमोचन
37. अयोबाहु   38. महाबाहु  39. चित्रांग 40. चित्रकुण्डल41. भीमवेग  42. भीमबल
43. बालाकि    44. बलवर्धन 45. उग्रायुध
46. सुषेण       47. कुण्डधर  48. महोदर
49. चित्रायुध   50. निषंगी     51. पाशी
52. वृन्दारक   53. दृढ़वर्मा    54. दृढ़क्षत्र
55. सोमकीर्ति  56. अनूदर    57. दढ़संघ 58. जरासंघ   59. सत्यसंघ 60. सद्सुवाक
61. उग्रश्रवा   62. उग्रसेन     63. सेनानी
64. दुष्पराजय        65. अपराजित
66. कुण्डशायी        67. विशालाक्ष
68. दुराधर   69. दृढ़हस्त    70. सुहस्त
71. वातवेग  72. सुवर्च    73. आदित्यकेतु
74. बह्वाशी   75. नागदत्त 76. उग्रशायी
77. कवचि    78. क्रथन। 79. कुण्डी
80. भीमविक्र 81. धनुर्धर  82. वीरबाहु
83. अलोलुप  84. अभय  85. दृढ़कर्मा
86. दृढ़रथाश्रय    87. अनाधृष्य
88. कुण्डभेदी।     89. विरवि
90. चित्रकुण्डल    91. प्रधम
92. अमाप्रमाथि    93. दीर्घरोमा
94. सुवीर्यवान     95. दीर्घबाहु
96. सुजात।         97. कनकध्वज
98. कुण्डाशी        99. विरज
100. युयुत्सु

( इन 100 भाइयों के अलावा कौरवों की एक बहनभी थी… जिसका नाम””दुशाला””था,
जिसका विवाह “जयद्रथ” से हुआ था )

द्वापर युग में “श्री मद्-भगवत गीता”
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को 5000
वर्ष पहले रविवार को  को
कुरुक्षेत्र की रणभूमि में
कर्त्तव्य से भटके हुए अर्जुन को कर्त्तव्य पूर्ण
करने के लिए और आने वाली पीढियों को
धर्म-ज्ञान सिखाने के लिए।
45 मिनिट तक
सुनाई थी
श्रीमद्भागवत गीता में कुल 18 अध्याय
700 श्लोक हैं।
गीता में किसने कितने श्लोक कहे है?
– श्रीकृष्ण जी ने- 574
-अर्जुन ने- 85
-धृतराष्ट्र ने- 1
-संजय ने- 40.

श्रीमद्भागवत गीता में
ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से मनुष्य निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है।

अपनी युवा-पीढ़ी को श्रीमद्भागवत गीता के बारे में जानकारी पहुचाने हेतु इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे। धन्यवाद

www.amrutampatrika.com

www.amrutam.co.in

www.sqrfactor.com

आयुर्वेदिक विशेषज्ञ से बात करें!

अभी हमारे ऐप को डाउनलोड करें और परामर्श बुक करें!


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *