मन की शांति पाने के लिए कौन से मंत्र का जाप करना चाहिए?

  • महालक्ष्मी पूजन 12 नवम्बर 2023 को होगा। ये लेख मन की शान्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, ताकि एक जरा सी कोशिश के बाद दिवाली पूजन में मन लग सके और साल भर सफलता चरण चूमे।
  • दीपावली के दौरान अपना खानपान तो ठीक रखें। साथ ही खानदान का नाम रोशन करने के लिए मंत्र जाप का ध्यान अवश्य रखें।
1. दुनिया में ही नहीं भारत के सनातन धर्मी लोग भी स्वास्तिक ठीक तरीके से नहीं बना पाते। यदि इस शुभ – लाभ दायक ऋद्धि सिद्धि चिन्ह को वैदिक विधान से निर्मित किया जाए, तो उस परिवार में कभी भी धन की कमी नहीं रहती। 2. यंत्र, तंत्र रहस्य शास्त्र के अनुसार श्रीगणेश का अधूरा, अशुभ या गलत स्वास्तिक बनाने से घर, परिवार में बरक्कत या उन्नति, समृद्धि नहीं होती। 3. प्राचीन परम्परा से स्वस्तिक तंत्र बनाने वाले देश में कुछ विशेष ही वैश्य जाति के लोग हैं और इन धर्म को मानने वाले बनियों या उद्योग पतियों के यहां धन की कोई कमी नहीं होती। 4. दीपावली के दिन देशी घी युक्त सिन्दूर से पूजन स्थल पर प्राचीन दुर्लभ स्वास्तिक यंत्र अवश्य बनाएं और इसके समक्ष कलश स्थापन कर 5 दीपक देशी घी के प्रज्वलित करने से साल भर व्यापार, कारोबार में बढ़ोतरी होगी। 5. और नौकरी करने वाले जातक की पदोन्नति तथा धन की वृद्धि स्वत: ही होने का अनुभव होगा। 6. स्वास्तिक बनाने का वैदिक विधि निर्माण हेतु नीचे चित्र की सहायता लेवें। दीपावली पूजन सामग्री * अमृतम पत्रिका द्वारा पिछले 15 वर्षों से अपने सभी शुभचिंतकों तथा प्रिय गाहकों को दीपावली पूजन सामग्री का बॉक्स निशुल्क भेजा जाता है और इसमें दिवाली की वैदिक परंपरा अनुसार पूजन विधान की सम्पूर्ण जानकारी होती है। * भारत के लोग अगर दीपावली के बारे में वैदिक जानकारी एकत्रित कर महालक्ष्मी पूजन करें, तो मेरा निजी अनुभव है कि कभी पैसे की कमी नहीं आती। यश, कीर्ति, ख्याति बढ़ती है। * करीब 90/95 साल पहले हमारे बाबा को केदारनाथ यात्रा के दौरान एक सिद्ध अघोरी ने भोजपत्र पर लिखकर एक धनदाता महालक्ष्मी कवच दिया था। जिसे बाबा दिवाली की पूरी रात जपते थे और बेशुमार धन वृद्धि हुई। वे शहर में विशु से विश्वनाथ सेठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। * करीब 80 के दशक में ये दुर्लभ मंत्र कहीं खो गया और पिताजी ने महालक्ष्मी पूजन का क्रम अवरुद्ध कर दिया। इसके परेशानी, समस्यायों का अंबार लग गया। * सौभाग्य से 1996 में दीपावली सफाई के दौरान ये मंत्र युक्त भोज पत्र बहुत जीर्ण शीर्ण अवस्था में मिल गया। जिसे पिता श्री देखकर भावुक हो गए और अपने शिव भक्त गुरु के पास इसे दूसरे कागज पर लिखवाकर ले आएं। मंत्र का चित्र नीचे देखें * फिर, परिवार ने 25 साल पुरानी पूजा परंपरा को आरंभ किया और घनघोर कष्टों से मुक्ति मिलने लगी। वर्तमान में पूरा परिवार अपने अपने क्षेत्र में पूर्णतः सफल है। * सन 2000 में देह त्याग के पूर्व पिता ने सबसे कहा कि जीवन में लम्बे समय तक पीढ़ी दर पीढ़ी सुखी रहना चाहते हो, तो सबका कल्याण, भला करते रहना। * मेरे पिता का कहना था कि ।।तेरा मंगल, मेरा मंगल सबका मंगल होए रे…!! वाली सोच व्यक्ति को बहुत आगे ले जाती है। इसी से प्रेरित होकर खुले ह्रदय और बिना लाग लपेट के दीपावली विधान की जानकारी प्रस्तुत है, ताकि सबका भला हो सके। गरीबी, दुःख, रोग से राहत मिल सके। वैसे भी भला का उल्टा लाभ होता है। * दीपावली बॉक्स में पूजन विधि दी गई जानकारी का ये पत्र भी क्योरा पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इससे लक्ष्मी और महालक्ष्मी का अंतर दृष्टिगोचर होगा। * दीपावली का पवन पर्व धन तेरस या त्रयोदशी यानि भगवान धन्वतरी प्राकट्य दिवस से प्रारंभ होकर डोज तक रहता है। * दीपावली पूजन में दैत्यों, राक्षसों, असुरों और राहु का मुख्य पूजन और योगदान है। इसीलिए धन की कामना हो, तो कभी भी हिरण्य कश्यप, वाणासुर, शिव भक्त दशानन रावण के बारे में अपशब्द कहने या बुराई करने से बचे। * दशानन की जानकारी रावण विशेषांक में पढ़ सकते हैं। इसकी 50 हजार कॉपी मेडिकल स्टोर्स पर निशुल्क भेजी थी। ढूढकर पढ़ें * दीपावली से ज्यादा महत्व छोटी दिवाली है। क्योंकि स्कंध पुराण, भविष्य पुराण, महालक्ष्मी सूत्र संहिता आदि ग्रंथों के मुताबिक जब तक महालक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन दरिद्रा रूपी घर छोड़कर नहीं जाएगी, तब तक धनदात्री देवी का प्रवेश असंभव है। * छोटी दीपावली को सुबह उठते ही मल विसर्जन/फ्रेश होने के बाद धूप में बैठकर केशर से निर्मित कुमकुमादी तेल की पूरे शरीर में मालिश करें * देहाभ्यंग कर एक घंटे बाद अपामार्ग नामक बूटी अपने सिर से 7 बार ऊसार कर किसी घूरे पर फेंके और नीम की दातुन कर स्नान करें। अपामार्ग की जानकारी ऊपर वीडियो में देखें। * छोटी दिवाली को गौधूली बेला में अपने गुरु, पितरों, ऋषि, मुनि, महर्षियों का हार्डे से स्मरण कर कम से कम 24 दीपक Raahukey oil के जलाएं। * संभव हो तो परिवार सभी सदस्य अपनी आयु के ए ऊसर उतने ही दीप देहरी, शिवालय, घर के मंदिर, घूरे आदि पर जलाएं। दिवाली का आदिकालीन सत्य रहस्य। जैसा वेदों ने सुझाया * भ्रम मिटाने के लिए दीपावली के विषय में एक संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है कि महालक्ष्मी उत्सव का गहरा नाता भक्त प्रह्लाद के पूर्वजों और वंश से है। * दीपावली की से घटना सतयुग से है। श्रीराम का अयोध्या लोटना भी एक घटना है। लेकिन मूल वजह राजा बलि ही हैं। इन्हीं के कारण दीपावली मनाई जाती है। * चिरंजीवी दानवीर बली के साथ छल होने के बाद महादेव ने वरदान दिया था कि दीपावली उत्सव के दिन जो भी जातक दीप + अवलि अर्थात दीपों की श्रंखला बनाकर जलाएगा, उसके घर में हमेशा महालक्ष्मी स्थिर रूप से निवास करेगी। * ध्यान रखें भोलेनाथ के वरदनानुसार दैत्य,, राहु, हिरण्यकश्यप, कंस आदि अनेक असुर धरती पर वास करेंगे और जिस घर में दीप जल रहे होंगे उनको धन धान्य से लबालब करके जायेंगे। * दीपावली की रात्रि में दीप+अवली अर्थात दीप श्रंखला प्रज्वलित करने से दुःख, दर्द, अंधकार, अहंकार, रोग दारिद्र, गरीबी का अन्त होता है। * दीपावली का उत्सव उत्साह, उमंग, उन्नति, ऊर्जादायक वैदिक कालीन पर्व है। दीपावली की कहानी * कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका और होलिका नामक दो पुत्री को जन्म दिया। सिंहिका के ही पुत्र राहु नवग्रहों में सबसे क्रूर ग्रह हैं। * राहु हिरण्यकश्यप के भांजे भी हैं। महालक्ष्मी पूजन राहु के स्वाति नक्षत्र में ही संपन्न किया जाता है। स्कंध पुराणानुसार राहु ही भौतिक सुख, समृद्धि, अथाह सम्पदा और धन दाता हैं। * महालक्ष्मी * राहुदेव Raahukey Oil के दीपदान से अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। तमिलनाडु दक्षिण में कुम्भकोणम के पास त्रिनागेश्वरम शिवालय नामक तीर्थ राहु का जन्म स्थान है। * दैत्यराज हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। * भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन के महादानी पुत्र राजा बलि की मां विशालाक्षी थी। ये सप्तचिरंजीवियों में एक हैं। राजा बलि के पुत्र थे बाणासुर, अगासुर, वत्रासुर ओर बेटी रत्नमाला। सभी शक्तिशाली थे। * केरल में ओणम उत्सव राजा बलि को समर्पित पर्व है। बली के स्मरण से आकस्मिक दुर्घटनाओं से रक्षा होती है। * कलाई में कलावा, रक्षा सूत्र या राखी बांधते हुए – येन बद्धो बलि राजा,दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:। अवश्य बोला जाता है। * हिंदू सनातन धर्म में माथे पर चंदन का टीका या त्रिपुंड लगाने का धर्मशास्त्रों में विशेष महत्व बताया है। कृपया माथा सूना न छोड़े।
  • दीपावली पूजन भी वैदिक विधान से करेंगे, तो निश्चित ही कभी धन की कमी नहीं आएगी। मेरे जीवन का अनुभव है। ये कालरात्रि कल्याणी है।
  • मंत्रों की शक्ति से हम स्वयं के साथ साथ दुनिया को बदल सकते हैं। मंत्र, मन को मजबूत बनाकर इंसान के नकारात्मक विचारों को बदल देते हैं।
  • मन ही है, जो मोह माया में उलझकर जगत के भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण पैदा करता है।
  • जब मन में इतनी शक्ति है कि हम विचलित हो सकते हैं, तो मंत्र में मन से हजारों गुना ताकत है, जो सुख, समृद्धि दिलाकार माइंड को किन और पीस फूल बनाता है।
  • मंत्र जप द्वारा व्यक्ति मन पर अंकुश लगाकर बुद्धि जागृत कर सकता है। मंत्र के द्वारा ही व्यक्ति पूज्यनीय बन जाता है।
  • आपने जैन धर्म के साधु, अघोरियों और औघड़ दानी सिद्ध महात्माओं को देखा होगा, जो फटेहाल, वस्त्रहीन, सुख साधन रहित होने के बाद भी संसार के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं।
  • मंत्र जाप से सभी कामना, काम शांत होकर प्रारब्ध सुधरता है। आपार ऊर्जा का बहाव होने से बड़े बड़े अरबपति इनके चरणों की धूल पाने को लालायित रहते हैं।
  • अक्षर को ब्रह्म कहा गया है। त्रिकालदर्शी महर्षियों ने शब्दों का अनुसंधान कर मंत्रों का निर्माण किया, ताकि जपने वाला साधक बिना संघर्ष के प्रकृति से सब कुछ पा सके।
  • मनुष्यों की सभी 5 ज्ञानेंद्रियां और 5 कर्मिंद्रियां जड़ रूप होती हैं और यही इंद्रियां इंसान को विषय भोग, भौतिक सुख, काया के प्रति मोह पैदा करती हैं।
  • मंत्र जाप के अभ्यास से मन स्थिर होता है। तब मन, मन नहीं कहलाता। वह एकाग्रता प्राप्त करके बुद्धि कहलाता है। बुद्धि मन की तरह चंचल नहीं होती। बुद्धि की निरंतर स्थिरता ही प्रज्ञा हो जाती है।
  • ज्ञान कर्म में परिणाम की चिंता करता है। दुःख का कारण मानता है। अतः ज्ञान काम यानि सेक्स, संभोग और दूषित भावों को शत्रु मानता है।
  • काम/सहवास, रतिक्रिया, संभोग/ सेक्स की पूर्ति होने पर भी काम अधूरा ही रहता है। सेक्स में संतुष्टि मिल भी गई, तो शौक उत्पन्न करता है।
  • मानव देह में कामवासना रूपी अग्नि रहता है। काम आग्नेय है! विषय – संयोग रूपी वायु के मिलते ही धूं धूं कर जल उठता है। इसमें अहंकार का योग होने से प्राणी के पतन का प्रारंभ हो सकता है।

काम और सेक्स ही सभी पापों का प्रायोजक है –

  • लोग अगर रोज श्रीमद भागवत गीता का एक अध्याय पढ़ें, तो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन होने लगते हैं। क्योंकि श्रीमदगीता व्यक्ति के विचारों को बदलने का सामर्थ्य रखता है।
  • जीवन में दुखों का मूल कारण मात्र हमारी सोच तथा काम, लोभ, मोह, माया, द्वेष, दुर्भावना ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा …

धूमेनाव्रियते वहिर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।। (3.38)

  • अर्थात जिस प्रकार अग्नि धुएं से ढका होता है, जैसे दर्पण मैल के द्वारा ढक जाता है, झिल्ली द्वारा गर्भ इको होता है, उसी प्रकार काम के द्वारा यह ज्ञानआवृत्त रहता है।
  • अर्थात तीनों प्रकार से विवेक आवरित रहता है। योगीराज श्यामचरण लाहिड़ी इस श्लोक की व्याख्या में लिखते हैं कि ज्ञान रूप आत्मा को काम तीन प्रकार से आवृत्त करता है। यहां उसके तीनों उदाहरण दिए हैं। काम के साथ ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।
  • देह में आत्मा की जो अवस्था होती है उसमें पहले वह धूमावृत अग्नि के समान होता है। यहां अग्नि भी है, धुंआ भी रहता है।
  • किन्तु अग्नि का प्रकाश स्पष्ट रहता है। यहां अग्नि आत्मा रूप कारण शरीर जैसा है। आगे सूक्ष्म शरीर है। उसके भीतर आत्मा को नाना प्रकार की वासनाएं आवृत्त रखती हैं।

बचपन से ही मंत्र जाप की आदत बनाएं

  • 55 की उम्र से आप ईश्वर से नहीं जुड़ सकते। भले आपके पास अथाह ऐश्वर्य हो, लेकिन हरदय में कष्ट, भूचाल बने रहेंगे।
  • आत्मा दर्पण (मलिन) की तरह ढका रहता है। आत्मा का प्रतिबिम्ब धुंधला दिखाई पड़ता है। थोड़े से परिश्रम से दर्पण साफ हो जाता है।
  • विचार और साधना की सहायता से वासना का वेग घटता है, आत्मज्ञान स्पष्ट होता जाता है।
  • अन्त में स्थूलतम पिण्ड में काम की भोग-चेष्टा में पूर्णता को प्राप्त होती है। यहां आत्मा पूर्णतः खोया जान पड़ता है।
  • इसका उदाहरण गर्भ में जरायु (झिल्ली) में लिपटा शरीर है। इसमें भ्रूण अज्ञान अवस्था में रहता है, वहां ज्ञानशक्ति के जैसे विकास अनुभव संभव नहीं है।
  • इसी प्रकार भौतिक पदार्थों की और कामनाओं की लिप्तता में आत्मा बाहर ही बाहर व्यस्त हो जाता है। भीतर सब अंधेरे में रहता है।
  • इन तीनों प्रकार के आवरणों को हटाने के साधन भी तीन प्रकार के हैं। मार्ग का आरंभ साधना ही है। कामासक्त व्यक्ति के मन में साधना करने की इच्छा भी नहीं होती।
  • इस स्थिति से बाहर निकलकर जीव जब प्राकृत साधक हो जाता है, तब ज्ञान ज्योति से अन्तराकाश भर जाता है। प्राण की साधना से भिन्न-भिन्न ग्रन्थियां खुलने लग जाती. हैं। भीतर का प्रकाश मेन में आनन्द पैदा करने लगता है। प्रकाश भ्रूण तक मानो पहुंचने लगता है।
  • दर्पण को भी घिस-घिसकर जैसे साफ किया जाता है, वैसे ही साधना के अभ्यास से मन जड़भाव से हटकर सूक्ष्म स्तर की ओर आगे बढ़ने लगता है।
  • शरीर के कर्म-काम की ओर मन नहीं जाता। मन का मैल दूर हो जाता है। भीतर के जगत में लीन होने लगता है। मन का आतंक मिट जाता है।
  • इस स्तर तक भी अज्ञान-पाश बना रहता है। अन्तिम आवरण है कारण शरीर। अज्ञान का बीज यहीं प्रतिष्ठित है। इसे दूर करने में प्राणी या जीव को कई जन्म भी लग सकते हैं।
  • आत्मज्ञान और आत्म-प्रकाश मिलता रहता है। बुद्धि अन्तर्मुखी होकर अनन्त आत्म-ज्योति में लीन हो जाती है।
  • अन्तिम आवरण (कारण शरीर) भी आत्म-सत्ता में लीन हो जाता है। तब अज्ञान या आवरण कुछ नहीं रहता। यही महामहेश्वर भाव है।
  • मन से उत्पन्न ज्ञान, काम में परिणाम की चिन्ता करता है, दुःख का कारण मानता है। अतः काम को शत्रु मानता है।
  • पहली बात तो यह है कि काम पूरा होने पर भी पूरा नहीं होता, हो भी गया तो शोक पैदा करता है; आग्नेय है। भीतर वासना रूपी अग्नि रहता है, विषय-संयोग रूपी वायु के मिलते ही धूंधूं कर जल उठता है। इसमें यदि अहंकार का योग हो जाए तो कहना ही क्या?
  • भोग वासना की इस काम अग्नि में विषय भोग की जितनी हवि डालें, उतनी ही ज्वाला उठती जाए।
  • जीवन में यथार्थ धर्म का निश्चय करना कठिन है। जीव के अभ्युदय, क्लेश निवारण और परित्राण के लिए धर्म की सृष्टि हुई है।
  • बाह्य धर्म-अनुष्ठान यानि बाहरी रूप से पूजा, पाठ 56 भोग से बाहय अभ्युदय प्राप्त होता है। भोग, धन, कीर्ति, ख्याति बढ़ती है, जो प्राणी को सन्तुष्ट नहीं कर सकता।
  • जीवन का आधार कामना ही है। कामना पूर्ति की रुकावट ही क्रोध की जननी है।
  • कामना मन का बीज है, यही कर्म की प्रेरणा है। प्रवृत्त भी कामना करती है और निवृत्त भी कामना करती है। मार्ग की दिशा मन तय करता है।
  • धर्मशास्त्र कहते हैं कि- काम-निग्रह ही धर्म और मोक्ष का बीज है। निर्ममता और योगाभ्यास के बिना काम- विजय संभव नहीं है।
  • अज्ञान ही काम संकल्प का मूल है। काम-संकल्प के बढ़ने के साथ आत्म-दृष्टि घटती जाती है। उतना ही मन पर आवरण बढ़ता जाता है।
  • मानव प्राण की उपासना द्वारा जब ब्रह्म की उपासनाअर्चना करता है तो भगवान की माया शक्ति संकुचित होती है, तब ब्रह्माण्ड में व्यापक शुद्ध भागवती शक्ति का विकास होता है और मूल तत्त्व ज्ञान प्राप्त होता है।
  • अतः यह व्यक्ति का स्वधर्म नहीं हो सकता। मन में पापकर्म करने की इच्छा न होते हुए भी किसी भीतर के उसे देता है। इसी का उत्तर काम है-कामना, भावना, वासना, इच्छा पर्याय हैं।
  • कामना कभी पूर्ण नहीं होती, बल्कि उपभोग से बढ़ती है। उग्र होती जाती है। साम-दाम-दण्ड से शान्त नहीं हो सकती।

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धत।। (मनु स्मृति 2.94)

  • अर्थात योगारूढ ज्ञानी को काम नहीं रहता, किन्तु जो यात्री उस पथ पर चल रहे हैं, उनको काम के कारण बाधाओं का सामना करना पड़ता है। काम अच्छा भी नहीं लगता। लेकिन संस्कार वश छूटता भी नहीं है।
  • मनुष्य को तब अपनी आत्म-स्मृति को जागरूक रखना ही साधना का लक्ष्य रहता है। चूंकि काम-भोग की इच्छा नहीं रहती, अतः साधक विजयी रहता है।
  • भगवान शिव ही सबका अंतिम लक्ष्य है। मोक्ष, मुक्ति इन्हीं के हाथ हैं। वेद पुराण पढ़ें, तो ज्ञात होगा कि महादेव की भक्ति ही अष्ट दरिद्र दूर होकर अष्ट लक्ष्मी, महालक्ष्मी और आठों तरह की सिद्धियां, ऐश्वर्य मिल सकते हैं। जब तक भटकना है – भटको।
  • बनारस के महा शिव भक्त योगीराज लाहिड़ी लिखते हैं- जीव स्थूल शरीर धारण करने से पहले, पूर्व कर्मों के अनुसार, अपने सूक्ष्म शरीर की रचना कर लेता है । वही अपने अदृष्ट के वश होकर माता-पिता के सहयोग से स्थूल पिण्ड-शरीर की रचना कर लेता है।
  • जीव का कारण शरीर पहले से ही रहता है। जब तक मूल अविद्या नष्ट नहीं होती, तब तक वह नष्ट नहीं होता।
  • प्रत्येक जन्म में सूक्ष्म शरीर की सृष्टि के साथ काम भी सूक्ष्म रूप में सूक्ष्म शरीर में रहता है।
  • स्थूल शरीर की पुष्टि के साथ सूक्ष्म शरीर भी पुष्ट होता जाता है। उसमें स्थित वासना बीज भी विकसित होता जाता है। इसी यात्रा क्रम में तीनों आवरण आत्मा को आच्छादित करते हैं।
  • दसों इन्द्रियां जड़ हैं, मन का वाहन बनकर उसको विषय भोग करवाती हैं। अभ्यास से मन स्थिर होता है। तब उसको मन नहीं कहते, एकाग्रता प्राप्त करके बुद्धि कहलाता है। बुद्धि मन के समान चंचल नहीं होती।
  • साधना के द्वारा इसको आत्मोन्मुखी कर सकते हैं। इन्द्रिय-संयम स्वतः सिद्ध हो जाता है। मन वासना शून्य हो जाता है। कामाग्नि तेलहीन दीपशिखा के समान नष्ट हो जाती है।
  • मन को समाहित किए बिना विवेकबुद्धि जाग्रत नहीं होती। संकल्पशून्य मन ही असीम ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। तब सब आत्म-स्वरूप हो जाता है।
  • यही स्थिति भगवत् चरण स्पर्श कही. जाती है। यह केवल ज्ञान मात्र ही नहीं, प्रेम की भी पराकाष्ठा है।
  • अपने लिए प्रत्येक व्यक्ति श्रेय चाहता है, धर्म ही इसको पाने का उपाय है, तब व्यक्ति अधर्म में क्यों प्रवृत्त होता है?
  • कोई शक्ति मानो ऐसी है जो बलपूर्वक खींचकर हमें पापकर्म में लगा देती है। यह शक्ति काम है।
  • यही क्रोध बन जाती है-“कामात् क्रोधोऽभिजायते।” यह भी सच है कि प्रवृति की शक्ति परमात्मा से बड़ी नहीं है, किन्तु भीतर परमात्मा के प्रकाश को ढक अन्तःकरण का आवरण हो जाने से ज्ञान की वृत्ति भी आवृत्त रूप में ही पैदा होगी।
  • वहां ज्ञान का अंश ढका रहता है, काम प्रबल रहता है। वही पाप कराता है। काम जब ज्ञान को ढक लेता है, तब • पैदा करता है।
  • बिना काम के कोई क्रिया नहीं होती। वही मोह कहलाता है। काम की पूर्ति होना ही मद अतः काम ही पाप का प्रायोजक है।
  • कर्मयोग में कर्मयोग विरोधी होने से पाप रूप ही होंगे। कर्मयोगी कामनापूर्वक किए जाने वाले वैदिक कर्म भी लेती है।
  • आत्म-स्मृति को जागरूक रखना ही साधना का लक्ष्य रहता है। चूंकि काम-भोग की इच्छा नहीं रहती, अतः साधक विजयी रहता है। ईश प्राप्ति उसकी वासनाओं में भी रहती है।
  • मन को समाहित किए बिना विवेकबुद्धि जाग्रत नहीं होती। संकल्पशून्य मन ही असीम ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
  • तब सब आत्म-स्वरूप हो जाता है। यही स्थिति भगवत् चरण स्पर्श कही. जाती है। यह केवल ज्ञान मात्र ही नहीं, प्रेम की भी पराकाष्ठा है।
  • अपने लिए प्रत्येक व्यक्ति श्रेय चाहता है, धर्म ही इसको पाने का उपाय है, तब व्यक्ति अधर्म में क्यों प्रवृत्त होता है? कोई शक्ति मानो ऐसी है जो बलपूर्वक खींचकर हमें पापकर्म में लगा देती है।
    • यह शक्ति काम है। यही क्रोध बन जाती है-“कामात् क्रोधोऽभिजायते।” यह भी सच है कि प्रवृति की शक्ति परमात्मा से बड़ी नहीं है, किन्तु भीतर परमात्मा के प्रकाश को ढक अन्तःकरण का आवरण हो जाने से ज्ञान की वृत्ति भी आवृत्त रूप में ही पैदा होगी। वहां ज्ञान का अंश ढका रहता है, काम प्रबल रहता है। वही पाप कराता है।
    • काम जब ज्ञान को ढक लेता है, तब • पैदा करता है। बिना काम के कोई क्रिया नहीं होती। वही मोह कहलाता है। काम की पूर्ति होना ही मद अतः काम ही पाप का प्रायोजक है। कर्मयोग में कर्मयोग विरोधी होने से पाप रूप ही होंगे। कर्मयोगी कामनापूर्वक किए जाने वाले वैदिक कर्म भी लेती है।

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