आपको भगवान भोले नाथ (शिव) के किस मंदिर दर्शन की इच्छा सबसे अधिक होती है?

सन्सार में महादेव के अनेकों शिवालय हैं, लेकिन कुछ शिव मंदिरों में भयंकर एनर्जी ऊर्जा है, जिसका अहसास चौखट पर जाकर ही होता है।

दुनिया में शिवभक्त और शिवालय दोनों विचित्र है। यह कलश मन्दिर रायपुर के पास दर्शनीय है।

ऐसे ही कुछ ऊर्जावान मंदिरों में उत्तराखंड का केदारनाथ ज्योतिर्लिंग, थल केदार तथा पाताल भुवनेशर शिवालय प्रमुख है।

महर्षि कश्यप की तपोभूमि कश्मीर राज्य में स्थित अमरनाथ भी प्राचीन ज्योतिर्लिंग है। स्कंदपुराण में 64 से अधिक ज्योतिर्लिंग शिवालयों की जानकारी गुम्फित है।

असंख्ययात्मक शिवलिंग को नमन करें-

इसके अलावा दक्षिण में मैंगलोर के पास धर्मस्थला, गोकर्णनाथ, वृद्धहेश्वर, तिरुपति के पास श्रीकालाहस्तीश्वर राहु मन्दिर,

कुम्भकोणम शिवालय इसके नजदीक त्रिनागेश्वरम, राहु केतु शिवलिंग घने वन में स्थित है।

फिलहाल हम थलकेदार, केदारनाथ, पाताल भुवनेशर की यात्रा करेंगे।

पाताल भुवनेश्वर भी है अनोखा शिवधाम…

जीवन में यहां एक बार अवश्य जाएं। पिथौरागढ़ जिले में पाताल भुवनेश्वर गुफा के अंदर स्थित ऐसा शिवालय है,

जिसे देखकर दांतों तले उंगली दवा लेंगे। यहाँ दुनिया के वैज्ञानिक आकर अचम्भित हो जाते है।

इसके अलावा मोस्तामाणु मंदिर, माँ कामख्या देवी का देवालय, मां काली हट कालिका मंदिर, कपिलेश्वर शिंवलिंग,

नकुलेश्वर शिवमंदिर तथा गुरना माता मंदिर, आदि के भी दर्शन भी कर सकते है।

ये पुष्प शिवलिंग है-

पिथौरागढ़ का थलकेदार स्वयं प्रकट शिंवलिंग, जो ज्योतिष से सम्बंधित है-

उत्तराखंड का पिथौरागढ़ प्राचीन तीर्थपीठ है। वहाँ बहुत से अनोखे और अदभुत शिवमंदिर हैं।

हम आज आपको एक दुर्लभ शिंवलिंग के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं।

एक गुमनाम शिवालय थलकेदार…शायद अभी तक थलकेदार शिवालय के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं यह एक अत्यंत प्राचीन शिवमंदिर, जो हजारों वर्षों से गुमनाम है।

यह शिवालय थलकेदार पहाड़ी के किनारे, पिथौरागढ़ से मात्र 17-18 km दूर स्थित हैं।

लाखो वर्ष प्राचीन है ये शिंवलिंग- आदिकालीन अत्यंत अनोखा थलकेदार शिवमंदिर का उल्लेख स्कन्द पुराण के चौथे खण्ड में 84000 स्वयम्भू शिवलिंगों में से एक है।

स्कंदपुराण की रचना शिवभक्त, शिव के ज्येष्ठ पुत्र भगवान कार्तिकेय ने की थी।

अपने गुरु महर्षि समुद्र से सामुद्रिक शास्त्र हस्तरेखा का गयं प्राप्त कर यह पुराण महर्षि अगस्त्य को सुनाया था।

यह दुनिया का सबसे बड़ा ग्रन्थ है। इसमें ज्योतिष, हस्तरेखा, भाग्य-दुर्भाग्य, ग्रह-नक्षत्र शांति के अनेकों उपाय बताए हैं।

भारत में प्रसिद्ध सत्यनारायण की कथा, व्रत-अपवाद का कादि का वैज्ञानिक महत्व, लाभ सब कुछ स्कंदपुराण में भर हुआ है। शिवमन्दिरों का सन्सार देखें

थलकेदार की थ्योरी….यह शिवलिंग मंदिर समुद्र तल से 2000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। ये शिवालय धर्मपीठ के अलावा पूरे शहर का शानदार दृश्य भी प्रदान करता है।

थलकेदार मन्दिर से जुड़े किस्से- ऐसा कहा जाता है कि परम् शिव भक्त पेशवा नाना साहब ने अंग्रेजों से बचने के लिए पंचेश्वर रास्ते से थलकेदार तक पहुंचे थे ।

उत्तराखंड के रहस्यमयी तीर्थ के मुताबिक यहां की कहानी अनेक हैं, जैसे-

  • ज्योतिष का सबसे चमत्कारी ग्रन्थ भृगु सहिंता का कुछ भाग महर्षि भृगु ने यहीं लिखा था।
  • कुछ जानकार ज्योतिष की सिद्धि के लिए यह स्थान विशेष पवित्र मानते हैं।
  • जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भजन ऋषभ देव जी ने यहां भगवान शिव के दर्शन पाए थे और इन्हीं के निर्देश पर कैलाश धाम को प्रस्थान किया था।
  • यहां शिवभक्त सप्तऋषियों ने तप किया था।
  • दशानन रावण ने “मन्त्रमहोदधि” एव रावण सहिंता नामक ग्रथ के कुछ हिस्सो की रचना यहीं की थी।
  • केदारखण्ड ग्रन्थ के मुताबिक दशानन रावण से, भगवान शिव ने अमूल्य ग्रन्थ स्वयं लिखवाए थे।
  • ऐसा भी कहते हैं की सिख धर्म के प्रवर्तक श्री गुरुनानक देव जी इस स्थान को खोजा था।

उपरोक्त सब जानकारी स्कन्द पुराण के अलावा थलकेदार के नजदीक रहने वाले सिद्ध सन्तों, पण्डों-पुजारियों द्वारा बताई गई है।

कैसे जाएं थलकेदार शिवमन्दिर…परिवार के साथ जाना मुश्किल भरा है। घने एकांत, वन-जंगलों से होते हुए पिथौरागढ़ से बराम्बे रास्ते होते हुए

कथपटिया नामक गांव से होते हुए लगभग 7 किलोमीटर पदयात्रा करके बहुत ही प्राकृतिक स्वयम्भू तीर्थ “थलकेदार शिव मंदिर” में जा सकते है।

थलकेदार शिवालय से करीब 1 km किमी की दुरी तक बेहतरीन व प्राकृतिक हिम प्रपातों तथा पर्वतों को देखकर आनंदित हो जाएंगे।

शिव उपासकों से आग्रह….

हर प्रश्न, भय-भ्रम का उत्तर,उत्तराखंड में है यदि आप शान्तिपूर्ण तरीके से इस क्षेत्र की यात्रा करें। तीर्थयात्रियों द्वारा बहुत समय से यह गलती की जा रही है

कि वे एक बार में ही 7 से 10 दिन के अंदर छोटे चारो धाम की यात्रा करते हैं, जो अनुचित है। एक धाम के आसपास इतने सिद्ध स्थल हैं

कि उनके दर्शन में कम से कम 10 या 12 दिन का समय लग सकता है।

प्रयास और प्रवास से पाएं सफलता

उत्तराखंड को परखने, देखने, समझने में एक जीवन भी कम प्रतीत होगा, यदि आराम से यात्रा करें। एक बात ओर याद रखे की यहां भ्रमण का आनन्द कम उम्र में ही है।

अधिक उम्र वालों को जल्दी थकावट हो सकती है। क्यों की यहां के बहुत से दुर्लभ मन्दिर बहुत चढ़ाई पर हैं, जहां परम आनंद की अनुभूति होती है।

शिवभक्ति में उतरने वाले को यहां हर प्रश्न का उत्तर अपने आप मिल जाता है।

स्वयम्भू शिवालयों का सन्सार है यहां….

पिथौरागढ़ जिले में लगभग 108 से अधिक सिद्ध तीर्थ और शिवालय हैं, इनकी यात्रा के लिए कभी अकेले 12 से 15 दिन का समय निकालें।

केदारनाथ हजारों सालों तक वर्ष में दबा रहा…

पवित्र नदी मंदाकिनी के किनारे नदी एवं घनघोर बर्फ से लबालब हिम चोटियों का खूबसूरत नजारा केवल केदारनाथ में देखने को मिलता है।

वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून के वैज्ञानिकों की मान्यता है कि केदारनाथ की दीवारों पर पीली रेखाएं इस क्षेत्र में हिमनदी की गतिविधियों के निशान हैं।

छह शिवालय के दर्शन करने पर ही एक सम्पूर्ण ज्योतिर्लिंग की यात्रा पूर्ण होती है-

बहुत कम जानते हैं कि केदारनाथ में मात्र शिवजी का धड़ है। मुखः नेपाल के पशुपतिनाथ में है। स्कंदपुराण के अनुसार पांच अंग पांच अलग-अलग स्थानों पर हैं।

रूद्रनाथ में मुख, तुंगनाथ में हाथ, मध्यमेश्वर में पेट, कल्पेश्वर में जटाएं और केदारनाथ में कूबड़ प्रकट हुआ।

केदारनाथ ज्योतिर्लिंगों में से 11 वां ज्योतिर्लिंग तथा पंच केदार में से एक है, जिसकी मान्यता अभी ज्योतिर्लिंगों में से सबसे अधिक है।

यहां भगवान शिव की पूजा विग्रह रूप में की जाती है जो भैंसा की पीठ जैसा त्रिकोण आकार रूप में है। भैसा को ही केदार कहते हैं।

ज्योतिष समुच्चय एवं गरुड़ पुराण के अनुसार अगर 41 दिन भैस को चने खिलाएं, तो व्यक्ति अवसाद या डिप्रेशन से मुक्त होता है और फिर कभी मानसिक परेशानी नहीं होती।

केदारनाथ के पास लगभग सभी तीर्थ मंत्रमुग्ध करने वाले हैं। शुरुआत करते हैं -कालीमठ से यह स्वयम्भू काली माँ का मंदिर है जो पाताल के अंदर है।

कवि कालिदास कजन्म स्थान पास के गाँव में ही है।

कालिदास ने काली की घोर तपस्या की थी।

कालीमठ से एक रास्ता बहुत ही खतरनाक पहाड़ी की तरफ मदमहेश्वर की तरफ जाता है। जो कालीमठ से 24 किलोमीटर की पदयात्रा है। रास्ते में एक चट्टान परब प्राकृतिक श्रीयंत्र उत्कीर्ण है।

मदमहेश्वर, रुद्रनाथ, तुंगनाथ, केदारनाथ ओर पशुपति नाथ नेपाल ये पांच शिवालय के दर्शनबक बाद केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की यात्रा पूर्ण होती है।

फिलहाल 2013 से मेरा केदारनाथ जाना नहीं हुआ है। इसके पूर्व 1995 से 2013 तक नियमित जाना रहा।

कालीमठ से कुछ दूर पहले गुप्तकाशी शिव मंदिर है। यहां गौमुख से पानी निकल रहा है।

आगे चलेंगे, तो त्रियुगीनारायण बक दर्शन करें। यह शिव-पार्वती का विवाह हुआ था। यहां आज भी सतयुग के समय की अग्नि जल रही है। प्रसाद में यहां हवन में केवल लकड़ी अर्पित करते है।

गौरीकुंड से लगभग ऊंची पहाड़ी पर दिरकते गणेश का पहाड़ी पर मन्दिर है। यहां इंकावग्ला काटा था। गौरीकुंड से केदारनाथ की यात्र शुरू होती है। अद्भुत नजारा देखते जाएं। बादलों में अनेको आकृतियां बनती-बिगड़ती रहता है।

केदार नाथ के आधे रास्ते में रामद्वारा तरह में स्थित एकवसाधु की कुटिया है। इनके दर्शन करें। यह से केदारनाथ की यात्रा बहुत सुगम है। ज्यादा चढ़ाई नहीं है।

केदार नाथ पहुंचकर ओदक कुंड के दर्शन करें। इसी कुंड में ज्योतिर्लिंग पर चढ़ा हुआ, जल, दूध, घी इसी कुंड में इक्ट्ठा होता है। हो सके, तो ओदक कुंड का जल घर में लाकर छींटा मारने से खतरनाक वास्तुदोष मिट जाता है।

केदार धाम में सुबह 4 से 65 बजे के बीच रुद्राभिषेक किया जाता है, उसके बाद पहन रूपी शिवलिंग पर घीबक लेप कर श्रृंगार, नैवेद्य, आरती होती है।

मन्दिर प्रागढ़ में प्राचीन कालीन ईशानेश्वर शिवलिंग पर बैठकर ज्ञान की प्रार्थना करें। केदारनाथ के दर्शन उपरांत रतिकुण्ड, भैरोनाथ के दर्शन करना न भूलें।

वेदों में लिखा है-

!!ईशानां सर्व विद्या नां, ईश्वरा सर्वभूतानां!!

अर्थात ईशान कोण में सृष्टि की समस्त विद्याओं का तथा ईश्वर शिव में सभी पंचमहाभूतों का वास है।

दूसरे दिन किसी साधु की टोली के साथ 4 km की पहाड़ी पर स्थित ब्रह्मकमल ओर उसके आगे वासुकी ताल के दर्शन अवश्य करें। यहीं से मानसरोवर के भी दूर से दर्शन कर सकते हैं।

कालसर्प के निर्माता राहु ग्रह के 4 स्वयम्भू शिवालय जानकर आप रोमाँचित हो जाएँगे….

दक्षिण भारत में राहु के कुछ शिवालय और मंदिरों में सूर्य ग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण के समय तथा सूतक व दुष्काल के समय विशेष पूजा-प्रार्थना, कालसर्प की शांति, अनुष्ठान आदि किये जाते हैं ।
राहु के ‎इन तीर्थों, शिवमंदिर और शिवालय के नाम इस प्रकार हैं –
5 लाख वर्ष पुराना शिवालय —
【1】 ‎ श्री कालहस्तीश्वर मन्दिर ,
यह तिरुपति बालाजी से लगभग 35 km दूर है। मंदिर में सौ स्तंभों वाला मंडप है, जो अपने आप में अनोखा है। अंदर स्वयम्भू सहस्त्र शिवलिंग भी स्थापित है।

श्रीकालहस्ती मन्दिर का उल्लेख शिवपुराण
स्कंध पुराण तथा लिंग पुराण जैसे पुराने पुराणों में भी मिलता है। यह मंदिर राहुकाल पूजा के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।
इस मंदिर में श्री गणेश श्रीकृष्ण, श्री राम, लक्ष्मण, सीता, सप्तऋषि, यमराज, नाग, हाथी, शनिदेव, भगवान और कार्तिकेय द्वारा स्थापित शिंवलिंग के दर्शन कर सकते है।

यहां एक पाताल गणपति का मन्दिर भी है, जो जमीन से 100 फुट गहरा है। नीचे जाने के लिए 1 फिट का जीना है।

कैसे पड़ा नाम- किस्सा है कि इस स्थान का नाम तीन पशुओं के नाम पर किया गया है।
– श्री का अर्थ है मकड़ी,
– काल कहते हैं नाग को और
– तथा हस्ती को संस्कृत में हाथी कहा जाता है।
ये तीनों ही पशु यहां शिव की आराधना करके मुक्त हुए थे। पुराणों के अनुसार श्री यानि मकड़ी ने शिवलिंग पर तपस्या करते हुए जाल बनाया था और नाग ने शिवलिंग से लिपटकर शिव आराधना की और हाथी ने शिवलिंग को जल से स्नान करवाया था।

कालहस्ती परिसर में श्लोक शिंवलिंग-
महर्षि व्यास द्वारा इस शिंवलिंग पर 18 पुराण, चारों वेद का उच्चारण करते हुए रुद्राभिषेक किया था।
यह मंदिर लगभग 5 km में फेला हुआ है।
श्री कालहस्ती के आसपास के प्राचीन तीर्थ इस स्थान के आसपास अनेको प्राचीन धार्मिक स्थल हैं। विश्वनाथ मंदिर, भक्त कणप्पा मंदिर, मणिकणिका मंदिर, सूर्यनारायण मंदिर, महर्षि भारद्वाज तीर्थम, कृष्णदेवार्या मंडप, श्री सुकब्रह्माश्रम, वैय्यालिंगाकोण (सहस्त्र लिंगों की घाटी), पीछे के पर्वत पर तिरुमलय स्थितहै। यहां नजदीक में दुर्गम मंदिर और दक्षिण काली मंदिर प्रमुख हैं।

एक हैरान करती सच्चाई–
【2】 ‎त्रिनागेश्वरम– राहु मन्दिर
जो मूल ‎नागेश्वर ज्योतिर्लिंग भी है। इस मंदिर में चढ़ाया गया दूध, अपना रंगवबदल लेता है। एक हैरान करती सच्चाई यह कुंभकोणम (तमिलनाडु) से 8 या 9 km है।
यहां प्रतिदिन राहुकाल में शिवरूपी राहु नाग प्रतिमा का अभिषेक किया जाता है।

विशेष बात यह है कि जो दूध अर्पित करते है, तो वह जहरीला यानि नीले रंग का हो जाता है। जब भगवान शिव का दूध से अभिषेक किया जाता है तो दूध नीले रंग में बदल जाता है जो साफ दिखता है।
यहां ईश्वर को नागनाथ स्वामी तथा माता पार्वती को गजअंबिका के नाम से जाना जाता है।
राहु की हैं दो पत्नियाँ–
राहु यहां अपनी दो पत्नी नागवली व नागकणि के साथ है। यहां की विशेषता यह है कि यहां राहु मानव चेहरे में है। यहां राहुदेव ने शाप से छुटने हेतु भगवान भोलेनाथ की पूजा की थी
इस मन्दिर परिसर में 12 दुर्लभ पानी के तीर्थ है।
जिनके नाम हैं-
1- सूर्य पुष्पकरिणी, 2- गौतमतीर्थ,
३- पराशर तीर्थ,
4- इन्द्रतीर्थ, 5- भृगुतीर्थ,
6- कन्व्यतीर्थ, 7- वशिष्ठ आदि।
समय पर शादी कराता है राहु-
कहते है कि राहु काल में प्रतिदिन डेढ़ घंटा दूध द्वारा राहु का अभिषेक करने से शादी समय पर हो जाती है। जिन्हें बच्चे नहीं होते उनको सन्तति मिलती है। वैवाहिक जीवन की तकलीफ दूर होती है।

तीसरा है शेषनाग शिवालय —
यहां राहुकाल में जलाए जाते हैं, हजारों दीपक
‎【3】केरल के हरिपद में ‎मन्नारशाला नागमन्दिर है
यह केरल में नाग की पूजा करनेवाले सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।
‎यहां करीब 50 हजार नाग प्रतिमाएँ हैं। यह मंदिर नागराज और नागयक्षि को समर्पित है साथ ही भारत के 7 आश्चर्यों में एक है। इस मंदिर में यहां तक नजर जाती है, वहां तक केवल और केवल नाग ही दिखाई देते हैं।
‎इन सभी राहु शिवालयों में यहां प्रतिदिन राहुकाल
‎में तथा ग्रहण काल में राहुकी तेल के हजारों
‎दीप जलाकर दीपम पूजा, दीपदान पूजा विधान
‎किये जाते हैं।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के अलावा यहां प्रतिदिन कालसर्प, पितृदोष शान्ति हेतु राहुकाल में ‎इसकी शांति हेतु विशेष पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बड़े से बड़े दुःख-दुर्भाग्य का नाश होता है।

दुर्भाग्य किसे कहते हैं?
‎दुर्भाग्य का अर्थ है-
जो लोग मेहनत, भाग-दौड़ से दूर भागते हैं, उनसे भाग्य दूर हो जाता है। इसे ही दुर्भाग्य कहते हैं। आलस्य-प्रमाद, सुस्ती और दूरदृष्टि की कमी के कारण जीवन परेशानियों से घिर जाता है।

दुर्भाग्य का कारण–
पूर्व जन्म के पाप-पश्चाताप, माँ, बहिन, पत्नी या अन्य
‎दुर्गा स्वरूप स्त्री का दिल दुखाना, दुष्टता, दगाबाजी, दबंगता, दर्द देना, दीनहीन और दयावान नहीं होना आदि के कारण भाग्य को ‎रहस्यमयी बनाकर
‎राहु हमारा रास्ता रोक देते हैं ।
‎ अतः कष्ट-क्लेशों, दुःख-दारिद्र से स्थाई मुक्ति तथा विशेष भाग्योदय के लिये
‎ “अघोरी की तिजोरी”
‎से प्राप्त अद्भुत चमत्कारी उपाय अवश्य करके देखें ।
खराब किस्मत के लक्षण-
दुर्भाग्य अर्थात दूर+भाग्य यानी भाग्य साथ नहीं देता।
दुर्भाग्य के आते ही सब अपने, पराये दूरबभाग्य जाते हैं ।
‎दुर्भाग्य का मूल कारक ग्रह एवं कारण राहू देव ही हैं, इनकी अशुभता से व्यक्ति भगवान से भी दूरी बनवा देता है।
राहु की क्रूरता –
‎ कष्ट-क्लेश, दुःख-दारिद्रबरोग-शौक़, हानि-परेशानी,
‎बेकार जवानी, कर्ज-मर्ज इन सबका कारक और दाता
‎राहू ही है, जो भय-भ्रम, मुकदमे बाजी में बर्बादी,
जेलयोग, पुलिस का भय,बबवासीर, केन्सर और मधुमेह
जैसे असाध्य रोग, पैदा कर पथभ्रष्ट और पथहीन कर
उन्नति के रास्ते, सफलता की ‎राह रोककर, बार-बार रोड़े ‎अटकाता है।
स्कन्द पुराण में इसे ही कालसर्प, पितृदोष, दरिद्र दोष कहा गया है।

राहु बनाये मालामाल यह ज्ञान सर्वविदित

क्या आप जानते हैं?
राहु के रहम से ही व्यक्ति रहीस बन सकता है। राहु यदि शुभ है, तो जो भाग्य में है, तो वह भागकर एक दिन
अपने पास जरूर आता है और यदि राहु अशुभ है, तो धन-सम्पदा, यश- कीर्ति सौभाग्य आदि आकर
‎भी भाग जाएगा। नष्ट हो जाता है।

सौभाग्य जगाने के लिए…सौ तरफ भाग-दौड़ करते रहो। सौ तरह के प्रयास करो! अतः कर्म करो, कष्ट काटो
‎प्रसन्न-मन अमृतम जीवन-का यही उपाय है।

  • राहु जब हो अशुभ, तो देता है ऐसे संकेत। इसकी अशुभता देती है गरीबी जाने 9 वजह–
  • *- पल भर में ऐश्वर्य हीन हो जाना,
  • *- अचानक धन का नाश,
    *- शेयर-सट्टे से बर्बादी,
    *- किसी अपनों के द्वारा नुकसान पहुंचाना
    *- दुश्मनों द्वारा बर्बाद करने की योजना बनाना,
    *- अकस्मात रोगों से धिर जाना,
    *- बहुत बड़ी मुसीबत आना,
    *- शादी में विलंब भी राहु दोष का ही एक लक्षण है।
  • *-वैवाहिक जीवन में तनाव और विवाह के बाद तलाक की स्थिति भी राहु पैदा करता है।
    उपरोक्त ये सब समस्याएं राहु का ही दुष्प्रभाव के कारण होता है।
    रहम या दया नहीं करता राहु–
    【१】 ‎रोज-रोज रोजा रखने की मजबूरी
    यानि भूखे रहकर दिन गुजारना,
    【२】 ‎रो-रोकर रहना, अर्थात आर्थिक तंगी,
    【३】 शारीरिक एवं मानसिक परेशानियां
    【४】 घुट-घुट कर जीना
    【५】रिश्तेदारों की रुसवाई
    【६】 प्यार में वेवफाई,
    【७】 पेट की बीमारियां
    【८】 दुश्मन हो जाए भाई,
    ‎【९】किसी की भी मदद नहीं मिलना,
    【१०】 अपने-परायों का रहम (दया) नहीं करना,
    【११】 आये दिन एक नई उलझन खड़ी होना यह सब राहु के ही काम है।

रंक से राजा बनाता है राहु-
दुःख-दरिद्रता मिटाकर, गरीब से गरीब को
अमीर बनाना, राजनीति में अपार सफलता दिलाना राहु का काम है।

राहुकाल में शिव पूजा से प्रसन्न होते हैं राहु–
शिव की कठोर साधना एवं शुभ कर्म होने से
राहु के शुभ प्रभाव एक न एक दिन जरूर
दिखने लगते हैं।
राहु गरीब से गरीब आदमी को ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
अमीर और अरबपति बनाने की क्षमता केवल राहु के पास ही है। ये अथाह धन-सम्पदा देते है। संसार की सम्पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा, सुविधायें राहु की शुभता से निश्चित मिलती हैं। राहु की कृपा से राजनीति में अपार
सफलता मिलती है। यश-कीर्ति, प्रसिद्धि के राहु
दाता है।
राह दर्शक राहु–

ज्योतिषशास्त्र में शनि, मंगल, केतु और राहु को पाप ग्रह के रूप में बताया गया है। कुण्डली में अगर इनकी स्थिति ठीक नहीं हो तो जीवन में बार-बार उलझन और समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

राहु ऐसा पाप ग्रह है जो आपकी बुद्घि को सही से काम नहीं करने देता और गलत निर्णय के कारण बार-बार नुकसान उठाना पड़ता है।
राहु ही सही राह, दिखाकर जीवन हरा-भरा बनाते हैं ।
राहु ही ‎सिद्धि-समवृद्धि के सर्वाधिक साधक हैं। राहु ही इसके मालिक भी हैं!
‎इंसान ओर भगवान के कर्म व धर्म, सबका
‎डाटा राहु के पास सुरक्षित है।

भगवान और सूर्य-चंद्र को भी नहीं छोड़ते राहु–
‎भगवान सूर्य एवं चंद्रमा भी गलती करते हैं, तो
‎उन्हें भी राहु नहीं छोड़ते, ग्रहण लगाकर इन्हें भी
‎पीड़ित कर देते हैं।

गलती और दुष्कर्म के दुष्परिणाम–
‎प्रकृति के विरूद्ध जो भी जाता है, ‎राहु उसे परेशान कर
‎सही मार्ग पर लाते हैं, फिर चाहें ईश्वर हो इंसान।
‎प्राणी हो या परमात्मा!
‎जब सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा पर ग्रहण लगता है, तो 10-12 घंटे पूर्व सूतक ‎लग जाता है। इसे दुष्काल समय भी कहते हैं, इस समय खाना-पीना, सोना निषेध होता है !
‎सभी मंदिरों के पट-द्वार बन्द हो जाते हैं।
‎पूजा पाठ स्थगित कर रोक दिया जाता है।

राहु के दोषों से बचना है, तो श्रीकालाहस्ती शिवालय में करें पूजा-रुद्राभिषेक, पुष्पार्चन…

दुनिया का अद्भुत और दुर्लभ शिवमंदिर, जहां सूर्यग्रहण के समय होती है शिवपूजा- क्या आप दुनिया में एक मात्र राहु के शिवालय के बारे में जानते है, जहां सूर्यग्रहण के समय भी भगवान भोलेनाथ शिव का रुद्राभिषेक किया जाता है।

यहां प्रतिदिन कालसर्प, पितृदोष शान्ति हेतु राहुकाल
में ‎इसकी शांति हेतु विशेष पूजा-अर्चना की जाती है
जिससे बड़े से बड़े दुःख-दुर्भाग्य का नाश होता है।

【4】राहु का मन्दिर-
राहु का कटा सिर इसी स्थान पर गिरा था।
उत्तराखंड के कोटद्वार से लगभग 150 किलोमीटर दूर पैठाणी गांव में स्थित इस राहु मंदिर के बारे में कहा जाता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान राहू ने देवताओं का रूप रखकर छल से अमृतपान किया था, तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर धड़ से अलग कर दिया, ताकि वह अमर न हो जाए।
ऐसी मान्यता है कि राहू की कैसी भी दशा हो यहां आकर पूजा करने से महादशा दूर हो जाती है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण की माने, तो राहु का देश राठपुर था जिस कारण यह क्षेत्र राठ तथा राहु के गोत्र पैठीनसि से इस गांव का नाम पैठाणी पड़ा होगा।

पश्चिममुखी इस प्राचीन मंदिर के बारे में यहां के लोगों का मानना है कि राहू की दशा की शान्ति और भगवान शिव की आराधना के लिए यह मंदिर पूरी दुनिया में सबसे उपयुक्त स्थान है।

कैसे मिले सुख और सफलता —

दुःख-दारिद्र मिटाने और राहु-केतु की पीड़ा से पीछा छुड़ाने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय: -जीवन में सफलता के लिए पंचतत्व की कृपा बहुत आवश्यक है, क्यों कि इन पर राहु का अधिकार है।
पंचमहाभूतों की दया पाने के लिए रोज राहुकाल में “राहुकी तेल”
का दीपदान कर, बड़े से बड़े दुर्भाग्य
को दूर किया जा सकता है।

कैसे बनता है राहुकी तेल–
अमृतम फार्मास्युटिकल्स ने राहु की शान्ति
के लिए राहुदोष नाशक जड़ीबूटियों
जैसे नागबल्ली, चिड़चिड़ा, वंग, नागदमणि,
काले तिल सर्पपुंखा, गरुण छाल, वरुण छाल,
सर्पगंधा, अश्वगंधा आदि का काढ़ा निकालकर कर राहु के
“आद्रा नक्षत्र” में काढ़ें से भगवान शिवकल्यानेश्वर का राहुकाल के दरम्यान वेद ध्वनि से रुद्राभिषेक कराकर काढ़े को तिल, सरसों, बादाम, के तेल में 18 दिन तक पकाया जाता है।
राहुकी तेल में राहु के दुष्ट और दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए बहुत सी वस्तुओं को मिलाया गया है। “राहुकी तेल” के रोज 5 दीपक 56 दिन तक नियमित जलाना सौभाग्य में सहायक होता है।

अतिशीघ्र गरीबी मिटाने का विशेष उपाय —

हर महीने की दोनों पंचमी, अष्टमी, एवं चतुदर्शी
तिथियों में अपने घर या शिवमंदिर में “राहुकी तेल” के अपनी उम्र के अनुसार दीपक जलावें।

‎अभी और भी “राहु के रहस्य” बाकी हैं
“दुःख और दुर्भाग्य के कारण”
तथा अधिक दुर्लभ जानकारी हेतु

अशोक गुप्ता “अमृतम”
www.amrutam.co.in

नवग्रह नष्ट करें नश्वर जीवन…
जीवन में नवग्रहों (देवता) का प्रभाव अति महत्वपूर्ण है। ये नवग्रह सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु है। सूर्य सभी ग्रहों का प्रधान है तथा बाकी ग्रह सूर्य से ही ऊर्जा पाते हैं।
ज्योतिष ग्रन्थ जातक-परिजातक के अनुसार
सूर्य केंद्र में स्थित रहते हैं। चन्द्रमा सूर्य के दक्षिण पूर्व में यानि आग्नेय कोण में रहते हैं। मंगलग्रह सूर्य के दक्षिण में, बुधग्रह सूर्य के उत्तर पूर्व यानि ईशान कोण में, बृहस्पति अर्थात गुरु ग्रह सूर्य के उत्तर दिशा में, शुक्रदेव सूर्य के पूर्व दिशा में, शनि सूर्य के पश्चिम दिशा में, राहु सूर्य के दक्षिण-पश्चिम में यानि नैऋत्य कोण और केतु सूर्य के के उत्तर-पश्चिम में (वायव्य कोण) में स्थित होते हैं। इनमें किसी भी देवता का मुख एक दूसरे की तरफ नहीं होता।
लेकिन दुनिया का एक मात्र मन्दिर है, जहां सभी नवग्रह एक ही सीध यानी एक लाइन में स्थापित हैं।

नवग्रहों की नम्रता-
जीवन में नवग्रहों (देवता) का प्रभाव अति महत्वपूर्ण है। ये नवग्रह सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु है। यह सभी नवग्रह एक ही सीध में वेदेहीश्वरम कोयल शिवालय में लाखों वर्षों से खड़े होकर शिव की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह वैधनाथ मूल ज्योतिर्लिंग चिदम्बरम से 30 किलोमीटर दूर है।

इस ज्योतिर्लिंग के बारे में अगले ब्लॉग में पढ़े।
राहु को जल्दी प्रसन्न करना है, तो करें
इस मन्त्र का जाप
!! ॐ शम्भूतेजसे नमः !!
!! ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं !!
राहु का रत्न-गोमेद, तत्व-छाया, रंग-धुम्र, धातु-शीशा होते हैं।

स्वयम्भू शिंवलिंग की श्रृंखला…

ओरिजनल वैधनाथ धाम ज्योतिर्लिंग…

भारत में लगभग 4 से 5 वैधनाथ धाम स्थित हैं किंतु मूल वैधनाथ ज्योतिर्लिंग दक्षिण भारत के चिदम्बरम से करीब 38 किलोमीटर दूर “वेदेहीश्वरम कोइल” में स्थित है,

जहां सभी नवग्रह एक ही सीध या लाइन में बाबा वैधनाथ स्वागत हेतु खड़े हैं।

ओरिजनल भीमा और शंकर ज्योतिर्लिंग

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग एक नहीं, बल्कि दो हैं। भीमा औऱ शंकर ये दोनों ज्योतिर्लिंग दातावरम और कुमारावरम में दोनों एक दूसरे से 30 किलोमीटर की दूरी पर हैं।

शंकर ज्योतिर्लिंग समुद्र तट पर है, जहां पानी के जहाज बनते हैं। यह दोनों मूल ज्योतिर्लिंग

विशाखापतन्नम से 400 किलोमीटर दूर हैदराबाद मार्ग पर जंगल में समुद्र किनारे स्थापित हैं।

महाराष्ट्र का भीमाशंकर स्वयम्भू शिंवलिंग है, क्यों कि गुरु गोरखनाथ ने वहां तप किया था। लेकिन मूल ज्योतिर्लिंग नहीं है।

काशी के कलाकार हैं शिव…

काशी में चित्र-विचित्र और अटपटे नामों वाले शिंवलिंग हैं इसलिए ही इसे शिव की नगरी कहा जाता है।

काशी दर्शन के समय कुछ प्राचीन शिंवलिंग, तो ऐसे थे जिसमें ब्राह्मणों की गृहस्थी वास कर रही है।

दुर्लभ शिंवलिंग खोजने के लिए यहां बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। काशी का इतिहास, स्कन्ध पुराण, शिवपुराण आदि ऐसा कोई प्राचीन ग्रंथ नहीं है

जिसमें काशी के सन्त औऱ शिंवलिंग की चर्चा न हो। काशी खण्ड नामक पुस्तक में भी अनेकों शिवलिंगों का उल्लेख है।

इस लेख में हम आपको काशी तीर्थ की यात्रा करायेंगे। पाठक गण यहां के मंदिरों के नाम पढ़कर भौचक्के हो सकते हैं।

यहां शिंवलिंग साधू-सन्याशी चित्र-विचित्र एवं अनोखे हैं। काशी का अपना इतिहास भी है।

संस्कार, संस्कृत भाषा की रक्षा और हिन्दू धर्म का वैज्ञानिक आधार एवं प्रचार में काशी के विद्वान ब्राह्मणों का भारी योगदान है।

देश की संस्कृति और परम्परा बनाये रखने में इनका योगदान अमूल्य है। बनारस की गंगा आरती के लिए देश-विदेश के असंख्य दर्शनार्थी बनारस आने के लिए सदैव आतुर रहते हैं।

काशी में लोगों के माथे यानि मस्तिष्क को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे शिवजी ने उन्हें त्रिपुण्ड के रूप में मस्तक पर रख लिया हो।

कुश और काश के जंगलों से भरी होने के कारण भी इसका नाम काशी पड़ा हो। कुश घास को पूजा में अति पवित्र माना जाता है।

पूजा-अनुष्ठान के पूर्व कुश की पवित्री उंगलियों में पहनकर तन-मन का पवित्रीकरण करते हैं।

काशी का पुराना सप्तसागर मोहल्ले में कुछ समय पूर्व तक सात समुद्रों के कूप और मन्दिर थे, जहां “सप्तसागर” महादान पूजा आदि होती थी।

मथुरा, प्रयाग, पाटिलीपुत्र एवं उज्जैन में भी ऐसे सप्त कूपों का वर्णन मत्स्य पुराण के अध्याय २८७ में भी है।

अथर्ववेद में काशी को केतु ग्रह की नगरी कहा है। यह सत्य भी हो सकता है क्यों कि केतु धर्म का विशेष कारक ग्रह है।

सन्सार से मोह भंग करने केतु का ही काम है। काशी में जितने गृहस्थ लोग रहते हैं उससे दुगने यहां साधु-संत, महात्मा हैं। एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है:

राढ़-साढ़, सन्यासी, मिलेंगे मथुरा काशी।

व्यंग रूप में कहने का आशय यही है कि इन जगहों पर ये तीन सबसे ज्यादा हैं।

काशी का सबसे महत्वपूर्ण मन्दिर अविमुक्तेश्वर शिंवलिंग था जिसे देवदेव स्वामी भी कहते थे।

वनपर्व ८४-१८ में लिखा भी है….

अविमुक्तं, समासाद्य तीर्थसेवी कुरुद्वह।

दर्शनाद देवदेवस्य मुच्यते ब्रह्महत्यया।।

अर्थात अविमुक्त नामक स्थान पर यात्री दर्शन कर स्वयं को धन्य समझता था। काशी की प्राचीन स्वयम्भू शिवलिंगों में गभस्तीश्वर,

श्री सरस्वताश्वर यह रावण के पूर्वजों द्वारा खोज गया था। सारस्वत ब्राह्मण रावण परम शिवभक्त थे।

रुद्राभिषेक में भी “सारस्वत च मे” अर्थात शिव जी कहते हैं कि- ब्राह्मणों में सारस्वत गोत्री भी में ही हूं।

ऐसा प्रतीत होता है कि कभी सारस्वत ब्राह्मण शिव के परम् उपासक रहे होंगे। या फिर भगवान शिव का यही गोत्र हो। अतः ब्राह्मण अपनी वंशावली से पता लगा सकते हैं।

योगेश्वर, पीतकेश्वर स्वामी शिंवलिंग, भृंगेश्वर, बटुकेश्वर स्वामी, कलसेश्वर, कर्दमरुद्र और श्री स्कन्दरुद्र स्वामी यह सब देव मंदिर हैं।

ब्राह्मण ग्रंथों में इनका उल्लेख है।

चलना ही जिंदगी है….

जीवन में जब कभी भी मुझे मौका या समय मिला, तब-तब काशी पहुंच जाता। बनारस का रस शिव की भक्ति में है।

मैंने कभी यात्रा और मात्रा पर दिमाग नहीं लगाया, जब जितना मिला, उससे मेरा काम चला, क्योंकि यात्रा, तो अनंत है।

जीवन-मृत्यु यात्रा ही है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें ८४ लाख योनियों में कई जन्मों से भटक रहे हैं, पर

हर चीज की मात्रा निर्धारित है।

चाहें वह भोजन की हो या भजन की। दवा की हो या दुआ की। व्याकरण में मात्रा की जरा सी भूल अर्थ ही बदल देती है।

एक स्कूल के बाहर बोर्ड पर लिखा था…

“कल स्कूल बंद रखा जाएगा“। किसी शैतान बच्चे ने ‘र’ शब्द को ‘बन्द’ के साथ जोड़ दिया, तो उसका अर्थ बदलकर बन्दर हो गया

अर्थात- ‘कल स्कूल बंद रखा जाएगा’ के स्थान पर …”कल स्कूल ‘बन्दर’ खा जाएगा” हो गया।

जीवन में यात्रा और मात्रा का बहुत महत्व है।

यात्रा अंदर की हो या बाहर की । वन की जीवन की हो या व्यापार की। तीर्थ की हो या वन की हो जीवन की।

जीवन में तीर्थयात्रा का विशेष महत्व है।

विष्णु स्मृति ३०/६ में तीर्थयात्रा का फल अश्वमेध यज्ञ के समान माना है। बृहस्पति स्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है

कि जो स्थान या मन्दिर पवित्र नदी के किनारे स्थित हैं वही तीर्थ कहलाते हैं।

महाभारत अध्याय ७८/१५८ तीर्थ यात्रा पर्व में रावण के बाबा ऋषि पुलस्त्य, लोमश ऋषि, धौम्य और आंगिरस ने तीर्थयात्रा फल का वर्णन किया है।

मात्रा हर क्षेत्र में निश्चित है शब्दों या व्याकरण में, तो मात्रा का विशेष महत्व है ही साथ में भोजन की,

दवा-दारू, दान मान सम्मान, समान की, जल, दूध, ओषधि, सबकी मात्रा निश्चित है।

शिंवलिंग की खोज मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य रहा। बचपन में पिताजी भी कहा करते थे-शिव बिना सब शव समान है।

मानव का बर्थ इस शर्त के साथ हुआ कि वह केवल शिव को साधे। बाकी सब व्यर्थ और अनर्थ है।

बनारस के शिवालय का महत्व इसलिए भी ज्यादा है कि हर एक शिव मंदिर में स्नान, संकल्प, प्रार्थना, दान,

जप, पूजा तथा पिण्डदान, तर्पण और श्राद्ध तुरन्त फलदायक हैं। किस शिवालय में क्या करना लाभकारी है।

पैप्पलाद शाखा, ५/२२/१४ मनु २/११,

कौशीतकी उपनिषद १/३००-७१५, १००-५

के अनुसार काशी के राजा अजातशत्रु थे, जिन्होंने स्वयम्भू शिवमंदिरों का सर्वाधिक

जीर्णोद्वार कराकर शिव भक्ति का प्रचार किया।

काशी में पांच विनायक मन्दिर भी स्वयं प्रकट हैं। लिंग पुराण के अनुसार अवि यानि पाप मुक्त क्षेत्र होने के कारण इसे अविमुक्त भी कहते हैं।

कपालमोचन तीर्थ में पिण्डदान और श्राद्ध करने का महत्व गया बिहार से भी ज्यादा है। केतु ग्रह की शान्ति

के लिये यह बहुत चमत्कारी है।

केदार लिंग, म्हालयलिंग, मध्यमेश्वर, पशुपतिश्वर, शंकुकर्णेश्वर, गोकर्ण के दो लिंग, दुमिचण्डेश्वर, भद्रेश्वर, स्थानेश्वर,

एकाम्बरेश्वर, कामेश्वर, अजेश्वर, भैरवेश्वर, ईशानेश्वर यह कायावरोहण तीर्थ पर स्थित है।

महादेव मंदिर यह स्वयम्भू लिंग नगरी के पूर्वोत्तर भाग में है, जी आदि-महादेव के नाम से विख्यात है। इसी से लगा हुआ महादेव कूप था।

इसका जल वाणी शुद्धि हेतु चमत्कारी है। इसी कूप के पश्चिम में वाराणसी देवी की मूर्ति थी जिनके प्रसाद से लोगों के स्वयं के मकान तुरन्त बनते हैं।

गोप्रेक्ष – आदि महादेव के पूर्व दिशा में इस मंदिर के दर्शन से अशांति मिटती है।

अनुसूयेश्वर – माँ अनुसूया द्वारा पार्थिव शिवलिंग के रूप में स्थापित यह गोप्रेक्ष के उत्तर में है।

गणेश्वर – अनुसूयेश्वर के आगे है।

हिरण्यकशिपु शिवालय – भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप द्वारा पूजित यह स्वयम्भू शिंवलिंग पर रुद्राभिषेक करने से स्वर्ण की वृद्धि होती है। यह गणेश्वर के पश्चिम में है।

सिध्हेश्वर – हिरण्यकशिपु के पश्चिम दिशा में है।

वृषभेश्वर, दधिकेश्वर, दैत्यराज मधुकैटभेश्वर,

बालकेश्वर, विजरेश्वर, देवेश्वर, वेदेश्वर, केशवेश्वर, संगमेश्वर यह के संगम पर स्न्नान कर अभिषेक करने से दुर्भाग्य दूर होता है।

प्रयागेश्वर– ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित शिवलिंग।

शांकरी देवी का मंदिर इसी परिसर में ब्रह्म वृक्ष यानि पाकर पेड़ के नीचे है।

यह सब शिंवलिंग आसपास ही हैं। कुछ बहुत ही जीर्ण-शीर्ण हैं।

गंगावर्णा संगम– जब कभी श्रवण युक्त नक्षत्र में द्वादशी तिथि को बुधवार पड़े, तो यहां संगम पर स्नान,

अभिषेक व श्राध्द करने से क्रुरकाल खण्ड सुधरता है। कालसर्प दोष, पितृदोष की शान्ति हेतु यह अदभुत तीर्थ है।

कुम्भीश्वर – वर्णा के पूर्वी घाट पर स्थित स्वयम्भू शिंवलिंग है।

कालेश्वर-यहीं से पूर्व की तरफ नजदीक है।

कपिलह्वद शिवालय– कालेश्वर के उत्तर में है। नरक में पीड़ित पितृ गणों की मुक्ति हेतु यह सिद्धि दायक है।

 जिसकी पत्रिका में केतु खराब हो या पंचम भाव में स्थित हो उन्हें एक बार यहां श्राध्द अवश्य कराना चाहिए।

त्रिपिंडी और नन्दी श्राद्ध के लिए दुनिया में सिद्ध क्षेत्र है। जो लोग नासिक में कालसर्प की पूजा करा कर संतुष्ट नहीं हों उन्हें यह जरूर आना चाहिए।

स्कन्धेश्वर– मङ्गल दोष से पीड़ित अथवा मांगलिक जातक को यहां मंगलवार को मृगशिरा या धनिष्ठा नक्षत्र में गुड़, गन्ने का रस या मधु पंचामृत से रुद्राभिषेक करना चाहिए

यह आदि-महादेव शिवालय के पश्चिम में स्थापित है।

बलभद्रेश्वर– बलभद्र द्वारा स्थापित यहीं

स्कन्धेश्वर के नजदीक है।

नन्दीश्वर– स्कन्धेश्वर के दक्षिण दिशा की तरफ नन्दी द्वारा स्थापित है। जब कोई अधर्मी बहुत पीड़ा या दुःख पहुचाये,

तो यहां दही, भात, घी मिलाकर अर्पित कर किसी साढ़, बैल या नंदी को खिलाएं। गुरुवार के दिन। लाभ होने पर राहुकी तेल के 108 दीपक जलावें।

शिलाक्षेश्वर – शिव के वाहन नन्दी के पिता द्वारा स्थापित तथा वंदित शिंवलिंग। पुत्र की कामना हेतु यहाँ दही अर्पित कर किसी बुजुर्ग को खिलाएं।

पुत्र की प्राप्ति होने के बाद शनिवार के दिन 54 शीशी अमृतम तेल दान करें। या कशेर, चन्दन, गुलाब इत्र, बादाम तेल, जैतून तेल युक्त तेल की 54 शीशी दान कर सकते हैं।

हिरण्याक्षेश्वर– परम शिवभक्त हिरण्यकश्यप द्वारा स्थापित शिवलिंग, जो

शिलाक्षेश्वर के पास ही है। यहीं कभी देवताओं द्वारा हजारों शिंवलिंग थे।

स्वर्ण वृद्धि की मनोकामना पूर्ण होती है।

अट्टहास शिवालय– हिरण्याक्षेश्वर के पश्चिम में पश्चिमाभिमुख शिंवलिंग। इनके दर्शन से आत्म ज्ञान उपलब्ध होता है।

राजा विक्रमादित्य, आचार्य चाणक्य, भर्तहरि, आदि शंकराचार्य महाभारत के विधुर ने यही ज्ञान प्राप्त किया था।

अट्टहास के पास ही मित्रावरुणेश्वर नाम से दो शिंवलिंग हैं। इसी शिवालय में महर्षि

वसिष्ठ द्वारा पूजित वसिष्ठेश्वर तथा याज्ञवल्वयेश्वर चतुर्मुख लिंग हैं।

मैत्रेयीश्वर शिवालय याज्ञवल्वयेश्वर के समीप ही है। मैत्रेयी द्वारा खोज गया यह स्वयम्भू शिंवलिंग बहुत ऊर्जावान है।

याज्ञवल्वयेश्वर मन्दिर के पश्चिम दिशा की तरफ प्रह्लादेश्वर स्थापित है। इसके थोड़ा आगे स्वर्लीनेश्वर है,

जो ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि हेतु जाना जाता था। ऐसा बताते हैं कि जब किसी प्रसन्न का उत्तर खोज में रुकावट होने पर यहां रुद्राभिषेक करने पर स्वप्न में उसका उत्तर मिल जाता था।

आज भी यही शक्ति यहां विधमान है।

स्वर्लीनेश्वर के पास ही वैरोचनेश्वर शिंवलिंग है।

परम शिव भक्त बलि द्वारा स्थापित वाणेश्वर जो वैरोचनेश्वर के कुछ आगे है।

दैत्यों की परम पूज्य माँ राक्षसी शालकण्टकटा द्वारा स्थापित शिंवलिंग

शालकण्टकटेश्वर यहीं से नजदीक में है। इसी परिसर में हिरण्यगर्भ शिंवलिंग है।

कुछ फक्कड़ सन्त बताते हैं कि स्वर्ण निर्माण के लिए यहां अतिरुद्र अभिषेक करवाते थे। इसी के जल से स्वर्ण शोधन व निर्माण होता था।

इसी परिसर में मोक्षेश्वर, स्वर्गेश्वर, शिंवलिंग भी है।

वासुकी नाग द्वारा पूजित वासुकीश्वर चतुर्मुख शिवलिंग और वासुकी तीर्थ

मोक्षेश्वर से उत्तर की तरफ है। यहां स्नान तथा दर्शन से असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं।

इसी के समीप ही चंद्रेश्वर शिंवलिंग चन्द्रमा द्वारा स्थापित है।

जन्मपत्रिका में केमद्रुम दोष से मुक्ति के लिए पूर्णमा के चतुर्दशी या शुक्ल पक्ष की दोज को यहाँ रुद्राभिषेक कर सकते हैं १०० फीसदी राहत मिलती है।

 केमद्रुम दोष क्या होता है इसकी जानकारी अगले लेख में मिलेगी।

यहीं से पूर्व में विध्येश्वर, वीरेश्वर शिंवलिंग स्थापित है।

गंगा को धरती पर लाने वाले शिव भक्त भगीरथ के पूर्वज द्वारा स्थापित सगरेश्वर,

राम भक्त हनुमान द्वारा खोजा गया हनुमदीश्वर, भद्रदोहतीर्थ इसी के पश्चिम किनारे भद्रेश्वर, इसके नेऋत्य कोण में चक्रेश्वर शिवलिंग भी है।

शुलेश्वर के दर्शन से रुद्रलोक मिलता है।

नारदजी द्वारा स्थापित नारदेश्वर, धर्मेश्वर यहां दोनो जगह प्राकृतिक कुण्ड भी हैं।

विनायक कुण्ड यह मुर्गाबी गड़ही में है। इस कुण्ड में स्नान से विध्न दूर होते हैं। यहीं से उत्तर की तरफ अमरकहृद तीर्थ है।

यदि भूल से भी कोई पाप या दुष्कर्म हुआ हो, तो इससे मुक्ति के लिए अगरिया ताल के अमरकेश्वर के दर्शन जरूर करें।

शैलेश्वर, भीष्मचण्डिका, कोटितीर्थ श्मशान स्तम्भ कपालमोचन, कपालेश्वर इसे भैरवनाथ ने खोजा था।

इसी के उत्तर की तरफ ऋण मोचक तीर्थ में 3 शिंवलिंग के दर्शन से विभिन्न कर्जों से मुक्ति मिलती है।

 अंगारेश्वर या मंगलेश्वर के नाम से प्रसिद्ध शिंवलिंग के बारे में बताते हैं कि कभी चतुर्थी या अष्टमी को मंगलवार के दिन धनिष्ठा नक्षत्र पड़े,

तो यहां स्नान एवं रुद्राभिषेक करने से अनेकों ऋणों तथा केन्सर जैसा असाध्य रोगों से मुक्ति मिलती है। पास में ही विश्वकर्मेशर, बुधेश्वर हैं।

जैतपुरा के वागीश्वरी देवी मंदिर के नीचे बहुत छोटी गुफानुमा कोठरी में महामुण्डेश्वर स्वयम्भू शिवालय है।

यहां स्नान के समय शिवजी की मुंडमाला गिरने से इसका नामकरण हुआ था। इसी में खटवांगेश्वर शिंवलिंग व कूप है।

नजदीक में भुवनेश्वर उत्तराभिमुख शिंवलिंग है। महर्षि भृगु द्वारा स्थापित भृगविश्वर बड़ा शिंवलिंग है।

यहीं से दक्षिण में नंदीशेश्वर है, कपिलेश्वर

जहां सप्तऋषियों ने 1000 वर्ष तक शिव की तपस्या की थी।

मत्स्योदरी एवं श्रीकंठ पर स्वयम्भू शिवलिंगों अम्बार है। उद्दालक ऋषि, पराशर मुनि, वाष्कली मुनि, आरुणि, सावर्णि,

अघोर मुनि, जाबाल ऋषि आदि अनेकों सिद्ध महात्माओं ने इस स्थान पर सिद्धियां प्राप्त की थी।

रुद्रवास पर आद्रा नक्षत्र में स्नान से राहु का प्रकोप कम होता है।

पितरों की शांति एवं पिण्डदान हेतु रुद्रमहालय एवं पितरों द्वारा स्थापित मन्दिर में कालसर्प दोष की शांति होती है,

जो नासिक से भी ज्यादा जल्दी लाभकारी है।पिण्ड को कूप में डालकर पितृदोष से मुक्ति पाते हैं।

गुरु बृहस्पति द्वारा स्थापित ब्रह्स्पतिश्वर शिंवलिंग पास में है।

घासी टोले में गली के कोने पर कामेश्वर पंचालकेश्वर मन्दिर जो कि नलकुबरेश्वर के नाम से है।

यहां कुबेर के पुत्रों ने शिवजी की घोर आराधना की थी। यहां रुद्राभिषेक करने से धन वृद्धि की कामना एक वर्ष में पूर्ण होती है।

जहां शिवलिंगों की स्थापना का श्रेय देवी-देवताओं, किन्नरों, दैत्यों, राक्षसों, अप्सराओं, ऋषियों एवं सन्त-महात्माओं और यति सन्यासियों को जाता है।

ख़श में लगभग 21000 से भी अधिक शिव मंदिर हैं, जिसमें 1100 करीब स्वयम्भू होंगे।

दुनिया का एक मात्र तीर्थ है-काशी

पौराणिक साहित्य हो या वेद-पुराण, भाष्य, धर्मग्रन्थ, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद में वाराणसी के स्वयम्भू शिवालयों का बहुत महत्व है।

होगा भी क्यों नहीं, काशी वह तीर्थ है, जहां सारी दुनिया में सर्वाधिक स्वयम्भू शिवमंदिर स्थापित हैं।

बनारस को शैव धर्म का केंद्र और तीर्थ कहा गया है। 1100 शिंवलिंग के तो मैंने अपने जीवन में विगत 30 से 35 वर्षों में दर्शन किये हैं।

इसके अतिरिक्त अनेक और भी शिंवलिंग है, जो स्वयं प्रकट हैं। काशी में कुल 20 से 25 हजार शिंवलिंग हो सकते हैं, जिसमें करीब 2 से 3 हजार तक स्वयम्भू होंगे। ऐसा मेरा अनुमान है!

सारी सृष्टि में यह एक मात्र वह तीर्थ है, जहाँ शिवलिंगों के नाम सुनकर ही अचंभित हो जाएंगे।

हालांकि स्कन्ध पुराण के चौथे खण्ड में ही लगभग 84 हजार स्वयम्भू शिवलिंगों की चर्चा है। इन्हें वर्तमान में खोजना भी एक बहुत कठिन कार्य है।

आज तक पूरे भारत में मैंने 25 से 30 हजार शिवलिंगों के दर्शन किये हैं जिनमें अधिकांश स्वयम्भू ही हैं लेकिन पुराणों में इनके नाम कुछ अलग भी हैं।

अमरनाथ की रहस्यमयी बातें, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं….

◆ अमरनाथ की खोज मुस्लिम गड़रिया बूटा मलिक ने नहीं की थी। यह भ्रम है-

इस लेख को पढ़कर अमरनाथ के बारे में अनेकों भ्रांतियां दूर होंगी। यह ब्लॉग कुछ ज्यादा बड़ा है।

लेकिन इस बात पर आपको विश्वास, तब होगा जब इसे पूरा पढ़ेंगे। दरअसल इसका अध्ययन भी एक प्रकार से अमरनाथ के घर बैठे दर्शन करना है।

इसे श्रद्धापूर्वक एक एक शब्द पर ध्यान देंवें और एहसास होगा कि भगवान शिव कल्याणेश्वर की जबरदस्त कृपा होने लगेगी।

आप मानस पूजा द्वारा अमरनाथ शिवलिंग पर दूध-दही, घी, बूरा और मधु पंचामृत अर्पित कर पुण्य के भागीदार बनें।

दुःख-दर्द, दरिद्रता मिटाने का यह सरल उपाय है।

◆ अमरनाथ में अमरकथा कबूतर ने नहीं

माँ पार्वती और शुक यानि “तोते” ने सुनी थी!

◆ बांस और साथ गांठ का महत्व

◆ बालटाल की कथा!

◆ अमरगंगा कहाँ है!

◆ त्रिसंध्येश्वर शिंवलिंग है अमरनाथ

◆ स्वर्ण बनाने का सूत्र

◆ तन-मन को प्रसन्न कैसे रखें

◆ धन सम्पदा और पुत्र की प्राप्ति कैसे हो?

◆ 50 हजार वर्ष से भी पुराना हिमलिंग

◆ पितृदोषों की शांति का स्थान

◆ श्री हनुमान जी का सिद्धि स्थल

◆ कश्मीरियों के कुलदेवता

◆ अमरनाथ गुफा में भगवान शिव ने कोंन सी अमरकथा माँ पार्वती को सुनाई थी।

◆ शुकदेव कौन थे

◆ श्रीमद्भागवत शापित क्यों है।

◆ भागवत कथा और भागमत व्यथा

◆ अमरनाथ के दर्शन मात्र से कालसर्प-पितृदोष

दरिद्र दोष, गुरु दोष, असाध्य रोग हमेशा-हमेशा

के लिए मिट जाते हैं।

यात्रा सेे होने वाले तेरह फायदे–

【1】सकारात्मक विचारों की वृद्धि।

【2】ऊर्जा में बढ़ोत्तरी।

【3】मानसिक विकारों का नाश।

【4】निरोग व स्वस्थ्य जीवन

【5】पापों का क्षय

【6】भाग्योदय में सहायक

【7】यात्रा से यादों की श्रंखला निर्मित

होती है।

【8】यथार्थ जीवन और प्रसन्नता के लिए यात्रा, यश, यार अत्यंत आवश्यक हैं।

【9】भोजन से जिस प्रकार तन को शक्ति,

स्फूर्ति एव ताकत मिलती है, उसी तरह

यात्रा से आत्मा ऊर्जावान बन जाती है।

【10】तीर्थयात्रा में जाते समय महिलाओं को हमेशा पैरों में याबुक यानी महावर लगाकर

निकलना शुभकारक होता है।

【11】यात्रा में ही यामिनी अर्थात चमकती रात के दर्शन होते हैं।

【12】मनुष्यों को यशस्वी, यशोगुणी तथा यशोधन बनाती हैं।

【13】यात्रा से जीवन व्यापक एव बहुआयामी

बन जाता है।

कण-कण में शंकर है—

“ब्रह्मवैवर्त पुराण” के अनुसार

सृष्टि का कण-कण यात्रा कर रहा है।

कण-कण में शंकर है, तो मतलब यही हुआ

की महाकाल खुद भी लगातार यात्रा कर

सब जीव-जगत की रक्षा कर रहा है।

विश्व के अणु-विष्णु

विष्णु अर्थात [विश्व+अणु]

यानि विश्व के सब अणु भी यात्रा में तल्लीन है।

◆ काशी के परम् सन्त शिरोमणि बाबा विश्वनाथ यति कहते थे कि अमरनाथ गुफा में बैठकर गीता के 18 अध्याय शिव-पार्वती एवं

अपने पितरों को सुनाने से 100 से ज्यादा श्रीमद्भागवत कथा कराने का पुण्य-फल मिलता है। तीन जन्मों की गरीबी मिट जाती है।

जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन होने लगते हैं,

क्योंकि यहां केवल श्रीमद्भागवत सुनना और

सुनाना ही सबसे बड़ी पूजा है

आदि बहुत ही दुर्लभ रहस्य जानिए

अमृतम पत्रिका के इस ब्लॉग में।

अमरनाथ की यात्रा का महत्व और अमरकथा का रहस्य क्या है। बहुत कम लोगों को पता है।

जीवन का सार-जीवन के पार

है- अमरनाथ की अमर यात्रा

एक बार अमरनाथ जाएंगे, तो आप भी भावविभोर होकर गाएंगे

हर-हर महादेव शम्भू

काशी अमरनाथ गंगे।

बाबा अमरनाथ सङ्गे

माता पार्वती सङ्गे।।

भोजन और यात्रा से फायदे —

जिसतरह अमृतमय भोजन से शरीर को सम्पूर्ण रस, शक्ति, ऊर्जा, ताकत, स्फूर्ति, ज्योत और इम्युनिटी पॉवर मिलती है।

उसीप्रकार यात्रा करने से आत्मा पवित्र एवं ऊर्जावान हो जाती है।

अमृतम का उदघोष है-

असतो मा सदगमय॥

तमसो मा ज्योतिर्गमय॥

मृत्योर्मामृतम् गमय॥

यात्रा हमें असत्य से सत्य की ओर ले जाती हैं। अन्तरात्मा का अंधकार मिटाकर प्रकाशित कर, मृत्यु से अमरता की ओर ले जाती हैं।

विशेष– अमरनाथ के इस लेेेख में

सत्य और शास्त्रमत जानकारी प्रस्तुत है।

इसे तैयार करने में 30 से 35 वर्षों का समय व्यतीत हुआ है।

करीब 10 से 12 बार अमरनाथ और

कश्मीर के अनेक तीर्थो की यात्रा की।

लगभग 500 से अधिक प्राचीन ग्रन्थ-पुराण,

पुस्तकों का अध्ययन कर इस लेख को तैयार किया। फिर भी यह ब्लॉग अधूरा है।

इसे सुरक्षित/SAVE करके आराम से

फुर्सत के समय पढ़ें।

अपनी प्राचीन शिव संस्कृति को समझने के लिए औरों को भी पढवाये, लोगों को इस अनोखे स्वयम्भू तीर्थ के दर्शन हेतु प्रेरित करें। शेयर करें और करवाएं

पुराने दुर्लभ लेखों को पढ़ने के लिये लॉगिन करें, सर्च करें, ग्रुप से जुड़े। अगले लेख में चारों धाम का महत्व,

उत्तरांचल के रहस्यमयी तीर्थ के अलावा देश के ८४ हजार वैदिक, ग्रह-नक्षत्र शिवलिंगों के बारे में जाने। देखें-

अतिशीघ्र ही कालसर्प-पितृदोष की शान्ति और इससे मुक्ति का शर्तिया उपाय भी अमृतम की साइड पर उपलब्ध होंगे।

अमरनाथ ज्योतिर्लिंग भी है-

स्कन्द पुराण के चौथे खण्ड, के केदारखण्ड एवं अमृतत्व अध्याय में ऋषि समुद्र यानि सातों महासागर के संचालक अपने शिष्य श्री स्कंद मंगलनाथ स्वामी कार्तिकेय को बता रहे हैं

कि भारत के भूभाग पर पूर्व-उत्तर दिशा में अति बर्फीले क्षेत्र में स्वतः ही निर्मित होने वाला एक हिम ज्योतिर्लिंग है, जो वर्ष में केवल दो माह के लिए प्रकट होता है।

अतः तन-मन की शान्ति तथा अच्छे स्वास्थ्य के लिए मैं उन अमर हिमलिंग का नित्य ध्यान करता हूँ। इसे अनेक पुराण-ग्रंथों में भी सतयुगी हिम ज्योतिर्लिंग बताया गया है।

★ मार्केंडेय पुराण

★ अग्नि पुराण

★ नारदपुराण के मुताबिक

इसी जगह पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व-अमरता का रहस्य बताया था।

तीर्थों का राजा –अमरनाथ

अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख शिवलिंगों और धार्मिक स्थलों में से एक है। इसलिए अमरनाथ को तीर्थों का राजा कहा जाता है।

यात्रा की तैयारी—

कैसे करें अमर यात्रा

अमरनाथ यात्रा का पंजीयन/ रजिस्ट्रेशन पंजाब नैशनल (PNB) बैंक की 440 में किसी भी शाखा/ब्रांच से कराया जा सकता है।

यश बैंक, जम्मू-कश्मीर बैंक और अन्य बैंक में भी यह सुविधा उपलब्ध है। रजिस्ट्रेशन के समय तीर्थयात्रियों को एक स्वास्थ्य प्रमाणपत्र (सीएचसी) देना बेहद जरूरी है।

हेलीकॉप्टर से जाने के लिए ऐसे करें आवेदन-

अमरनाथ की यात्रा हेलीकॉप्टर से करने वालों के लिए भी 1 मई से आवेदन शुरू हो गए हैं। इस यात्रा का एक तरफ का यात्रा शुल्क 2235/- रुपये निर्धारित है।

हेलीकॉप्टर के द्वारा यदि आप गुफा के दर्शन

करना चाहते हैं, तो उन्हें हेल्थ सर्टिफिकेट देना अनिवार्य होगा। अन्य रजिस्ट्रेशन की ज़रूरत नहीं होगी, क्योंकि ऐसे यात्रियों की पूरी जांच हेलिकॉप्टर में बैठने से पहले की जाती है।

रजिस्ट्रेशन की पूरी प्रक्रिया बोर्ड की वेबसाइट

http://www.jammu.com/shri-amarnath-yatra/step-by-step-registration-procedure.hindi.php

पर बहुत आसानी से मौजूद है।

इस वेबसाइट पर सभी बैंक शाखाओं के आवेदन फॉर्म और पते हैं, जहां अमरनाथ तीर्थयात्री आवेदन भर सकते हैं।

सड़क मार्ग– अमरनाथ गुफा गहन बर्फीले तथा

मलय हिम पर्वतों के बीच बहुत दुर्गम कठिन स्थान

पर स्थित है। दिल्ली से अमरनाथ 650 किलोमीटर है। बस, कार, सड़क या ट्रेन के रास्ते अमरनाथ पहुंचने के लिए पहले जम्मू होते हुए श्रीनगर तक का सफर करना होगा।

श्रीनगर से पहलगाम या बालटाल दोनो जगह से

अमरनाथ की यात्रा शुरू होती है।

श्रीनगर से पहलगाम करीब 92 किलोमीटर और बालटाल करीब 93 किलोमीटर दूर है।

मौसम की मार से बचने के लिए-

यह बहुत ही बर्फीला क्षेत्र है। यहां कभी भी अचानक मौसम से बदल सकता है इसलिए अपने साथ गर्म इनर, गर्म वस्त्र,

रेनकोट, वाटरप्रूफ ट्रेकिंग कोट, पायजामा, टॉर्च, मफलर, हाथ के दस्ताने, ऊनी मोजे, आदि अपने साथ रखें। सिर पर इलास्टिक से फंसाने वाली छोटी छतरी भी रखें।

महिलाएं ध्यान रखें-

महिलाएं सलवार-सूट, आंतरिक गर्म कपड़े, ट्रैक सूट आदि साथ ले जाएं। साड़ी में पैदल यात्रा करना कुछ मुश्किल भरा होता है

यात्रा में अपने साथ कर्पूर जरूर ले जावें, इसे अपनी

सभी जेबों में रखें। यह ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देता। इमरजेंसी के लिए अमृतम फार्मास्युटिकल्स, ग्वालियर द्वारा निर्मित कुछ दर्दनाशक आयुर्वेदिक ओषधि

जैसे ऑर्थोकी गोल्ड कैप्सूल, भयंकर दर्द नाशक तेल एवं बुखार की दवा भी रखें।

रास्ते में खाने के लिए काजू, बादाम बिस्किट, नमकीन और कुछ स्नैक्स वगैरह ले जा सकते हैं।

भोले का भंडारा-

यात्रियों को यहां सब निशुल्क है।

बस खाते जाओ और गाते जाओ

हे बाबा बर्फानी

भूखे को अन्न-प्यासे को पानी

इस जगत में तेरी कृपा से सबको मिल रहा है।

बहुत से शिव भक्तमण्डल, निजी

धार्मिक संस्थाएँ यात्रियों के खाने-पीने,

रुकने का बहुत ध्यान रखती है।

भरतीय सेना को सादर प्रणाम-

इस पूरी यात्रा में चप्पे-चप्पे पर तैनात

एवं निगरानी कर रही हमारी भारतीय

सेना के जाँबाज जवान शिवभक्तों का

बहुत ही ज्यादा ध्यान रखती है।

अमरनाथ यात्रा कुल 46 दिनों तक चलती है और श्रावण मास अर्थात रक्षाबंधन के दिन

यात्रा खत्म होती है।

इस अदभुत शिवमिलन अमर यात्रा के समय अमरनाथ श्राइन बोर्ड के द्वारा बताए गए सभी नियम कायदों का कड़ाई से पालन करें।

जय बाबा बर्फानी

हिमालय के कण-कण में शिव-शंकर बसते हैं।

मानसरोवर का कैलाश पर्वत हिम मार्ग से अमरनाथ से मात्र 55 किलोमीटर है।

हर हर हर महादेव और

जय बाबा बर्फानी

तेरा ही अन्न, तेरा ही पानी

तथा

भूखे को अन्न, प्यासे को पानी

का जयकारा लगाते हुए अमरनाथ के

भक्त यात्रा पूरी करते हैं।

अमरनाथ में बर्फ का अदभुत चमत्कार

अमरनाथ मार्ग में पंचतरणी से गुफा के बहुत आगे तक सभी स्थानों पर बाहर मीलों तक कच्ची बर्फ ही पायी जाती है।

सभी जगह कच्ची बर्फ होने के बावजूद भी अमरनाथ गुफा के अंदर बनने वाला शिवलिंग पक्की बर्फ का बनता है।

ठोस बर्फ से निर्मित शिंवलिंग

केवल शिवलिंग पर पक्की यानी ठोस बर्फ का होना यह आज तक दर्शनार्थियों एवं वैज्ञानिकों के लिए एक रहस्य बना हुआ है।

इस पवित्र गुफा में हिम शिवलिंग के साथ ही एक गणेश पीठ व एक पार्वती पीठ भी हिम से प्राकृतिक रूप में निर्मित होती है।

श्रीमद्भागवत है —अमरकथा

अमरनाथ की इस पुण्य-पावन पवित्र गुफा में भगवान भोलेनाथ ने जगत-जननी माँ पार्वती को मोक्ष का मार्ग दिखाया था।

श्रीमद्भागवत के इस तत्वज्ञान को ‘अमरकथा‘ के नाम से जाना जाता है इसीलिए इस स्थान का नाम ‘अमरनाथ‘ पड़ा। यह श्रीमद्भागवत कथा

माता पार्वती तथा भगवान शिव के बीच हुआ संवाद है। यह उसी तरह का संवाद है जिस तरह कृष्ण और अर्जुन के बीच महाभारत युद्ध के समय हुआ था।

गुफा में बर्फ से बने शिंवलिंग के

निर्माण की कथा और

महादेव “अमरेश “क्यों कहलाये

जब माँ पार्वतीजी ने भगवान शिव से अमरेश महादेव की कथा सुनाने का आग्रह किया,

तब सदाशिव बोले, हे महाशक्ति ‘देवी!

सतयुग के समय में ब्रह्मा, प्रकृति, स्थावर (पर्वतादि) जंगम-जंगल, मनुष्य और जीवादि संसार की उत्पत्ति हुई।

उत्पत्ति के इसी क्रम में देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, राक्षस, सर्प, यक्ष, भूतगण, कूष्मांड, भैरव, गीदड़, दानव आदि उत्पन्न हुए।

संसार में इसी तरह नए प्रकार के भूतों, पंचमहाभूतों की सृष्टि हुई, परंतु सब के सब इंद्रादि देवता सहित सभी मृत्यु के वश में थे।’

मृत्यु का भय यानि जीवन का भय

इसके बाद भगवान भोलेनाथ ने कहा कि कोटि-कोटि ब्रमांडों में कोई भी अमर नहीं है।

भय-भ्रम, डर, शंका-कुशंका तथा मृत्यु से डरे हुए भयभीत देवी-देवतागण भोलेनाथ के पास पहुंचकर स्तुति करने लगे, कि ‘हमें मृत्यु का भय हमेशा बना रहता है।मौत हमें बाधा पहुंचाती है।

हे बाबा वैद्यनाथ, हे कल्याणेश्वर —

आप हम सभी को कोई

ऐसी स्थाई चिकित्सा बतलाएं जिससे

मृत्यु हमें बाधित न करे।’

महाकाल बोले, –

‘मैं आप सभी की मृत्यु के भय से मुक्त

करके जीवन रक्षा करूंगा’,

चंद्रशेखर शिव ने –

अपने मस्तिष्क पर बैठे चंद्रमा की कला से

अमृत रूपी भस्म प्राप्तकर देवगणों को देेेकर बोले,

‘यह अमृतः रसआप सभी के जरा-रोग,

मृत्युभय की सर्वश्रेष्ठ औषधि है।’

अमरनाथ गुफा में मिलने वाली

भस्म की कहानी –

वायु पुराण के अनुसार-

चन्द्रमा से मिली उस चंद्रकला की कुछ बूंद प्रथ्वी गिरी, तो भूमि से पवित्र अमृत की धारा बह निकली और वही धारा बाद में अमरावती नदी के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई।

चंद्रकला का कुछ अंश भगवान शिव

कल्याणेश्वर के शरीर पर जो अमृत बिंदु

गिरे, वे सूख गए और पृथ्वी पर अमरनाथ

पर गिर पड़े, वही इस गुफा के पास मिलने वाली सफेद भभूति है, इसी भस्म को

यात्रीगण घर पर प्रसाद के रूप में लाते हैं।

इसे लगाने से विकारों का नाश होता है।

कहते हैं कि अमरनाथ की इस भस्म का त्रिपुण्ड किसी असाध्य रोगी को लगा दिया

जाए, वह स्वस्थ्य होने लगता है।

भस्म की कसम

अघोरी तांत्रिक गुरु अपने चेलों को

भस्म की सौगंध दिलवाते हैं, ताकि वह

संकल्प पूरा कर सके

अमरनाथ की पुण्य-पावन गुफा में जो

सफेद रंग का पावडर मिलता है,

वह भस्म है, वे चन्द्रमा से प्राप्त इसी अमृत बिंदु के कण हैं, जो पृथ्वी पर गिरे थे।

मृत्यु भय का नाश

भोलेनाथ ने देवताओं से कहा, ‘हे देवताओं! तुमने इस हिम शिंवलिंग शरीर के

दर्शन इस गुफा में कर लिए है।

इस कारण अमरनाथ की कृपा से आप लोगों को मृत्यु का भय नहीं रहेगा।

अब तुम यहीं पर श्रीमद्भागवत गीता के तेरहवें अध्याय का नित्य पाठ किया करो, तो

अमर होकर शिव रूप को प्राप्त हो जाओगे। आज से मेरा यह अनादि हिमलिंग शरीर तीनों लोकों में अमरेश और अमृतेश्वर के नाम से विख्यात होगा।’

स्वास्थ्य की रक्षक श्रीमद्भागवत

सदा रोगी रहने वाला मनुष्य यदि

श्रीमद्भागवत गीता के 13वे अध्याय का

नित्य एक दीपक देशी घी का जलाकर

पढ़ता है, तो उस व्यक्ति को कभी कोई

रोग नहीं सताता। वह प्राणी निरोग रहकर

120 वर्ष की पूर्ण आयु प्राप्त कर सकता है।

अमरेश्वर शिंवलिंग

देवताओं को ऐसा वरदान देकर महादेव उस दिन से लीन होकर अमर गुफा में रहने लगे।

उन्होंने अमृत रूप सोमकला को धारण कर देवताओं की मृत्यु का नाश किया, तभी से उनका नाम अमरेश्वर प्रसिद्ध हुआ।

शिव के गले में मुण्डन की माला का रहस्य-

जगत की महाशक्ति सती ने दूसरा जन्म परम् शिव उपासक महाराजा हिमालयराज के यहां पार्वती के रूप में लिया।

तिरुपति में हुआ था माँ पार्वती का जन्म-

दक्षिण के तिरुपति बालाजी के प्राचीन

पुस्तकालय में हजारों साल पहले लिखे हुए

पुराने ग्रंथ-शास्त्रों में लिखा मिलता है कि

जब हिमालय राज तिरुमलय यानि आज का

(तिरुमाला) में तिरुपुरारेश्वर वर्तमान तिरुपति केे दर्शन करने आये, तो उनकी पत्नी मैना गर्भवती थी और यहीं पर उनके प्रसव के

दौरान माँ पार्वती का जन्म हुआ था।

तमिल, तेलगु के अन्य ग्रंथों में भी इस बात का उल्लेख और प्रमाण उपलध है इसकी कहानी कभी अलग दी जावेगी।

माँ सती के 12 जन्म

मार्केंडेय पुराण की माने तो

पहले जन्म में वे दक्ष की पुत्री थीं तथा दूसरे जन्म में वे दुर्गा बनीं। तीसरे जन्म में महाकाली, फिर महालक्ष्मी, महामाया, महासरस्वती,

ज्ञानेश्वरी, बाघम्बरी, आदि रूपों में 12 बार

जन्म लेना पड़ा।

माँ पार्वती की शंका

माँ पार्वतीजी से ने महादेवजी से पूछा, ‘मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है कि आपके गले में नरमुंड माला क्यों है?

’ भगवान शिव ने बताया, हे ‘पार्वती! बारह बार तुम्हारा जन्म हुआ है उतने ही मुंड मैंने धारण किए हैं।’

माँ, ने निवेदन किया कि ‘मेरा शरीर नाशवान है, हर बार जन्म होकर, मृत्यु को प्राप्त होता है, परंतु तो आप अमर हैं, इसका रहस्य क्या है।

मैं भी अजर-अमर होना चाहती हूं?’

भगवान शंकर ने कहा, —

‘यह सब श्रीमद्भागवत कथा के कारण है।’

इस कथा के सुनने, पढ़ने और इसके

अनुरूप जीवन जीने से कोई

भी साधक अमर हो सकता है। इसे जानते-समझते हुए भी, जो इसका अनुसरण नहीं

करता, वह महापाप का भागी होता है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार इस कथा का

श्रवण केवल उन्हीं मनुष्यों को करना चाहिए,

जो इसके अनुरूप चल सकें या खुद को ढाल

सकें अन्यथा जीवन बहुत नारकीय,

दरिद्र-दुःख युक्त तथा सम्पत्ति-सन्तति हीन हो जाता है। यह कथा कोई मजाक की वस्तु या

ढकोसला मात्र नहीं है।

स्त्री हठ 3 लोग बहुत जिद्दी होते हैं

वायुपुराण में-स्त्री हठ,

बाल हठ और

राज हठ

ये तीन तरह की हठ या जिद्द बताई गई हैं।

इन तीनों की जिद्द के आगे सबको नतमस्तक

होना पड़ता है।

माँ पार्वतीजी ने शंकरजी से बहुत वर्षों तक अमरकथा सुनाने को कहती, तो वे इसे टालने का प्रयास करते रहे, लेकिन जब पार्वती की जिज्ञासा और जिद्द बढ़ गई, तब शिव

अमरकथा अतिशीघ्र सुनाने का वचन दिया।

कोई भी सुन नहीं सके

बाबा अमरनाथ ने

अमरनाथ गुफा की ओर जाते हुए

सबसे पहले जिस स्थान पर अपने वाहन

नन्दी यानि बैल को छोड़ा, वह बैलगाँव

के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो आज

पहलगाम के नाम से मशहूर है।

अमरनाथ के लिए पैदल यात्रा

कभी यहीं से आरम्भ होती थी।

पिस्सू घाटी-

इस जगह शिव ने अपने सभी रुद्रों और

गले में पड़ी मुंडमाला, किन्नर, दैत्य,

राक्षस, शिवगण को त्यागा था। यह रुद्री घाटी कहलाती थी, जो अब पिस्सू घाटी एवं हड्डियों

की घाटी के नाम से विख्यात है।

चन्दनबाड़ी पर चंद्रमा को रोका

तत्पश्चात चंदनवाड़ी में उन्होंने अपनी

जटाओं (केशों) से चंद्रमा को मुक्त किया। शेषनाग नामक झील पर पहुंचकर उन्होंने अपने परम मित्र शेषनाग एवं अपने गले से

सभी विषधर नागों को भी उतार दिया।

वर्तमान में अधिकांश यात्रीगण यहीं से

अमरनाथ की यात्रा शुरू करते हैं।

महागुणास पर्वत पर श्री गणेश को उतारा

अपने प्रिय पुत्र महागुुणो के

स्वामी राहु-केतु रूप श्रीगणेश को भी उन्होंने महागुनस पर्वत पर छोड़ देने का निश्चय किया।

पंचतत्वो का त्याग–

जिस स्थान पर पांच महाभूतों

(पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्रि) का परित्याग किया था उसे पंचतरणी नदी

कहा जाता है। शिवपुराण के अनुसार

महाकाल ने यहीं पर शिवतांडव का

नृत्य किया था। इसी जगह शिव के दो रुद्र

आपसी विवाद कर “कुरु-कुरू“

करने लगे, तो महादेव ने इन्हें कबूतर

बनने का शाप देकर कहा – कि जो भी इस यात्रा के दौरान तुम्हारे दर्शन करेगा, उसकी यात्रा सफल नहीं होगी।

लोग माँस-मछली क्यों खाते हैं-

पुराण और ब्राह्मण ग्रंथों में लिखा है कि

सन्सार में जो भी चरित्रहीन जीव हैं, जैसे-

मछली, मुर्गी, बकरा-बकरी, कबूतर, हिरण

आदि दुनिया इनका मांस भक्षण करती है।

आगे लिखा है कि जो भी मनुष्य इस जन्म

में अपने चरित्र का दुरुपयोग करता है, उन्हें

इन चरित्रहीन पशु-पक्षी योनियों में कई बार जन्म लेना पड़ता है।

वैसे भी मीट आदि खाने वालो के

भीतर चरित्रहीनता का दोष आ ही जाता है।

सब छोड़कर चलो-

सुखी जीवन का सूत्र है कि सब कुछ त्यागकर

चलो। छोड़े बिना जिंदगी के फोड़े (दुःख)

नहीं मिटते। इसी मूलमन्त्र को मानते हुए

भोलेनाथ ने सबका त्याग करके, सब कुछ छोड़कर अंत में इन पर्वतमालाओं में पहुंचे। गुफा को निर्जीव करने हेतु अपने नेत्रों से कालाग्नि नाम के एक रुद्र

को उत्पन्न कर, उसे आदेश दिया कि इस गुफा में ऐसा ताप उत्पन्न करो, जिससे कोई भी जीव यहां रह न पाये। लेकिन मृगछाला के नीचे

एक अंडा था, इसी से तोते अर्थात शुक का जन्म हुआ।

गुफा में प्रवेश–

भगवान शिव ने इस अमरनाथ गुफा में

प्रवेश किया और मृग छाला पर बैठकर

पार्वतीजी को अमरकथा सुनाने लगे।

अब सवाल यह था कि अमरकथा सुनाते वक्त कोई अन्य जीव इस कथा को न सुने, इसीलिए

भोलेनाथ ने सबका परित्याग कर दिया था।

वैसे अवधूत साधु कहते भी हैं-

कुछ भी त्याग बिना नहीं मिलता

चाहें कर लो लाख उपाय।

एक मात्र त्रिसंध्येश्वर शिव और महामाया

नीलमत ग्रन्थ के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि में माँ आदिशक्ति के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ श्री अमरनाथ गुफा में स्थापित है,

बताते हैं कि यहां माँ देवी सती का कंठ भाग गिरा था और यहां पर देवी सती को महामाया और भगवान शिव को त्रिसंध्येश्वर

भी कहा जाता हैं।

परिवर्तन संसार का नियम है।

श्रीमद्भागवत गीता का यह अमर

वाक्य भोलेनाथ ने माँ पार्वती को सबसे

पहले समझाया था कि प्रकृति और स्त्री-नांरी दोनों का स्वभाव एक सा होता है।

शिवपुराण में कहा है-

क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा:

रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे।

अव्यवस्थित चित्तानाम्

प्रसादोऽपि भयंकर:।।”

.अर्थात : क्षण-क्षण में रुष्ट और तुष्ट

होने वालों की प्रसन्नता तथा कटुता

भी अति भयंकर होती है.!”

भोलेनाथ बता रहे हैं कि -इस संसार में जो भी आज तक परिवर्तन हुए हैं या हो रहे हैं अथवा भविष्य में होंगे, उन सबके पीछे प्रकृति और नांरी ही कारण हैं।

परिवर्तनशीलता के कारण सन्सार को

असत्य भी कहा गया है। बाबा अमरनाथ

की रचना, पालन एवं विनाश का खेल

सदियों से चल रहा है।

आकाश, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी

ये पंचतत्व भी इन्हीं के अधीन हैं।

प्रकृति और स्त्री के कारण ब्रह्मांड में

कुछ भी शांत नहीं है, यहां तक कि सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र, तारे-ग्रह, देवी-देवता, पितृगण आदि सब अशान्त हैं, इसीलिए इन सबकी शांति के

लिए वेदों में सबसे पहले शान्ति मन्त्र का

आव्हान किया गया है।

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,

पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय:

शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा:

शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,

सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:,

सा मा शान्तिरेधि॥

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

चारों वेदों में से एक यजुर्वेद के इस शान्ति

पाठ द्वारा हम प्रकृति और परमात्मा से संसार में शान्ति-परम् शान्ति बनाये रखने की प्रार्थना करते हैं।

भवार्थ— शान्ति: कीजिये, हे माँ! हे, भोलेनाथ!

त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में

अन्तरिक्ष में, अग्नि पवन में, औषधि, वनस्पति,

वन, उपवन में।

सकल विश्व में अवचेतन में!

शान्ति राष्ट्र-निर्माण सृजन में,

नगर, ग्राम में और भवन में

जीवमात्र के तन में, मन में

और जगत के हो कण कण में

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

मुस्लिम धर्म में अनेकों बार आमीन-आमीन

बोलकर सुकून की दुआ करते हैं।

शिवपुराण में लिखा है कि –

संसार धन के लिए प्रयत्नशील और परेशान है।

धन सम्पदा छटी इन्द्रिय है।

बड़े से बड़े विद्वान और अक्लमंद मनुष्य की धन

के बिना पांचों इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं।

हे ईश्वर, बिना तुम्हारी कृपा के धन-सम्पदा का

मिल पाना कठिन है।

सम्पत्ति और सन्तति का रहस्य

महादेव श्रीमद्भागवत के एक श्लोक के मुताबिक माँ पार्वती को बता रहे हैं कि- हर मनुष्य के ऊपर पितृ मातृका दोष भी होता है,

यह ज्ञान केवल शास्त्रों में सिमटकर रह गया है।अथाह धन-दौलत, सम्पत्ति पाने और धनशाली, सुख-समवृद्धि के लिए मनुष्यों-प्राणियों को अपनी पितृ

मात्रकाओं तथा मातृ मात्रकाओं यानि अपने पिता, प्रपिता (बाबा) परबाबा की मां और पत्नी की माँ एवं अपनी माँ की मां, नानी की माँ,

परनानी की माँ, पत्नी की माँ आदि मात्रकाओं का नित्य ध्यान, पूजा-पाठ, “अमृतम” द्वारा निर्मित राहुकी तेल का दीपदान रोज नियम से करते रहना चाहिए।

उनकी जन्मतिथि व पुण्यतिथि के दिन अन्नदान, जलदान, वस्त्रदान, धनदान, स्वर्ण-चांदी आदि का दान हर महीने या वर्ष में एक से दो बार करते रहना चाहिए।

सन्तति या पुत्र पाने के लिये

किसी को बहुत प्रयास करने के बाद भी पुत्र की प्राप्ति या औलाद नहीं हो रही हो, उन्हें अपने पितरों का नित्य स्मरण, ध्यान, दीपदान और प्रत्येक महीने की शिवरात्रि

को सूर्यास्त के बाद शिंवलिंग पर

!!ॐ पितरेश्वराय नमः शिवाय!!

कहते हुए जल में थोड़ा यानि 1 से 2 चम्मच कच्चा दूध मिलाकर अर्पित करना अत्यधिक लाभकारी है।

भगवान शिव कहते हैं कि-

जिन प्राणियों के ऊपर पित्तरों का प्रकोप

होता है, उनका वंश नष्ट हो जाता है।

वंशवृद्धि के लिए सदैव पितृ देवताओं से प्रार्थना

करना जरूरी है।

!!ॐ स्थिराय नमः!!

शम्भूनाथ कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के

प्रकाश पुंज हैं, इन्हीं की हर लय और

ताल पर सृष्टि बनती और बिगड़ती है।

शिवसहस्त्र नामावली में सबसे पहला

नाम ॐ स्थिराय नमः आया है।

इसके मुताबिक संसार में शिव के अतिरिक्त कुछ भी

स्थिर नहीं है। सब कुछ अस्थिर या अस्थायी है और

जो स्थाई नहीं है, वही परिवर्तन शील है।

वेद-पुराणों की माने, तो

यदि कुछ सदा से स्थाई है, तो वह है भगवान सदाशिव और इनकी लीला हमेशा अस्थाई रहती हैं। इसलिए काशी के भक्त गाते हैं-

ये शिवशंकर की लीला

नहीं जाने गुरु और चेला

भोलेनाथ की सभी लीलाएं इसलिए अस्थाई है, क्योंकि इसकी जिम्मेदारी प्रकृति के वश में है।प्रकृति नित्य नई-नवीन हैं।

लेकिन ये स्वयं स्थिर और स्थाई होने के कारण अनंतकाल से अजर-अमर हैं, इसलिए इन्हें अमरनाथ कहा जाता है।अमरनाथ की अमरकथा वास्तव में

कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों की अमर यात्रा है।

यात्रा के मायने–

आए ठहरे और रवाना हो गए !

ज़िंदगी क्या है, सफ़र की बात है !!

आपकी यह अंतिम अमर यात्रा, अनंत की

यात्रा हो जाए। पता नहीं अब यह यात्रा कब, किस रूप में, कहाँ पर होगी।

जीवन की यात्रा का अर्थ यह नहीं कि आलस्य में रहकर, तन को बिना कोई तकलीफ दिए,

यात्रा विहीन जीवन तथा

अच्छे से बचाकर रखा हुआ आपका शरीर सुरक्षित तरीके से मरघट-श्मशान,

मुक्तिधाम या कब्रगाह तक पहुँच जाय।

बदल जाओ वक्त के साथ

या फिर वक्त बदलना सीखो।

मजबूरियों को मत कोसो

हर हाल में चलना सीखो।।

कड़ा कर्म यानि मजदूरी हर मजबूरी

मिटाने में सक्षम होती है।

रो-रोकर नहीं बल्कि रोग रहित रखकर,आड़े-तिरछे फिसलते हुए, शरीर का पूरी तरह से इस्तेमाल कर, सधकर, चूर-चूर होकर यह चिल्लाते हुए अंतिम यात्रा पर पहुँचो –

वाह यार, क्या यात्रा थी!

यात्रा की यातना-

● यात्रा अन्त की हो या अनंत की,

● धर्म की हो या अधर्म की,

● योग की हो या भोग की

● ध्यान की हो या ज्ञान की

● यात्रा रस की हो या रहस्य की

● ब्रह्मांड की हो या सुन्दरकाण्ड की

● निरोग की हो या रोग की

● वन की हो या जीवन की

● तन की हो या वतन की

● यात्रा परम् की हो या प्रेम की

● स्वास्थ्य की हो या स्वार्थ की

● मन की हो या अन्तर्मन की

● आत्मा की हो या परमात्मा की

● प्यार की हो या व्यापार की

● संसार की हो या संन्यास की

● कर्म की हो या कुकर्म की

● यात्रा ताप की हो या संताप की

● पाप की हो या पश्चाताप की

● यात्रा झंझट भरी हो या संकट भरी

● यात्रा शिव की हो या शव की

यात्रा में यातायात रुकावट न बने

और यातना न हो, तो फिर कैसी यात्रा।

पार कर गए, ठिकाने पर या गन्तव्य पर

पहुंच गए, तो यही यात्रा अमर हो जाती है।

धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि अनेकों पापी

भी पाप करते-करते भी पार लग गए।

अमरता को प्राप्त हुए।

{{}} शिवभक्त रावण को महापापी मानते हैं, किंतु अगले भव में वही रावण जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर होंगे। दशानन ने ही श्रीगणेश को

ज्योतिष का ज्ञान दिया था।

{{}} कुबेर पूर्व जन्म में महापापी थे।

{}{} शिवमंदिर का घण्टा चुराने वाले को भी शिव ने दर्शन दिये, बस यात्रा में लग्न और एकाग्रता होना जरूरी है।

कण का अति सूक्ष्म हिस्सा अणु कहलाता है,

तो अर्थ यही हुआ कि सृष्टि में जितने भी

अणु हैं, वे सब कण-कण यानी शिव का

ही पार्ट्स हैं। बस फर्क इतना है कि विश्व के अणु अर्थात श्री विष्णु श्रृंगार प्रिय हैं जैसे

अणुओं से ही अणुबम, परमाणु बम बने हैं, तो निश्चित ही इनका श्रृंगार किया गया,

इनको वस्त्र, स्वर्ण आदि कवच पहनाए तभी, तो बम का रूप धारण किया। इसे समझने की कोशिश करें, तभी जहन में उतर पायेगा।

ईश्वर के विज्ञान को समझने में बहुत

आसानी होगी। प्रयास करें

और भगवान शिव जलप्रिय क्यों हैं

संसार बिना जल के एक पल भी नहीं चल सकता। हर कण को हर क्षण जल की

जरूरत है। जल के द्वारा ही प्रत्येक कण चलायमान है। प्रकृति हमें जो भी मुफ्त

में दे रही है, हम उसके ऋणी हैं। इस कर्ज

को चुकाने के लिए प्रतिदिन शिंवलिंग पर

जल अर्पित करने की परंपरा भी है।

भगवान शिव हमारे प्रथम और प्रमुख

पितृ भी हैं तथा पितृ सदैव जल अर्पित

करने से प्रसन्न होते हैं। पितृपक्ष में

पितरों को पानी देने की यह प्राचीन

व्यवस्था है।

आयुर्वेदिक चिकित्सा के अनुसार

जल अक्ल और शक्ल का कारक भी है।

जल से तन-मन, अमन, वतन, वन-जीवन

एवं थल-कल है।

स्कन्द पुराण में लिखा है कि

शिंवलिंग पर नित्य जल चढ़ाने से

घोर-अघोर पापों का क्षय होने लगता है।

संकट साथ छोड़कर, सफलता हाथ

पकड़ लेती है।

अमरकथा-एक अनसुलझा रहस्य

【】मांडूक्यउपनिषद

【】छान्दोग्यउपनिषद,

【】तैत्तरीयउपनिषद

【】 मुण्डकोउपनिषद

【】श्रीमद्भागवत,

【】स्कन्द पुराण,

【】भविष्य पुराण औऱ कुछ ब्राह्मण ग्रंथों का कई सालों तक गहन अध्ययन , अथक परिश्रम और शिव सन्तों का संग के पश्चात यह ज्ञात हुआ

कि अमरनाथ गुफा में महादेव ने माँ भगवती को जो अमरकथा सुनाई थी वह श्रीमद्भागवत की कथा थी।

आखिर अमरकथा है क्या-

यह किस्सा पुराना है कि महादेव ने अमरनाथ गुफा में देवी माँ को कोई अमरकथा सुनाई थी, जिसको सुनने, श्रवण करने वाला अजर-अमर हो जाता है।

लेकिन यह उत्कंठा हमेशा बनी रही कि आखिर वह अमरकथा की अमर कहानी कौन सी है।

वह कौन सा किस्सा है। इसे जानने के लिए अनेकों भगवताचार्यों, कथा वाचकों, विद्वानों एवं वैदिक विप्रों से जानकारी लेने की कोशिश की गई,

लेकिन सब व्यर्थ रहा, किसी ने भी अमरकथा के बारे में संतोषप्रद बात कभी किसी ने नहीं बताई।

जिन खोजा-तिन पाईंयां

यह बहुत पुरानी कहावत है कि खोजने वाला ही पाता है। अमरनाथ के बारे में जो कथा बताई जाती है, वह कथा न होकर यात्रा विवरण और महत्व है।

विज्ञान भैरव तंत्र‘ दुनिया का एक मात्र ऐसा रहस्ययमयी ग्रंथ है, जिसमें भगवान भोलेनाथ शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 तरह केे दुर्लभ सूत्रों का संकलन है।

अमरनाथ की अमृत कथा -: कथा वाचकों के

माध्यम से भ्रमित करने वाले ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। लेकिन वह प्राचीनतम ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल नहीं है।

भगवान शिव ने अपनी अर्धांगिनी माँ पार्वती को मुक्ति और मोक्ष के लिए अमरनाथ की गुफा में जो कथा सुनाई थी या ज्ञान दिया था वह वास्तव में श्रीमद्भागवत कथा थी।

वेद-पुराणों में शिव-शिवा

प्राचीन वेद, पुराण, ब्राह्मण अरण्य,शिव ग्रंथ : और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में भगवान शिव के विषय में संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है।

यंत्र-मन्त्र-तंत्र के अनेक शास्त्र-ग्रंथों में महादेव की शिक्षा का विस्तार हुआ है।

भ्रम दूर करें-

अमरकथा कबूतर ने नहीं “तोते” ने सुनी थी

अमरनाथ गुफा में पूरी अमर कथा व्यासपुत्र

श्री शुकदेव जी, जो तोते के रूप में उस गुफा में पहले से ही विराजमान थे, उन्हों ने यह कथा सुनी थी। श्रीशुकदेव ने ही इसे श्रीमद्भागवत के रूप में सर्वप्रथम प्रचारित किया था।

शुकदेव जी ने सबसे पहले इस श्रीमद्भागवत

कथा को राजा परीक्षत के सामने कही।

इसमें 18000 अठारह हजार श्लोक हैं।

श्रीमद्भागवत को शिव जी ने शापित भी कर रखा है।

श्रीमद्भागवत कथा को शाप लगा है–

इस कथा को सुनने वाला अमर हो जाने

से सृष्टि सन्चालन में समस्या खड़ी हो जाती,

इसलिए इसे शिव ने शापित कर दिया था।

मन्त्रमहोदधि, तन्त्रशास्त्र आदि ग्रंथों में

अनेकों चमत्कारी मंत्रों का उल्लेख है,

जिसके उपयोग से सिद्धियाँ, सम्पदा,

सफलता पाई जा सकती है।

तन्त्र-मन्त्र-यंत्र के १७ वैज्ञानिक ग्रन्थ –

【१】तन्त्रसारः,

【२】शिवतन्त्र,

【३】अघोर तन्त्र,

【४】भारतीय तन्त्र विद्या,

【५】प्राचीन तन्त्र शास्त्र,

【६】तन्त्र-मन्त्र और टोटके,

【७】मन्त्र ओर मातृकाओं के रहस्य,

【८】तन्त्र-मन्त्र टोटके,

【९】कालितन्त्र,

【१०】बोद्धतन्त्र,

【११】शाबर तन्त्र,

【१२】गोरख तन्त्र,

【१३】कापालिक तन्त्र

【१४】जड़ी-बूटी और तन्त्र,

【१५】योगिनी तन्त्र,

【१६】तन्त्र-मन्त्र के रहस्य

【१७】 तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र

की शक्ति आदि बहुत

से चमत्कारी और दुर्लभ किताबों में

बहुत से शक्तिशाली तन्त्र-मन्त्र बताये गए हैं,

जिनके प्रयोग से किसी पर भी मारण तथा

उच्चाटन किया जा सकता है।

मारण-उच्चाटन मन्त्र भी असरदायी हैं

पश्चमी बंगाल, असम, मेघालय, मौसिनराम

कामाख्या, आदि पर आज भी ऐसे तांत्रिक हैं, जो बांधने व मारने की कला में पारंगत हैं।

इन सब तन्त्र-मन्त्र की शक्तियों को दुरूपयोग

से बचाने के लिए इन्हें शापित-कीलित कर

दिया। ये सब लुप्त हो गईं। नष्ट नहीं हुई।

इन सबके सदुपयोग के लिए विनियोग,

शापविमोचन एवं ऋण विमोचन बताये गए हैं।

गायत्री मंत्र, शिव कवच, गोपालसहस्त्रनाम

और श्रीमद्भागवत आदि शक्तिदात्री

ग्रन्थ-मंत्रों तथा अमरकथा को ऋषियों ने शापित कर दिया, क्योंकि इसको सुनने

वाले सभी अमर हो जाते, तो संसार संचालन

मुशिकल हो जाता।

भागवत या भागमत

सन्सार चलायमान है।

चलना ही जिंदगी है, रुकना है मौत तेरी।

रुके की ठुके। आकाश, अग्नि, जल, वायु

प्रथ्वी, सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र, तारे सब निरन्तर

निष्काम यात्रा कर रहे हैं। बिना रुके, चलते हुए

अटूट आत्मविश्वास, आत्मप्रेम और दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते ही आप सब कुछ पा सकते हो। भागवत के आचार्य सलाह देते हैं-

भागमत। संतोष कर, जबकि असंतोष के बिना

जीवन अधूरा है। आज का विज्ञान कहता है

कि भागवत के लिए भाग-मत। ईश्वर,

तो आपको मिल ही जायेंगे। लगातार

भागम-भाग से ही भाग्य साथ देता है।

अध्यात्म एवं कर्म की शक्ति हम

द्वारा विश्व श्रेष्ठ बन सकते हैं।

भागवत का प्रभाव निष्क्रिय क्यों?

वर्तमान में श्रीमदभागवत कथा अब किराने

की दुकान बन गई है। शास्त्रों में उल्लेख है

कि श्रीमद्भागवत कथा का महत्व

केवल अधिक मास के दिनों में होता था, जो तीन वर्ष में एक बार ही आता है।

अब देश-दुनिया में बिना किसी शुभ महूर्त

कारण के गाँव-गली, मोहल्ले, शहरों में

जगह-जगह श्रीमद्भागवत कथा होने के

कारण कलयुग में ऐसी अलौकिक शक्तियां अभिशप्त होकर गुप्त या लुप्त हो गईं। इस कथा का प्रभाव निष्क्रिय हो चुका है।

नष्ट या खत्म नहीं हुआ है।

जैसे धरती में गुप्त छिपे या अलक्षित रूप

से पड़े हुए बीज समय आने पर पुनः

अंकुरित हो जाते हैं।

बथुआ बीज की विशेषता-

बथुए की सब्जी, बथुए की कढ़ी पेट

की बीमारियों को दूर करने में चमत्कृत

है। विशेषकर जिन रोगियों के उदर में

हमेशा गर्मी रहती है। यह लिवर या पेट के

केंसर ठीक करने में बहुत उपयोगी है।

बथुआ एक ऐसी घांस है, जिसका पका

बीज सर्दी के बाद गर्मी होने पर खेतों में

झाड़ जाता है। भयानक गर्मी एवं बरसात

में बीज धरती के अंदर पड़ा रहता है,

बथुए का बीज कभी सड़ता नहीं है

और सर्दी के आते ही अंकुरित हो जाता है।

इसीप्रकार-

सत्वं रजस्तम इति,

दृश्यन्ते पुरुषे गुणा:

काल संयोजितास्ते वै,

परिवर्तन्त आत्मनि

(श्रीमद्भागवत १२:३:२६)

अर्थात- सन्सार के सभी प्राणियों में

सत्व, रज और तम तीनों गुण विद्यमान

रहते हैं। काल-समय की प्रेरणा से

शरीर, प्राण और मन तीनों गुणों का

ह्रास यानी कम होना या विकास सतयुग,

त्रेता, द्वापर युग तथा कलियुग इन चारों

युगों के अनुरूप ही हुआ करता है।

कलियुग में स्वार्थी तत्वों तथा लालची,

दिखावटी विद्वानों में तम की अधिकता

होनी कोई भी वैदिक-आध्यात्मिक एवं

तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र का अदभुत ज्ञान अभिशप्त

हो या न हो, उन शक्तियों का प्रभाव गुप्त

हो ही जाता है।

श्रीमद्भागवत कथा कीलित क्यों है?

अमरकथा के लिए लिखा है कि यह वही

श्रीमद्भागवत कथा है। कलिकाल में इसकी

अमरता व शक्ति क्षीण कर इसे कीलित

तथा गुप्त कर दिया है। कलियुग के

यह स्वभाव है। ऐसा ही होता है, देखें-कैसे

दस्युत्कृष्टया जनपदा,

वेदा: पाखंड दुषिता:।

राजनश्चप्रजाभक्षा:,

शिश्नोदरपराद्विजा:।।

श्रीमद्भागवत १२:३:३२

अर्थ- सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों को

प्रधानता और प्रचुरता हो जाती है। धर्म

के नाम पर अनेक ढोंगी बाबा-बैरागी,

साधु-संत आदि पाखंडी लोग अपने

नये-नये मत, धर्म चलाकर कमजोर

लोगों को भ्रमित कर मनोवैज्ञानिक

तरीके से धर्म, ईश्वर, गुरु के नाम का

भय-भ्रम डर बैठाकर ठगने लग जाते हैं।

बिना किसी ठोस ज्ञान या साधना के

अपने मनमाने ढँग से वेद-पुराणों का

अर्थ निकालकर उन मंत्रों की शक्तियों

को दूषित तथा कलंकित करते हैं।

राजा या सरकारें प्रजा का भक्षण

करने वाले और ब्राह्मण लोग एवं

कथा वाचक इन्द्रिय सुख भोगने

और पेट भरने वाले हो जाते हैं।

लेकिन भगवान शिव को पहले ही से

सब पता था, इसलिए कलियुग के आते ही

श्रीमद्भागवत अमरकथा को पहले ही

कीलित कर दिया था।

कलियुग श्रीमद्भागवत का सार तत्व

क्यों समाप्त हो जाएगा?-

18 पुराणों में सबसे वृहद ग्रन्थ श्री

स्कन्दपुराण के उत्तरखण्ड में इसका

उत्तर इस प्रकार है-

विप्रेरभागवती वार्ता,

गेहे-गेहे जने-जने।

कारिताकणलोभेंन,

कथासारस्ततोगत:

(अध्याय-१-७१)

यह श्लोक ५००० साल पहले लिखा

गया था कि कलियुग में

अर्थ- विप्र यानी ब्राह्मण अन्न-धन आदि

के लोभवश घर-घर, गली-गली तथा

जन-जन, हरिजन, वर्णशंकर, जाति-कुजाति

और महूर्त आदि का विचार किये बिना ही

श्रीमद्भागवत की कथा सुनाने लगेंगे।

इसलिए इस अमरकथा का सार चला जायेगा।

इसको सुनने वाले श्रोता दिनोदिन कम

हो जाएंगे। यह एक फूहड़ता होकर रह जायेगा। लोग भक्ति की जगह मस्ती करेंगे।

नग्न, अश्लील नृत्य होंगे।

कथा और काल का दुष्प्रभाव–

महादेव काल के भी काल यानी समय और

मृत्यु के देवता हैं, इसलिए इन्हें महाकाल

कहा जाता है। कला एवं काल अनुसार

वे अपनी प्रकृति की सम्पूर्ण व्यवस्था

बनाये रखते हैं।

भगवान शिव के शाप की वजह से यह कथा

इसलिए भी अमरता देने वाली नहीं रही,

लेकिन शिवलोक की प्राप्ति हो सकती है।

पर शर्त यही है कि शुकदेव जैसा वक्ता हो

तथा राजा परीक्षत जैसा श्रोता हो।

क्या 18 हजार श्लोकों की यह कथा

सात दिनों में सुना पाना सम्भव है-

पहली बात, तो यह है कि 7 दिनों में

इतने श्लोक कह पाना असंभव है।

कथा का पहला दिन कलश यात्रा,

स्थापना आदि में और अंतिम सातवां

दिन हवनादि कार्यों में निकल जाता है।

फिर उस जमाने में राजा परीक्षत को इसे

शुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत कथा को

संस्कृत में सुनाया था। आज भारत की

मातृभाषा संस्कृत नहीं रही, इसलिए

इस श्रीमद्भागवत अमरकथा के मूल अर्थ को हिन्दी में सुनाना अनिवार्य हो जाता है। इसप्रकार यदि कथावाचक इसे

संस्कृत का श्लोक सुनाकर, हिन्दी

में अर्थ समझाने में इस कथा को

पूरा करने में लगभग एक वर्ष का

समय लग सकता है।

ब्राह्मणों की व्यवस्था-

जाने-माने या अनजाने कथा वाचकों ने

यह व्यवस्था बनाई कि- मूल पाठ कोई

अन्य पण्डित करता है और कथा कहने

वाले भगवताचार्य अपनी मनगढ़ंत किस्से-

कहानियाँ, कथा की व्यथा सुनाकर, डांस

आदि कराकर समापन करा देते हैं। यह

पूर्णतः अनुचित है।

सनातन धर्म की रक्षा

इस आदिकालीन विधा को बचाये रखना

ब्राह्मणों की जिम्मेदारी है, क्योंकि ब्राह्मण

ही हिन्दू धर्म के सच्चे मार्गदर्शक हैं।

कुछेक लालची, धनलोलुप कथावाचकों

ने इस परम्परा को पथ-भ्रष्ट, नष्ट कर दिया।

शास्त्रों की सच्चाई –

पदमपुराण के श्रीमद्भागवत महात्म्य के

तृतीय (तीसरे) अध्याय में लिखा है —

दुर्लभैव कथा लोके,

श्रीमद्भागवतोदभवा।

कोटिजन्मसमुत्थेन,

पुण्यनैव तु लभ्यते।।

!!४४!!

अर्थात – इस दुनिया में अब श्रीमद्भागवत

कथा दुर्लभ हो गई है; जिनका करोड़ों

जन्मों का पुण्य उदय होता है, वे ही

शिवभक्त इस अमृतः कथा का श्रवण

कर पाते हैं। यह ऐसी कथा है कि इसके

सुनने के बाद मन-आत्मा स्वयं में स्थिर

हो जाती है। पूर्ण शान्ति का अनुभव होने

लगता है। व्यक्ति ध्यानमग्न रहने लगता है।

श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कन्द के दसवें

अध्याय में भी इस का अमरत्व प्रकट

होता है।

परम् शिव उपासक महर्षि मार्केंडेय ने भी

इसे अमरकथा बताया है, इनके द्वारा रचित

महामृत्युंजय मंत्र स्वस्थ्य और अमरता

के लिए जगत-विख्यात है। इन्होंने

स्वास्थ्यवर्धक अनेक मंत्रों की खोज की थी।

महिलाओं की मलिनता मिटाने वाला मन्त्र-

चंद्रशेखर, चंद्रशेखर, चंद्रशेखर पाहिमाम्!

चंद्रशेखर, चंद्रशेखर, चंद्रशेखर रक्षमाम!!

इस मंत्र के जाप से स्त्रियों को जल्दी बुढापा

नहीं आता। सदैव सुन्दर,स्वस्थ्य और सुहागन रहती हैं। पति कभी भटकता नहीं है।

महामृत्युंजय मंत्र रहस्य नामक एक

पुराने ग्रन्थ में लिखा है कि महिलाओं को

कभी भी महामृत्युंजय मंत्र तथा गायत्री

मन्त्र का जाप भूलकर भी नहीं करना

चाहिए अन्यथा धन-सम्पदा का नाश हो

जाता है।

महर्षि मार्कण्डेय जो कि अजर-अमर हैं,

उन्होंने आगे लिखा है कि स्त्रियों को केवल

शिंवलिंग पर नित्य नियम से रोज

जल चढ़ाना अति शुभकारी होता है।

अन्य कोई पूजा कृत्य हानि देता है।

कहने का आशय इतना ही है कि

इन्हें शिव के अतिरिक्त अन्य किसी

की उपासना नहीं करना चाहिए।

कबूतर ने इस अमरकथा को

कभी सुना ही नहीं।

शुक कहते हैं तोते को–

संस्कृत में शुक, तोते को कहते हैं।

शिवजी जब माँ पार्वती को

श्रीमद्भागवत पुराण का अमृतज्ञान

सुना रहे थे, तो वहां एक शुक

(हरा कठफोड़वा या हरी कंठी वाला तोता)

का अंडा मृग छाला के नीचे पड़ा था।

शिव जी अमरकथा बहुत दिनों तक सुनाते

रहे, इसी दरम्यान तोते का बच्चा भी यह अमरज्ञान सुन रहा था।

कथा सुनाते समय भोलेनाथ ध्यानमग्न

थे, उन्होंने पार्वती से कह दिया कि जब तक तुम हुंकार भरोगी, तब तक ही यह कथा

चलेगी। इसलिए पार्वती कथा सुनने के बीच-बीच में हुंकारा भरती थी। पार्वतीजी को कथा सुनते-सुनते नींद आ गई और उनकी जगह पर वहां बैठे एक शुक यानि तोता हुंकारा देता रहा।

शिव हुए चेतन्य

अचानक शिव जी ने आंख खोली, तो

देखा की पार्वती ऊंघ रही हैं।

जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई,

तब वे शुक (तोते) को मारने के लिए उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ दिया।

हुंकारे का प्रचलन अमरकथा से शुरू हुआ।

दादा-दादी जब अपने नाती-पोतों को

कहानियां सुनाते थे, जैसे ही बच्चे सो जाते,

तो हुंकारा भरना बन्द कर देते।

जब शुकदेव भागे

शुक अमर हो चुके थे, किंतु शिव के कोप

से बचने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा।भागते-भागते वह व्यासजी के आश्रम में आया जावली ऋषि की कन्या ऋषि व्यास की

पत्नी पिङ्गला/चेटिका छत पर अपने बाल सूखा रही थी, इतने में उन्हें जम्हाई आई और सूक्ष्म रूप बनाकर शुकदेव जी उनके मुख में प्रवेश कर,

वह उनके गर्भ में रह गया।

12 साल तक रहे गर्भ में–

ऐसा कहा जाता है कि शुकदेव जी बारह साल

तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर

माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले और सन्सार में व्यासजी के पुत्र कहलाए।

गर्भ में ज्ञान

ऋषि व्यास द्वारा नित्य वेद-पुराण

वाचन को शुकदेव जी ने गर्भ में

श्रवण किया। गर्भ में ही इन्हें वेद-ग्रन्थ, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था।

जन्मते ही श्रीकृष्ण और अपने माता-पिता को प्रणाम करके इन्होंने तपस्या के लिए जंगल की राह ली। यही जगत में शुकदेव मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्री शुकदेव द्वारा जब ऋषियों को कथा सुनाई-

किस्सा है कि शुकदेव जब नैमिषारण्य गए तो वहां महान ऋषियों-मुनियों ने शुकदेव जी को बहुत

मान-सम्मान दिया और उनसे अमर कथा यानि श्रीमद्भागवत कथा सुनाने का निवेदन करने लगे, तब अपनी प्रसंशा से मुग्ध हो,

‘अभिमान’ में आकर शुकदेवजी ने ८८ हजार ऋषियों को श्रीमद्भागवत अमर कथा का वाचन आरंभ कर दिया।

शास्त्रमत किदवंती है कि जैसे ही शुकदेवजी ने अमरकथा शुरू की, तो प्रथ्वी-आकाश, कैलाश पर्वत, क्षीर सागर और ब्रह्मलोक तीनों ही हिलने लगे।

सभी इन्द्रादि देवता भोलेनाथ से कहने लगे, की हे शिवजी, आपके कारण ब्रह्मांड का ये सब नियम बिगड़ रहा है।

नेमिषारण्य में दिया था शाप–

तत्काल ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित समस्त देवता गण नेमिषारण्य पहुंचे जहां पर अमर कथा चल रही थी। तब भगवान शंकर को स्मरण हुआ कि

यदि इस कथा को सुनने वाले अमर हो गए, तो पृथ्वी का संचालन गड़बड़ाकर बंद हो जाएगा और फिर देवी-देवताओं की प्रतिष्ठा में अंतर आ जाएगा।

इसीलिए भगवान श्री शंकर क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप नहीं शाप दिया (श्राप गलत शब्द है, सही है शाप) कि जो इस कथा को सुनेगा वह अमर नहीं होगा परंतु वह शिव लोक अवश्य प्राप्त करेगा।

छड़ी मुबारक क्या है एवं इसका महत्व-

यह चांदी की छड़ी सदैव शिवभक्तों की रक्षा करती है।

अमरनाथ गुफा में यात्रा के समय तीर्थयात्रियों

की सुरक्षा के लिए महर्षि कश्यप ने शिव से प्रार्थना की, तो भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर उन्हें एक चांदी की छड़ी प्रदान की।

यह छड़ी भक्तों को आशीर्वाद, अधिकार एवं सुरक्षा की प्रतीक थी। भोलेनाथ ने आदेश दिया कि इस छड़ी को उनके निवास स्थान अमरनाथ ले जाया जाए

जहां वह प्रकट होकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देंगे। संभवत: इसी कारण आज भी चांदी की छड़ी लेकर त्दशनामी जूना अखाड़े के महंत यात्रा का नेतृत्व करते हैं।

यह एक चांदी की छड़ी है-

अमरनाथ यात्रा की औपचारिक शुरुआत के लिए व्यास यानि गुरुपूर्णिमा के दिन दर्शनार्थियों एवं साधु-महात्माओं का एक विशाल समूह के साथ

शैव्य निर्मित दंड भगवान शिव के झंडे के साथ हर हर हर महादेव का जयकारा लगाकर आगे चलता है, इसे छड़ी मुबारक कहते है।

आजकल इस छड़ी का नेतृत्व दशनामी जूना अखाड़ा श्रीनगर के महंत श्री दीपेन्द्र गिरि कर रहे हैं।

छड़ी मुबारक भूमि पूजन व ध्वजारोहण के लिए श्रीनगर से पहलगाम के लिए रवाना की जाती है।

इस छड़ी में भोलेनाथ की आलौकिक

सिद्धियां-शक्तियां निहित हैं।

एक पखवाड़े पहले शुरू होती है छड़ी यात्रा-

रक्षा बंधन से १५ दिन यानी एक पखवाड़ा पहले अमावस्या के दिन इसे एक अन्य पूजा के लिए श्रीनगर स्थित शंकराचार्य मंदिर लाया जाता है।

यहां से यह शरीका भवानी मंदिर और फिर आगे छड़ी स्थापना व ध्वजारोहण समारोह के लिए दशनामी अखाड़ा ले जाई जाती है।

तदुपरांत नाग पंचमी के दिन छड़ी पूजन किया जाता है और इसके ठीक पांच दिन बाद इसे पूरे सम्मान के साथ पुनः अमरनाथ के लिए रवाना किया जाता है।

पहलगाम से अमरनाथ के मार्ग पर छड़ी मुबारक का शेषनाग, पंजतरणी आदि पड़ावों पर ठहराव होता है।

तीन दिन में श्रीनगर से अमरनाथ १४० किलोमीटर की यात्रा पूरी करने के बाद अंतत: रक्षाबंधन वाले दिन यह अमरनाथ गुफा पहुंचती है।

वहां छड़ी मुबारक की पूजा-अर्चना के साथ ही अमरनाथ यात्रा संपन्न हो जाती है। वापसी में इसे पहलगाम लाकर लिद्दर नदी के जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।

कश्मीर कभी पानी में डूबी झील थी-

कल्हण रचित ग्रंथ राजतरंगिणी के अनुसार

अमरनाथ यात्रा सर्वप्रथम भृगु ऋषि ने की थी, जो

ज्योतिष ग्रन्थ भृगु सहिंता के आविष्कारक है।

अमरनाथ यात्रा का प्रचलन ईस्वी से भी लाखों- हजार वर्ष पूर्व का है। यह परम्परा सदियों से चली आ रही है।

एक किंवदंती यह भी है कि कश्मीर घाटी पहले एक बहुत बड़ी झील थी जहां शेषनाग

सहित अनेको सिद्ध नागराज दर्शन दिया करते थे। अपने संरक्षक महर्षि कश्यप के निवेदन पर

शेषनाग ने कुछ मुनि-महर्षियों को वहां रहने

का स्थान दे दिया। प्राकृतिक नजारे से

वशीभूत होकर वहां राक्षस भी आकर बस गए,

जो बाद में सिरदर्द बन गए।

गोकर्ण की कथा

गोकर्ण नाथ की तपस्थली कर्नाटक के मैंगलोर

के पास स्थित हैं। यहां गोकर्ण नाथ नाम के

शिवालय में शिव की पूजा होती है।

इनका जन्म गाय से होना बताते हैं।

इनके क्रूर, अय्यास भाई धुंधकारी जो पाप कर्मों की वजह से प्रेत योनि में भटक रहा था, इनको श्रीमद्भागवत कथा श्रवण से

प्रथ्वी पर सबसे पहले मोक्ष मिला था।

एक प्राचीन विधान, जो कि आज भी सत्य है-

श्रीमद्भागवत कथा के दौरान एक सात

गांठ वाला बांस गाढ़ा जाता है। इसमें हमारे पूर्वज जो प्रेत योनि में भटक रहे होते हैं, वे

आकर वायु रूप में बांस की गांठ में निवास करते हैं। ऐसा बताते हैं कि सात दिन के इस आयोजन के समय एक दिन में एक गांठ तड़-तड़ करके फटती जाती है।

यह इस बात का प्रतीक है कि आपके प्रेत योनि में भटक रहे पूर्वज को मुक्ति मिल गई। यदि ऐसा नहीं होता, तो मानते हैं कि कथा सफल नहीं हो सकी।

श्रीमद्भागवत का पांचवा और सोलहवाँ

स्कंद में भगवान शिव की तथा

दशम स्कंद में श्रीकृष्ण जी

के परिवार की कथा है।

शिव का तीसरा निवास है अमरनाथ

ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध श्लोक है-

“एकमसत” अर्थात कोटि-

कोटि ब्रह्मांड में एक मात्र सत्य है,

वह है भगवान शिव। क्योंकि वह जगत

का कल्याण करता है।

वेदों की ऋचाओं में उनकी उपस्थिति

का वर्णन है। वैदिक परम्परा के मुताबिक

शिव का पहला निवास कैलाश पर्वत

मानसरोवर है।

दूसरा है- ब्रह्मपुत्र नदी असम के ऊपर

स्थित लोहित गिरी पर, जहां माँ कामाख्या

तांत्रिक रूप में विराजमान है।

तीसरा है– मुज्वान पर्वत के पास अमरनाथ

गुफा में।

अमरनाथ की प्राचीनता

कश्मीर के इतिहास पर कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ और नीलमत पुराण में सबसे ज्यादा अमरनाथ के बारे में उल्लेख है।

कहा जाता है कि इस एक मुस्लिम बूटा मलिक गड़रिया ने अमरनाथ की गुफा को सबसे पहली बार खोजा गया था।

पूरी झूठी कहानी-

नये जमाने के इतिहासकार सन 1850 में बूटा मलिक द्वारा अमरनाथ की गुफा को खोजे जाने का जो तर्क देते हैं, वह बिल्कुल भी

विश्वास करने लायक नहीं है। इस बात

में कोई दम नहीं है। क्योंकि इससे कई सौ साल पहले कश्मीर के राजा अमरनाथ गुफा में बाबा बर्फानी की पूजा करने जाया करते थे।

तुष्टिकरण की नीति

इसी तरह मुसलमानों के प्रति हिंदुओं के अंदर सहानभूति पैदा करने के उद्देश्य से एक मनगढ़ंत कहानी मीडिया ओर सरकार द्वारा रची गई।

इसी कहानी के आधार पर यह भ्रम फैलाया गया कि आज भी अमरनाथ में जो चढ़ावा चढ़ाया जाता है, उसका एक भाग बूटा मलिक गड़रिया के परिवार को दिया जाता है।

लेकिन इस क्रम में यह जानना जरूरी है कि इस कहानी का सच क्या है और अमरनाथ गुफा का अस्तित्व कब से है।

ईमानदार इतिहासकार

विदेशी इस्लामी कट्टर मुस्लिम आक्रमणकारियों के अनेकों हमले के

पश्चात कश्मीर से हिन्दुओं का भारी संख्या में पलायन होने लगा था। इन आतंकवादियों के भय की वजह से ही सन 1400 से 1800 तक यानि

चौदहवीं शताब्दी के मध्य से अठारहवीं शताब्दी तक अमरनाथ की ये यात्रा बाधित रही।

शिवभक्त सन्यासियों की साधना

इस दौरान इक्का-दुक्का संन्यासी ही अमरनाथ की यात्रा पर जाते रहे, जबकि मुस्लिम आतंकियों के भय से आम

दर्शनार्थियों ने इस यात्रा पर आना बन्द कर दिया।

गड़रिया बूटा मलिक का सच

जिस बूटा मलिक को अमरनाथ गुफा का खोजकर्ता बताया जाता है, उसे भी उस स्थान तक एक शैव सन्यासी द्वारा साथ ले जाये जाने का उल्लेख मिलता है।

अमरनाथ तक की यात्रा करने के लिए बूटा मलिक की मदद से

उस साधु ने अपना चतुर्मास का सामान ले जाने के लिए ली थी। लेकिन पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित इतिहासकारों ने उस गड़रिया बूटा मलिक को ही अमरनाथ गुफा का खोजकर्ता घोषित कर दिया।

जिसके कारण आज भी अमरनाथ गुफा के चढ़ावे का एक हिस्सा बूटा मलिक के वंशजों को दिया जाता है। यह पूरी तरह गलत है।

भय-भ्रम से बचो

पुराणों और 11वीं सदी में कश्मीरी विद्वानों द्वारा लिखी गयी राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में अमरनाथ गुफा का जिक्र मिलता है, तो इससे ही ये बात स्पष्ट हो जाती है

कि इसकी खोज सदियों पहले ही हो गयी थी और इस कहानी से मुस्लिम गड़रिया बूटा मलिक नाम के व्यक्ति से इसका कोई लेना-देना नहीं है।

कश्मीर की कहानी से

कश्मीर के पुराने हिन्दू पौराणिक ग्रंथों का अध्ययन करने पर मालूम चलता है कि बाबा बर्फानी की इस अमरनाथ गुफा का अस्तित्व इस्लाम धर्म के प्रादुर्भाव के बहुत पहले से है

और हजारों वर्षों से यहां साधु-महात्मा एवं हिन्दू भक्त अपने परम इष्ट एवं सनातन संस्कृति के अनुयायी भोलेनाथ बाबा बर्फानी की पूजा-अर्चना कर रहे हैं।

50000 साल पुराना स्वयम्भू शिंवलिंग

अमरनाथ की गुफा में बनने वाला हिम यानि बर्फ से बना शिंवलिंग मानव निर्मित न होकर प्राकृतिक है। समुद्र तल से 3,888 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हिमलिंग

अमरनाथ गुफा को तो भारतीय पुरातत्व विभाग भी 50000 (पचास हजार) वर्ष से अधिक प्राचीन मानता है।

श्री नगर से 140 किलोमीटर है

कश्मीर छठी शताब्दी यानि आज से 1400 साल पूर्व में लिखे गये नीलमत पुराण में भी अमरनाथ यात्रा का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसमें कश्मीर के इतिहास, मानचित्र,

स्वयम्भू शिवमंदिर, नाग तीर्थ, पुष्पकरिणी, तीर्थ क्षेत्र, धर्म क्षेत्र, अनंतनाग का सूर्य मंदिर, भूगोल, लोककथाओं, यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र और धार्मिक अनुष्ठानों आदि की बहुत विस्तार से जानकारी दी गयी है।

लिखा है- छठी शताब्दी से पहले भी लोग हिमलिंग शिव के दर्शन तथा पूजन के लिए वर्ष में दो माह तक अमरनाथ गुफा, बालटाल तीर्थ, अमरेश्वर, बूढ़ा अमरनाथ की यात्रा किया करते थे।

अमरनाथ गुफा लाखों-हजारों वर्ष पुरानी, तब की हो सकती है, जब भूगर्भीय हलचल की वजह से हिमालय की पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ था।

स्कन्द पुराण के चौथे खण्ड एव

महाभारत ग्रंथों में अमरनाथ की गुफा तथा

किसी हिम शिंवलिंग की कथा बताई गई है, जो भारत के ईशान कोण में स्थित है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में लिखा है कि आज से हजारों-लाखों साल पहले

महर्षि अगस्त्य, महर्षि पुलस्त्य, महर्षि दुर्वासा, ब्रह्मर्षि वशिष्ट, नारद मुनि, दशानन रावण, भगवान श्रीकृष्ण आदि अनेक सिद्ध ऋषि-देव गण आदि

श्रवण मास में पहलगाम के वनों में स्थित बर्फ के शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने जाते थे।

अमरनाथ के आसपास अन्य तीर्थ–

कश्मीर के श्रीनगर में एक आदिकालीन

गणेश नाग तीर्थ है, जहां कभी देश-दुनिया

के लोग कालसर्प-पितृदोष की शान्ति

के लिए जाया करते थे। इसकी विस्तृत कहानी आगे लेख में कभी

अमृतम पत्रिका – ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

दी जावेगी।

श्रीगणेशाय नमः

अमरनाथ यात्रा शुरू करने से पहले भक्त

लोग सर्वप्रथम इनके दर्शन करते थे।

कश्मीर में आतंक होने के कारण लोगों ने

यहां जाना छोड़ दिया।

कश्मीर के प्राचीन 36 धर्मस्थान

उसके बाद पदमपुर,

अवन्तिपुर, मिहरनाग (ब्रह्ननाग), हरि दारण्य,

सिद्ध गणपति, बलिहार, नागाश्रम (हस्तिकर्ण)

देवक तीर्थ, हरिश्चन्द्र तीर्थ, ऋषव ध्वज,

सूर्य क्षेत्र मार्तंड भवन,

अनंतनाग का सूर्य मंदिर, सूर्यकुण्ड, भद्राश्रम

सिलग्राम, पहलगाव, बालखिल्य आश्रम,

दमारक, खीर भवानी, अमरावती, सुधा शिंवलिंग आदि 36 तीर्थों के दर्शन के बाद

लोग अमरनाथ के दर्शन करते थे। यह यात्रा

50 से 60 दिन की हुआ करती थी।

कश्मीर के कुल देवता

कश्मीर के अति प्राचीन हिन्दू ग्रन्थ कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में उल्लेख मिलता है कि कश्मीर के राजा सामदीमत महादेव के परम उपासक और शैव थे। अमरनाथ उनके कुलदेवता थे।

कश्मीर के राजा पूरे श्रवण मास

में हर वर्ष किसी गुप्त शिवलिंग पर साधना करने जाते थे। यह स्थान पूर्णतः गोपनीय था। यहाँ ऋषि-मुनियों के अलावा अन्य किसी को भी आने की इजाजत नहीं थी।

वह बर्फ का हिमलिंग या शिवलिंग अमरनाथ गुफा को छोड़कर और कहीं नहीं है।

स्थानों के पुराने नाम कश्मीर का पुराण ग्रन्थ नीलमत पुराण और बृंगेश संहिता में भी अमरनाथ गुुफा में स्वयम्भू हिमलिंग तीर्थ का उल्लेख मिलता है।

बृंगेश संहिता के अनुसार अमरनाथ ज्योतिर्लिंग की तरफ जाते समय मार्ग में पड़ने वाले तीर्थों का नाम लिखे हुआ है-

अमरनाथ यात्रा में पड़ने वाले 9 स्थान

【१】अनंतनया आज का अनंतनाग

【२】माच भवन (मट्टन),

【३】बैल गांव यानि पहलगाम

【४】गणेशबल (गणेशपुर),

【५】मामलेश्वर (मामल),

【६】चंदनवाड़ी, चन्दन वन या चन्दन बाड़ यहॉं कभी चन्दन के वन हुआ करते थे। ऐसा कश्मीरी शास्त्रों में उल्लेख है। लेक8न पिछले 50 वर्षों में आतंकवाद ने सब तबाह कर दिया।

【७】सुशरामनगर (शेषनाग),

【८】पंचतरंगिरी (पंचतरणी) और

【९】अमरावती में यात्री धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे।

बालटाल के बारे में दुर्लभ जानकारी

वर्तमान में यह स्थान बालटाल के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी अमरनाथ जाने का शॉर्टकट रास्ता है। कभी यहां एक ताल हुआ करता था,

जिसमें बहुत से हँस और इसमें सात तरह के कमल पुष्प खिलते थे। इसमें सात जन्म के पूर्वजों की मुक्ति के लिए सात रहस्यमयी कुण्ड भी थे।

दो कुंड गर्म जल के, एक कुंड अमृतः कुण्ड के नाम से था। यह ताल या झील में शेषनाग का वास था। यह बहुत गहरी थी।

पितृदोषों की शान्ति

राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि, महर्षि अपने पितरों के लिए यहाँ पितृ पक्ष में तर्पण करते थे। इस कुण्ड के आसपास सात जोड़े इच्छाधारी नागिन मणिधारी दिव्य नागों का वास है।

यह स्थान अब कुछ विलुप्त हो गया है, लेकिन कुछ जानकार अघोरी-अवधूत साधु इस स्थान पर सूक्ष्म रूप धारण करके जाते हैं।

यह तीर्थ बालटाल से उत्तर-पूरब की तरफ 12 किलोमीटर दूर बताया जाता है।

बालटाल का एक और किस्सा-

बताते हैं कि इस क्षेत्र में बल-विद्या, बुद्धि प्राप्ति के लिए बहुत से शिव साधक आज में ध्यान लीन है। आत्मबल प्राप्ति के लिए यह सर्वोच्च तीर्थ है।

बूढ़ा अमरनाथ के नजदीक रहने वाले बाबा पागलनाथ परमहँस के बताए अनुसार बूढ़ा अमरनाथ ही आदिकालीन अमरनाथ हैं।

यहां भी कभी बर्फ के हिमलिंग स्वतः ही निर्मित होते थे। अधिक भीड़भाड़ के कारण भोलेनाथ अब अमरनाथ गुफा में विराजमान हो गए।

पुलस्त्य कस्बे में स्वयम्भू चकमक शिंवलिंग-पाकिस्तानी क्षेत्र से तीनों तरफ से घिरी सीमावर्ती पुंछ घाटी है, जिसका प्राचीन नाम महर्षि पुलस्त्य था। स्कन्द पुराण के चौथे खण्ड में इसका उल्लेख है।

महर्षि पुलस्त्य दशानन रावण के बाबा थे।

इसके उत्तरी भाग में पुलस्त्य (पुंछ) कस्बे से 23 किमी की दूरी पर स्वयम्भू शिंवलिंग बूढ़ा या बुड्ढा अमरनाथ अमरनाथ मंदिर स्थित है।

सीता का सोने का हिरन–

वर्तमान में यह स्थान सोनमर्ग के नाम से जाना जाता है।बाल्मीकि रामायण में इस स्थान का नाम स्वर्णमृग है, जहां रावण ने सीता का अपहरण किया था।

बताते हैं कि भगवान राम ने बूढ़ा अमरनाथ पर बहुत तपस्या की थी।

प्राचीन अमरनाथ है यह-

यहां मिले एक शिवसाधु महिम्न गिरी जी ने बताया कि भोलेनाथ ने माता पार्वती को जो अमरता की श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी, उसके कुछ

श्लोक का अर्थ यहीं बताया था।

बालटाल से 15 किलोमीटर है स्वर्णमृग-

बालटाल की सीमा से लगे बहुत से गुप्त एवं

सिद्ध स्थान हैं, जहाँ हर किसी का जा पाना

असम्भव है। कूर्मपुराण में इस क्षेत्र का बहुत संक्षिप्त वर्णन है। इसे भालताल, बालताल

बताया गया है। अनेक जन्मों के पितृदोषों की

शान्ति हेतु यह विचित्र तीर्थ है। यहां कभी

मुंडन करवाने की परम्परा थी।

बूढ़ा अमरनाथ के दर्शन भी जरूरी हैं-

यह मान्यता है कि इस शिंवलिंग पर जल अर्पित करने से पितरों को मोक्ष मिलता है। इसके दर्शन के बिना अमरनाथ यात्रा भी अधूरी है।

बहुत सी जानकारी अभी देना शेष है। पढ़ते रहें-

बहुत दुःख की बात है कि हिन्दुओं का धार्मिक स्थल होने के बावजूद इसके आसपास कोई हिन्दू घर नहीं है।

सरकारी तुष्टिकरण की नीतियों के कारण यहां के सभी हिंदुओं को मुस्लिम आताताइयों, आतंकवादियों ने कुछ को मार भगाया, तो अनेकों हिंदुओ को मार डाला।

फिलहाल इस शिवालय की देखभाल सीमा सुरक्षा बल यानि BSF के जवान ही करते हैं।

किस जगह है बूढ़ा या बुड्ढा अमरनाथ–

शिव मंदिरों का शहर जम्मू से लगभग 250 किलोमीटर दूर पुलस्त्य(पुंछ) घाटी के “राजपुरा मंडी” चण्डक या चंडी नामक क्षेत्र, खूबसूरत लोरन घाटी के नजदीक है।

बुड्ढा अमरनाथ शिवालय में स्थापित शिंवलिंग चकमक पत्थर से बना हुआ है, जो दुनिया के अन्य सभी शिव मंदिरों से पूरी तरह से भिन्न है।

मंदिर की चारदीवारी पर हजारों-लाखों साल पुरानी लकड़ी के काम की नक्काशी है।

बर्फ की चादर से ढका तीर्थ–

पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला के चरणों में बसे, बर्फ की सफेद चादर से ढके इस बुड्ढा अमरनाथ के नजदीक लोरन दरिया भी बहता है, जो कि एक अद्भुत प्राकृतिक नजारा है।

जिसका पुराणोक्त नाम ‘पुलस्त्य दरिया‘ है।

दरिया का पानी बर्फ से भी अधिक ठंडा लिए रहता है।

अमरनाथ जैसी परम्परा जिस तरह अमरनाथ गुफा में श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन को हर साल मेला लगता है, ठीक उसी प्रकार बूढ़ा अमरनाथ के इस पवित्र स्थल पर भी एक विशाल शिव मेला लगता है

और अमरनाथ यात्रा की ही भाँति यहाँ भी यात्रा की शुरुआत होती है और उसी प्रकार ‘छड़ी मुबारक’ रवाना की जाती है। यह मन्दिर दशनामी जूना अखाड़े के सानिध्य में रहता है।

शिवदेवदिया से श्री श्री 1008 विश्वात्माननद गिरी जी महाराज का स्नेह सहयोग हर समय मिलता है। वालटाल का यह सबसे प्राचीन तीर्थ है।

बाबा अमरताल में अमरनाथ कुछ वर्षों बाद अमरनाथ तक वाहन जाने लगेंगे इसलिए अब गुफा से करीब 20 किलोमीटर आगे नवीन अमरनाथ के रूप में विख्यात होंगे।

अभी इस स्थान पर कुछ ही साधु संत पहुंच पाते हैं। वहां एक अमरताल पहले से ही मौजूद है। कुछ शिव तपस्वी अभी वहाँ साधनारत हैं।

यात्रा के दौरान मिले एक अवधूत सन्त शिवअभयगिरि जी, जो 45 बार अमरनाथ की पैदल यात्रा कर चुके हैं उनके अनुसार यहां के चमत्कार-

■ बालटाल तीर्थ में श्री हनुमान जी ने अपने गुरु सूर्यदेव से एक सिद्धि ज्ञान प्राप्त किया था।

■ भगवान परशुराम ने अपने शिष्य कर्ण को

मणिपद्म यानि धन वृद्धि की शिक्षा यहीं दी थी।

■ रावण ने स्वर्ण बनाने की कला इसी स्थान पर सीखी थी।

अघोर तन्त्र के मुताबिक स्वर्ण बनाने की विधि इस प्रकार बताई है- गंधक, पारा, थुथिया। विधि न जाने चूतिया।।

■ इन तीनों के समभाग से स्वर्ण का निर्माण होता है। बस आपको शुद्ध करने और मिश्रण की कला आना चाहिए। इन्हें शुद्ध करने के मंत्रों का भी उल्लेख है। यहां शिलाजीत बहुत पाया जाता है।

■ अमरेश्वरा हिमलिंग

नीलमत पुराण के अनुसार एक स्वयम्भू शिंवलिंग अमरेश्वरा हिमलिंग शिवालय के बारे में दिये गये वर्णन से पता चलता है कि सिद्ध शिवभक्त ऋषि-महर्षि केशलोचन

करके पितरों की शान्ति के लिए पूजा-पाठ, अनुष्ठान किया करते थे। इसमें दुनिया के बहुत राजा-महाराज अपनी प्रजा की. सुख शांति हेतु प्रार्थना किया करते थे।

अभी भी इस स्थान पर बहुत से योगी हैं जिनकी उम्र का पता नहीं हैं। जिन्होंने से कई वर्षों से अन्न-जल त्याग रखा है।

■ माटी की महिमा …इसी तरह अमित कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘अमरनाथ यात्रा’ नामक पुस्तक के अनुसार पुराणों में अमरगंगा का भी उल्लेख है, जो सिंधु नदी की एक सहायक नदी थी।

अमरनाथ गुफा जाने के लिए इस नदी के पास से गुजरना पड़ता था। हिन्दू ग्रंथो में वर्णन है कि बाबा बर्फानी के दर्शन से पहले इस सिंधु नदी की माटी का तन पर लेप लगाने से सारे कष्ट, दुख तथा पाप धुल जाते हैं।

शिव भक्त इस मिट्टी को अपने शरीर पर बम-बम कहकर लगाते थे।

■ पंचतरणी नदी ही अमरगंगा नदी है-

गरुड़पुराण में अमरगंगा नदी का उल्लेख है कि ये कहीं बर्फीले क्षेत्र में किसी हिमलिंग के रक पग योजन अर्थात वर्तमान की मर्प 500 मीटर की दूरी पर बह रही है।

कहीं ऐसा, तो नहीं है कि अमरनाथ के नजदीक आज की पंचतरणी ही अमरगंगा हो।

■ बताया गया है कि अमरगंगा से आगे चलने के बाद अमरनाथ गुफा के दर्शन होते हैं। इसी गुफा में बर्फ से बना एक विशाल प्राकृतिक शिवलिंग है, जिसे .बाहर से ही देखा जा सकता है।

1420 से 1470 तक का इतिहास कश्मीरी लुटेरा, जो बाद में बादशाह बना। जैनुलबुद्दीन ने अमरनाथ की यात्रा के बारे में लिखा है।

पवित्र हिंदू तीर्थस्थल…मुगल बादशाह अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘आईन-ए-अकबरी’ में अमरनाथ हिमलिंग का जिक्र एक पवित्र हिंदू तीर्थस्थल के रूप में

लिखा है कि हजारों वर्षों से, श्रीनगर से 140 किलोमीटर दूर किसी गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनकर जमीन पर गिरता है, जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढ़कर शिंवलिंग जैसा हो जाता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है।

मुस्लिम इतिहास लेखक जोनराज ने इसका उल्लेख भी इसी तरह किया है।

कृष्ण पक्ष में चंद्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू हो जाता है और जब चांद लुप्त हो जाता है, तब बर्फ की आकृति वाला गोला यानि हिमलिंग भी विलुप्त हो जाता है।

विदेशी यात्री किताब बर्नियर ट्रेवल्स में भी इस बर्फ से स्वतः ही निर्मित शिवलिंग का वर्णन किया गया है। विंसेट-ए-स्मिथने बर्नियर की किताब के दूसरे संस्करण का संपादन करते हुए लिखा है

कि बर्फीले पहाड़ों में बर्फ से ढकी अमरनाथ की गुफा आश्चर्यजनक है, जहां शेषनाग रूपी मुख से बर्फ पानी बूंद-बूंद टपकता रहता है और वह जल जमकर बर्फीले खंड का रूप ले लेता है।

हिंदू इसी को शिव की प्रतिमा यानि हिम शिंवलिंग के रूप में पूजते हैं।

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