चारों वेदों की रचना या खोज किसने की, उन मन्त्रदृष्टा मुनि-महर्षियों के नाम किस पुराण में लिखे हैं!

बहुत कम लोग जानते हैं कि हमारे वेदों की रचना मन्त्रदृष्टा ऋषियों द्वारा हुई।
भारत के इन महान 92 महर्षियों ने अपने तप-ध्यान योग से आंख बंद करके जिन वेदमन्त्रों को देखा या साक्षात्कार किया, उसे बाद में अपने शिष्यों को बताया।
मन्त्रदृष्टा ऋषि अर्थात दूरदर्शन द्वारा मंत्रों के दृष्टा कहे जाते हैं।
ऋषि शब्द की व्युत्पत्ति ‘ऋष’ है जिसका अर्थ ‘देखना’ या ‘दर्शन शक्ति’ होता है। ऋषि के प्रकाशित कृतियों को आर्ष कहते हैं जो इसी मूल से बना है, इसके अतिरिक्त दृष्टि (नज़र) जैसे शब्द भी इसी मूल से हैं। सप्तर्षि आकाश में हैं और हमारे कपाल में भी।
ऋषि आकाश, अन्तरिक्ष और शरीर तीनों में होते हैं।
महर्षि भारद्वाज ऋग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा कहे गये हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का अति उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं।
 भारतीय वैदिक परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले महाऋषियों  को त्रिकाल दर्शी कहा जाता है। जिन्होंने अपनी विलक्षण भक्ति एवं एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में मन्त्र शब्दों के दर्शन कर वेद के गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया।
 इसीलिये कहा गया –
 !!ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः!!
 अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं न कि बनानेवाले। अर्थात् बनानेवाला तो केवल एक परमात्मा शिव ही है।
 इसीलिये किसी भी मंत्र के जप से पूर्व उसका विनियोग अवश्य बोला जाता है।
जैसे- अस्य श्री ‘ऊँ’कार स्वरूप परमात्मा गायत्री छंदः परमात्मा ऋषिः अन्तर्यामी देवता अन्तर्यामी प्रीत्यर्थे आत्मज्ञान प्राप्त्यार्थे जपे विनियोगः।
वैदिक काल में ये सभी मन्त्र लिखने का चलन नहीं था। गुरु परम्परा में अपने शिष्यों को स्मरण कराते थे। इसीलिए वेदोनबको श्रुति कहा गया है।
हिंदुस्तान के ऋषियों ने इस पर भाष्य, उपनिषद लिखे तथा पुराणों, ग्रन्थों का आधार भी यही वेद मन्त्र हैं।
मत्स्य पुराण १४५/९८:११८ के अनुसार ९२ मन्त्रदृष्टा ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं-
(द्रष्टा) ऋषि-समूह (वंशानुक्रमश:)
१. महर्षि भृगु,
२. ऋषि काश्यप,
३. प्रचेता,
४. ऋषि दधीच (महर्षि पिप्पलाद के पिता। पिप्पलाद ही भगवान शनि के गुरु हैं और इन्होंने हदेव की भक्ति कर पीपल वृक्ष बनने का वरदान मांगा था। ज्ञात हो कि पीपल में त्रिदेवों का वास है और यह पूज्यनीय भी है।)
५. आत्मवान्,
६. अथ,
७. ऊर्ध्व,
८. जमदग्नि (शिवभक्त परशुराम के पिता),
९. वेद,
१०. सारस्वत,
११. आर्टिषेण,
१२. महर्षि च्यवन (च्यवनप्राश के आविष्कारक), १३. वीतहव्य,
१४. सवेधस,
१५. वैन्य,
१६. पृथु,
१७. दिवोदास,
१८. गृत्स तथा
१९. शौनक। (ये सभी उन्नीस मंत्रकर्ता ऋषि भृगुवंश में उत्पन्न थे।)
२०. अंगिरा,
२१. त्रित,
२२. भरद्वाज,
२३. लक्ष्मण,
२४. कृतवाच,
२५. गर्ग,
२६. संकृति,
२७. गुरुशील,
२८. मांधाता,
२९. अंबरीष,
३०. युवनाश्व,
३१. पुरुकुत्स,
३२. स्वश्रव,
३३. सदस्यवान्,
३४. अजमीठ,
३५. स्वहार्य,
३६. उत्कल,
३७. कवि,
३७. कवि,
३८. पृषदश्व, ,
३९. विरूप,
४०. काव्य,
४१. काव्य,
४१. मुद्गल,
४२. उतथ्य,
४३. शरद्वान्,
४४. वाजिश्रवा,
४५. अपस्यौष,
४६. सुचित्ति,
४७. वामदेव,
४८. ऋषिज,
४९. बृहच्छुल्क,
५०. दीर्घतमा ऋषि,
५१. कक्षीवान् तथा
५२. स्मृति। (ये तैंतीस मंत्रकर्ता ऋषि अंगिरस-वंशोत्पन्न हैं।)
५३. काश्यप,
५४. सहवत्सार,
५५. नैध्रुव,
५६. महर्षि नित्य,
५७. असित तथा
५८. देवल।
(ये छह मंत्रकर्ता ऋषि कश्यप-वंश में उत्पन्न हैं।)
५९. अत्रि,
६०. अर्धस्वन,
६१. शावास्य,
६२. गविष्ठिर,
६३. कर्णक
६४. पूर्वातिथि।
(ये छह मंत्रकर्ता ऋषि अत्रिगोत्रीय हैं।)
६५. वसिष्ठ,
६६. शक्ति,
६७. महर्षि पराशर, (ऋषि व्यास के पिता)
६८. इंद्रप्रतिभ,
६९. भरद्वसु,
७०. मित्रावरुण
७१. कुंडिन।
(ये सात मंत्रकर्ता ऋषि वसिष्ठगोत्रीय हैं।)
७२. विश्वामित्र,
७३. देवरात,
७४. बल,
७५. मधुच्छंदा,
७६. अघमर्षण,
७७. अष्टक,
७८. लोहित,
७९. भृतकील,
८०. मांबंधि,
८१. देवश्रवा,
८२. धनंजय,
८३. शिशिर,
८४. (महातेजा) शालंकायन।
(ये तेरह मंत्रकर्ता ऋषि कौशिकवंशीय हैं।) (यहाँ तक सभी ऋषि ब्राह्मण-कुलोत्पन्न हैं।)
८५. अगस्त्य,
८६. दृढद्युम्न तथा
८७. इंद्रबाहु।
(ये तीन मंत्रकर्ता ऋषि अगस्त-गोत्रोत्पन्न हैं।)
८८. वैवस्वत मनु
८९. इलापुत्र ऐलराजा पुरूरवा।
 (ये दो मंत्रकर्ता ऋषि क्षत्रिय-कुलोत्पन्न हैं।)
 ९०. भलंदक,
९१. वसाश्व तथा
९२. संकील।
(ये तीन मंत्रकर्ता ऋषि वैश्यकुलोत्पन्न हैं।)
इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों वर्गों से कुल बावनबे मंत्रकर्ता ऋषि हुए।
-मत्स्यपुराण : १४५, ९८-११८

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