महर्षि दधीचि कौन थे?

  • अपनी भारतीय संस्कृति को जानना भी जरूरी है। वैसे तो ये सब जानकारी कथावाचकों, प्रवचनकर्ताओं को देनी होंनी चाहिए..
    • एक रोचक रहस्य और कथा पढ़कर गर्व अनुभव करेंगे।
  • महर्षि दधीचि महान त्रिकालदर्शी थे। जिन्होंने देवताओं को अपनी हड्डियां आयुध-हथियार बनाने हेतु दान दे दी थी।
  • दधीचि का त्याग…कालांतर में अथर्वापुत्र महर्षि दधीचि द्वारा जब अपने देश धर्म व विश्व कल्याण के प्रयोजनार्थ दैत्यराज वृत्रासुर वध के लिए अपनी अस्थियां दानार्थ प्रदान की तो उनकी भार्या वेदवती, जो कि गर्भवती थी, ने सती होने की घोषणा की।
  • इस पर अग्नि देव सहित अनार ने दधीचि पत्नी वेदवती को याद दिलाया है। गर्भस्थ शिशु ‘रुद्रावतार’ हैं!
  • अतः उसे जन्म के देवें। इस पर वेदवती ने अपने गर्भ को शल क्रिया द्वारा निकालकर दधीचि द्वारा स्थापित अश्वस्थ वृक्ष (पीपल) को सौंपते हुए महामद दधिमथी से अपने गर्भ-शिशु के रक्षार्थ प्रार्थन की।
  • देवी दधीमथी के सानिध्य में पीपल के नीचे पलने के कारण ही महर्षि दधीचि के इस पुत्र का नाम निप्पलाद हुआ । ब्रह्मांड पुराण के विश्वोत्पत्ति खंड में उपरोक्त घटना दृष्टव्य है।
  • पिप्पलाद पौत्र १४४ आचार्यों ने ही त्रेता युग में सूर्यवंशी अयोध्यापति राजा मंधाता का पुराण प्रसिद्ध यज्ञ महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से गोठ-मांगलोद की इस ‘कपाल पीठ’ पर करवाया, जिसे सात्विक देवेशी (दधिमथी) यज्ञ के रूप में जाना गया।
  • माघ शुक्ला सप्तमी को यज्ञ की पूर्णाहूति के अवसर पर देवी दधिमथी प्रकट हुई और राजा मांधाता को इस कपाल पीठ पर मंदिर निर्माण का आदेश दिया। यहां यह पौराणिक मंदिर, यज्ञ कुंड आज भी विद्यमान है!
  • महर्षि दधीचि पुत्र मुनि पिप्पलाद बहुत बड़े शिवभक्त और भगवान शनि के गुरु थे। ऋषि पिप्पलाद ही पीपल वृक्ष बनकर दुनिया को हवा-छाया दे रहे हैं। भगवान साहिब ने इन्हें जनकल्याण हेतु पीपल वृक्ष बनने का वरदान दिया था।
  • दधीची-वेदवती पुत्र पिप्पलाद’ की ख्याति भोलेनाथ के परम साधक और तपोनिष्ठ महर्षि के रूप में हुई, जिन्होंने चक्रवर्ती राजा अनरण्य की पुत्री पद्मा से विवाह कर बृहत्स, गौतम, भार्गव, भारद्वाज, कोच्छस, कश्यप, शांडिल्य, अत्रि, पराशर, कपिल, गर्ग और लघुवत्स नाम से १२ तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया।
  • महर्षि निप्पलाद के इन्हीं १२ ऋषियों के १४४ पुत्र हए, जिन्होंने अपनी कुलदेवी दधिमथी की स्तुति-आराधना से सर्वत्र वर्चस्व बनाया।
  • राजस्थान में छुपा है रहस्य…राजस्थान में मरुधरा भू-भाग के नागौर में अवस्थित है दधिमथी का ‘कपाल पीठ’ है। यहां दोनों ही नवरात्रियों में विशाल मेले आयोजित होते हैं।
  • शक्तिपूर्णा-महामाया-दधिमथी का यह प्राचीन ‘कपाल पीठ’ नागौर के समीप बसे दो गांवों गोठ तथा मांगलोद के निर्जन व एकांत क्षेत्र में स्थित है और इसी कारण इसे गोठ-मांगलोद का कपाल पीठ’ भी कहा जाता है।
  • भागवत, महाभारत, दधिमथी पुराण, पद्म पुराण व ब्रह्मांड पुराण आदि में गोठ-मांगलोद का दधिमथी कपाल पीठ’ की पुरातनता के बारे में विशद् जानकारी व पौराणिक दृष्टांत पढ़ने को मिलते हैं।
  • दस मानस पुत्रों में से एक महर्षि अथर्वा, जो दधिमथी और विकटासुर कपाल पीठ की देवी ‘दधिमथी’ ब्रह्माजी के अथर्ववेद के प्रणेता माने जाते हैं, के यहां वरदान स्वरूप प्रकट हुई।
  • जल में बिना किसी ‘अरणि’ मंथन के अग्नि का प्रादुर्भाव करनेवाले महर्षि अथर्वा का विवाह कर्दम ऋषि की विदुषी पुत्री शांता से हुआ था।
  • भगवती लक्ष्मी की कठिन तपस्या से प्रसत्र हो, मां महालक्ष्मी ने वरदान दिया कि जो भी इस दर पर देवी से भावुक होकर प्रार्थना करेगा, उसकी गरीबी मिट जाएगी।
  • देवताओं का आगमन….इस कपाल पीठ से यह मान्यता भी जुड़ी हुई है कि पुष्कर में रहनेवाले दिव्य ऋषिगण वारानुकम से यथा, रवि को महर्षि वसिष्ठ, सोम को वामदेव, मंगल को कपिल, बुध को अगस्त्य, गुरु को अथर्वा, शुक्र को अंगिरा, शनि को अत्रि, नवरात्रि को मार्कण्डेय, दीपावली को विष्णु भगवान, मोहरात्रि जन्माष्टमी को ब्रह्माजी एवं कालरात्रि शिवरात्रि को स्वयं शिव इस कपाल पीठ पर योगमाया शक्तिपूर्णा दधिमथी देवी की उपासना करते हैं!
  • पुराणों में यह उल्लेख भी है कि अज्ञातवास के समय पांडव इस कपालपीठ के दर्शन करते हुए ही पुष्कर गये थे।
  • सभा मंडप के बाहर चौक, निवारिया, प्रकोष्ठ, चारदीवारी, यात्री निवास, बावड़ी न्य शिव मंदिर आदि का निर्माण एवं कपाल कड का जीर्णोद्धार करवाया था ।
  • गोठ-मांगलोद के इस कपाल पीठ पर नवरात्र की सप्तमी व अष्टमी को विशाल मेला लगता है तथा सबसे बड़ा आकर्षण होता है!
  • शक्तिपूर्णा-महामाया दधिमथी को अर्पित दुग्धाभिषेक का दृश्य । सप्तमी व अष्टमी को शृंगारित प्रतिमा योगमाया दधियश्री देवी की कपाल पीठ पर बने इस पुरातन मंदिर से पाप्त एक शिलालेख के आधार पर विक्रम वित् ६०८ में दाधीच कुल के १४ ब्राह्मणों शरा २०२४ स्वर्णमुद्राओं से इसका जीर्णोद्धार व विस्तार किया गया।
  • शक्तिपीठ के गर्भगृह व सभा मंडप में कुल ३८ पाषाण स्तंभ आज भी दृष्टव्य तथा एक पाषाण स्तंभ, तो अधर में ही है जो स्वयं में एक चमत्कार से कम नहीं है।
  • उत्तर भारत के प्राचीनतम मंदिरों में गिने जानेवाला पीठ-मांगलोद का कपाल पीठ का यह मंदिर दो हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना माना जाता है।
  • इस मंदिर से प्राप्त शिलालेख का विवरण ‘इपेग्राफी ऑव इंडिया’ के भाग-३ में अंकित है जो इसकी पुरातनता की पुष्टि करता है।
  • यही नहीं, यहां की देव प्रतिमा पर संवत् ४८ का एक लेख भी विद्यमान है । यहां लगे संवत् १९०८ के शिलालेख में लिखा है कि उदयपुर के सूर्यवंशी महाराणा स्वरूपसिंह ने यहां के गर्भग्रह एवं सभामण्डप के बाहर चौक, तिवारियाँ, प्रकोष्ठ, चारदीवारी, यत्रिनिवास, बावड़ी एवं शिवमंदिर आदि का निर्माण एवं कपालकुंड का जीर्णोद्धार करवाया था।
  • योगमाया दधिमथी का श्रृंगार किया जाता है और सवारी के रूप में उन्हें रेवाड़ी में बिठाकर यज्ञकुंड तक शंखनाद व भजन-कीर्तन करते-करते ले जाया जाता है।
  • मेलार्थी भी यहां के यज्ञकुंड में स्नान कर मनौतियां पूर्ण करते हैं देवी की अर्चना-उपासना करते हैं। इस मंदिर प्रांगण में ऋषि दधीचि की पाषाण प्रतिमाएं भी पजांर्तगत तबल्य है जो योगमाया दधिमथी देवी के भ्राता थे। मंदिर प्रांगण में पुरावशेषों के साक्ष्य भी इसकी प्राचीनता को सत्यापित करता है।

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