ध्यान सामान से अधिक महत्वपूर्ण है। प्रभाव जमाने और अभाव मिटाने के से मान-अपमान के लिए ध्यान-योग जरूरी है…. अमृतम पत्रिका

ध्यान कोई पूजा नहीं है। यह अनुष्ठान या विधि-विधान भी नहीं है। ध्यान है-प्रकृति को देना…!

लेना कुछ भी नहीं। ईश्वरोउपनिषद में लिखा है कि हम ईश्वर को केवल श्वांस ही दे सकते हैं।

शेष प्रसाद, फल आदि अर्पित करना पाखंड है।

ध्यान है-तन-मन-अन्तरात्मा का कचरा साफ कर विचारों की शून्यता। फिर स्वयम के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता।

ध्यान की प्रक्रिया में भयानक भ्रम हैं। प्रवचन देने वाले, कथा कारक आदि कहते हैं- श्वांस को रोको।

श्रीमदभगवत गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं-

केवल आती-जाती श्वांस पर ध्यान देंवें।

ग्रन्थ कहते हैं कि

श्वांस को नाभि तक ले जाकर रोको।

अवधूत-अघोरी के अनुभव हैं कि श्वांस को नाभि तक ले जाकर जितनी देर रोक सके और धीरे से छोड़ते हुए भी श्वांस को लीन नहीं है।

मतलब जितने समय तक रोके, भहर निकलने के बाद भी उतनी देर तक अंदर श्वांस नहीं लेना है।

तभी जो खंडित, बिखरे 10 तरह के मन है, वह संगठित होने लगते हैं।

फिर मन बहुत शान्त होकर अवसाद, डिप्रेशन, मानसिक तनाव दूर होकर साधक का ध्यान स्वयम में लगने लगता है।

हमें हमारे अंदर ही नाभि में ध्यान लगाना है, कहीं ओर नहीं। अघोरियों की यही प्रक्रिया है।

वे श्वांस-प्रश्वांस अर्थात आती-जाती श्वांस पर ध्यान देते हैं। यही इनकी सिद्धि की वजह है।

दरअसल ध्यान के मामले में…

मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना वाली बात चरितार्थ हो रही है।

मैंने सभी प्रयोग अपनाए, लेकिन मन का भटकना स्थिर नहीं हुआ। बहुत सिद्ध स्थानों पर जाकर सन्त-महात्माओं से मिला!!!!

ऐसा महसूस हुआ कि सब सन्त माया के योग में लगे हैं। इनका ध्यान परमात्मा पर कम, पैसे पर ज्यादा है।

ध्यान का सही ज्ञान विपश्यना, उच्चकोटि के जैन साधुओं और अवधूत-अघोरियों के पास है। ये लोग योग यानी जोड़ने की बात नहीं करते,

वे कहते हैं…घटाने का अभ्यास करो। हर चीज जोड़ने की प्रवृत्ति ठीक नहीं। जोड़ने से मन भटकता रहता है।

सारी मोह-माया, लोभ, छल-कपट, बेईमानी और भ्रष्टाचार का कारण ही इकट्ठा करने यानि योग की आदत है।

अघोरियों का मानना है कि-

प्रारम्भ में आती-जाती श्वांस अर्थात श्वांस-प्रश्वांस पर ध्यान दो। फिर इस रोकना सीखो।

बाद में श्वांस को शरीर से पूरी तरह बाहर निकालकर श्वांस को रोके रहो।

भगवान बुद्ध ने इसी अभ्यास को ध्यान बताया है। बोद्ध धर्म के लामा श्वांस छोड़कर 8 से 10 मिनिट तक साँसे

रोक लेते है। यह अभ्यास निरन्तर चलायमान रहता है।

ध्यान, कुंडलिनी जागरण, तांत्रिक सिद्धियां जैसे-कर्णपिशाचिनी, गुप्त विद्या, ज्योतिष की जानकारी विस्तार से कभी आगे देंगे।

फिलहाल ध्यान योग की छोटा सा उपाय इतना ही करें कि आते-जाते, चलते-फिरते श्वांस छूने की आदत बनाएं।

अनुभव मुफीद बैठे, तो आगे की प्रक्रिया बताएंगे।

बस इतना विश्वास दिला सकते हैं कि- आप एक साल में सही मायने में इंसान बन जाएंगे।

एक दिन परमहंस सन्त मलूकदास की तरह कहने लगेंगे कि….

!!मेरा भजन शिव तू कर, मैं पाया विश्राम!!

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