संक्रमण पर होते हैं।
सन्सार में फिलहाल कोविड-19
का कोई हल नहीं निकल पा रहा।
अब लोग केवल परम्परागत चिकित्सा पध्दति से स्वस्थ्य रह सकते हैं।
दरअसल दवा का काम है दबाना.…
दवा का नाम ही इसलिए है कि यह किसी
रोग को ठीक न करके दबा देता है।
दवा द्वारा दुनिया के दुःख को दूर
नहीं किया जा सकता और ज्यादा दवा
लेने से रोग मिटते नहीं है, बस कुछ राहत
जरूर मिलती है। एक के बाद एक
दवा और अंत में ऑक्सीजन की हवा
इलाज रह जाता है। लगातार मेडिसिन
का उपयोग करने से शरीर की प्रतिरक्षा
प्रणाली दिनोदिन कमजोर होती चली जाती है।
सीख से ठीक...
पुराने बड़े-बुजुर्ग पहले
बाई (स्त्री), दवाई, जम्हाई (आलस्य)
काई (दोगले लोग) और ज्यादा
कमाई से बचने की सलाह देते थे।
स्वस्थ्य तन ही, मन को स्वच्छ रखता है।
तंदरुस्ती तथा मानसिक शांति के लिए-
प्राकृतिक चिकित्सा, योगादि का सहारा
लेना लाभकारी रहता है।
खुद को कर बुलंद इतना….
अब समय आ गया है कि-
सन्सार के समझदार लोग सभ्यता
की एक सूची बनाएं, इसमें से परमाणुओं
एवं नकारात्मकता को हटा दें –
और देखें कि क्या हम एक और सुंदर
सभ्यता एवं समाज का निर्माण कर सकते हैं,
जो अधिक टिकाऊ और समावेशी हो –
जो सभी जीव-जगत को समान मानती हो।
शिव की तरह कल्याणकारी हो।
जीवन का एक तरीका जहां आप हमसे
अलग उन लोगों के साथ सदभाव में रहते हैं
और उन्हें हमारी संपत्ति के रूप में नहीं सोचते हैं।
दिनों-दिन गिर रहा है
इंसानियत का स्तर,
और दुनिया का दावा है
कि- हम तरक्की पर हैं।
यदि दुनिया के मनुष्य आयुर्वेद, प्राकृतिक
चिकित्सा या अन्य कोई प्राचीन विज्ञान को
गले लगा सकते हैं, जो रोग के मूल कारण के उपचार पर केंद्रित है। अब ये प्राचीन
प्रथा-परम्परा हमारा हाशिये पर इंतजार
कर रही है, क्योंकि विश्व में पूंजीपतियों
द्वारा वित्त पोषित किया गया है, जो
भय-भ्रम तथा हर क्षेत्र में झूठी जानकारी
फैलाकर लोगों को डरपोक बना दिया है।
इसे भंग करना चाहिए ताकि, हमारे
हीन-दीन दुनिया में, हम मूल कारणों
पर विचार कर सकें, इसे व्यवहार या
अनुभव में ला सकें और उनके चारों
ओर एक नई प्रणाली का अवलोकन
कर आरम्भ करें- सबको पता है कि-
आयुर्वेद शरीर की कार्यप्रणाली यानि
पूरे सिस्टम को ठीक करता है…..
मान लो-आपकी मछली बीमार है!
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान मछली को ठीक
करने के लिए सारे साइंस का सदुपयोग कर
उसे नई-नई दवा देकर देखेगा और तब तक
इलाज करेगा, जब तक मछली मर नहीं जाती, जबकि प्राकृतिक चिकित्सा शास्त्र या आयुर्वेद मछली को अलग कर, यह सुझाव देगा कि हम सबसे पहले पानी केे टैंक को साफ करें।
मछलियों को दवाइयाँ देने से मछली की
जान बच जाएगी, लेकिन बीमारी फिर भी
पनपेगी, लेकिन टैंक की सफाई –
‘जो कुछ अधिक परिश्रम वाला काम है‘,
इलाज करने का सबसे बेहतरीन सही तरीका है।
विश्व की सभी चिकित्सा खोजें-इलाज पर आधारित हैं। हम टैंक की सफाई के बजाय मछलियों को दवा खिलाते रहेंगे और वह
सदैव बीमार बनी रहेगी। अतः व्यक्तियों को
बीमार बनाये रखना ही विद्वान वैज्ञानिकों
और पूंजीपतियों का सोचा-समझा खेल है।
शायद हम इस अवसर को बीमारी,
स्वास्थ्य और शरीर के प्रचलित सिद्धांतों के पुनर्मूल्यांकन के लिए ले सकते हैं।
हां, आइए…. बीमार मछलियों की रक्षा करें, क्योंकि हम अभी ठीक कर सकते हैं। लेकिन शायद अगली बार हमें इतनी मछलियों को
अलग-थलग और दवा नहीं देनी पड़ेगी,
अगर हम टैंक को साफ कर सकें।
शरीर वैज्ञानिक और आशिक दोनो ही
खोजी प्रवृति के होते हैं-
मेडिकल शोधकर्ताओं का मानना है कि-
कोरोना हाथ मिलाने और जिनकी प्रतिरक्षा
प्रणाली कमजोर है। इसलिए फैलता है।
वहीं आशिकों ने अनुसंधान किया कि–
कोरोना हाथ मिलने से फैलता है,
नजर मिलाने से नहीं।
हम एटमबम वाली नहीं, बम-बम (शिव)
वाली दुनिया का निर्माण कर सकें….
दुनिया घने अंधेरे में है।
सरकार या संस्थाओं द्वारा अन्धकार से
रोशनी की तरफ बढ़ने के कोई प्रयास
नहीं किये गए।
भारत का मूलमंत्र था-
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
!!ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः!!
(बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28)
अर्थात-
हे महादेव! हमें असत्य से सत्य,
अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से
अमरता की तरफ ले चलो।
विश्व ने इन अमॄतम शब्दों को
बहुत हल्के से लिया।
आज सब असत्य, अहंकार और अन्धकार
के हाथों में सत्ता की शक्ति है। विज्ञान की
चकाचौन्ध ने सभी को चक्षु हीन बना दिया है,
तब भी……!
हम मान रहे हैं कि अंधकार को चीरकर
आप अधिक प्रकाश तक पहुंच गए हैं।
यही भ्रम है, जो सबको भयभीत कर रहा है।
सब सोचते हैं-सन्सार, सरकार के वश में है।
सरकारें कर वसूली के अलावा कुछ करना
नहीं चाहती। चारों तरफ कलेश, कुकर्म,
कमीनेपन का कर्मकांड एवं अन्धकार है।
सन्सार की कोई भी शक्ति शिव की तरह
!!कर्पूर गौरं करुणावतारं!!
बनकर करुणा बरसाना नहीं चाहती।
नेता गण बिना योग्यता के
!!भवम भवानीं सहितं नमामि!!
होकर पूज्य होना चाहते हैं।
सभी धर्मशास्त्र आग्रह करते हैं कि-
सृष्टि में करुणा से बड़ा कोई भी
एन्टीवायरस नहीं बना। करुणा भाव
से दुनिया का कोना-कोना अपनेपन से
भर सकता है।
मनुष्य ने करुणा को छोड़ा, तो “कोरोना”
का फोड़ा पैदा हो गया। इस पर कोई भी
हथौड़ा, परमाणु बम काम नहीं कर रहा।
करुणा से ही होगा-कायाकल्प...
अयं निजः परोवेतिगणना लघुचेतसाम्! उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्!!
भावार्थ:-
यह मेरा है, यह उसका है, ऐसी संकुचित
सोच-चित्त वाले स्वार्थी व्यक्तियों की होती है।
इसके विपरीत करुणा से भरे उदार चरित्र
वाले लोगों के लिए, तो यह सम्पूर्ण धरती
ही एक परिवार जैसी होती है।
उपनिषदों में उल्लेख है….
कानों की शोभा कुण्डलों अथवा हीरे-मोती के
गहनों से नहीं, अपितु ज्ञान और भगवान
की वाणी सुनने से होती है।
हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं,
न कि धन-दौलत या आभूषण-कंकणों से।
करुणा से भरे दयालु-सज्जन मनुष्यों का
तन, चन्दन से नहीं महकता, बल्कि दूसरों
का हित करने से महककर शोभा पाता है।
इस बारे में नीचे लिखा श्लोक दृष्टित है….
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन!
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन!!
यदि देखा जाए, तो दुनिया ने करुणा
से किनारा किया तो कोरोना शिव के
संहार स्वरूप रूप में प्रकट हो गया।
कोरोना किसी भी अधर्मी को छोड़ने
वाला नहीं है। यह जगत का जानी दुश्मन है।
इस वायरस में करुणा रस है ही नहीं।
शास्त्र एवं वेद वचन हैं....
न सा दीक्षा न सा भिक्षा न तद्दानं न तत्तपः ।
न तद् ध्यानं न तद् मौनं दया यत्र न विद्यते ॥
दया, करुणा के बगैर दीक्षा, भिक्षा, दान,
तप, ध्यान और मौन सब निरर्थक है।
महर्षि वेदव्यास जी की अठारह पुराणों
में दो बातें सारतत्व हैं।
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
अर्थात्-
प्रथम…..परोपकार से बड़ा कोई पुण्य
नहीं होता है और दूसरों के साथ किया
गया विश्वासघात, छल-कपट कर दुःख
देना इससे बड़ा कोई
पाप पृथ्वी पर है ही नहीं।
स्वार्थी से परेशान माँ भारती.…
किसी अनुभवी आदमी का अकाट्य वाक्य है-
तन की भूख तनिक है, तीन पाव या सेर!
मन का मान अपार है, कम लागे सुमेर!!
मतलब-
तन की भूख पोन-एक किलो अन्न धान्य,
भोजन से मिट जाएगी, लेकिन मन
की भूख असीमित है, यदि उसे सभी
सुमेर (पर्वत) भी मिल जाएं, तो भी उसके
मन की तृप्ती नहीं होगी।
क्या है? अपना चप्पा-अपना नमकीन
और थोड़ी सी वर्फ़....
वर्तमान समय केवल अपने में, अपने लिए
जीने का चल रहा है। अधिकांश लोगों की
जीवन शैली अपना चप्पा यानि अपनी बीबी/पत्नी/घरवाली तथा अपना नमकीन अर्थात केवल अपने बच्चे एवं थोड़ी सी वर्फ़ का
मतलब है- थोड़े-बहुत पैसे वाले रिश्तेदार
बस दुनिया की आधी आबादी यहीं तक
सिमट कर रह गई है।
आयुर्वेद बचा सकता है-कोरोना वायरस
जैसे सभी संक्रमण से।
देश के जाने-माने आयुर्वेदाचार्य वैद्य रत्न श्री वेणीमाधव शास्त्री, जो कि आयुर्वेद कॉलेज
ग्वालियर के लम्बे समय तक प्राचार्य रहे हैं:
इनका मानना है कि-आयुर्वेद पध्दति से भी हो सकता है…कोरोना/कोविड-19 का उपचार
आयुर्वेद शास्त्रों में सीधे तौर पर इस तरह के वायरस का उल्लेख नहीं है। लेकिन महर्षि चरक और आचार्य सुश्रुत ने अपने ग्रंथों में इस तरह के संक्रमणों का उल्लेख किया है, जिसके लक्षण-उपचार कोरोना से मेल खाते हैं।
आचार्य सुश्रुत ने ऐसी महामारियों को
अपसर्गिक आधि-व्याधि नाम दिया है।
रोगी को छूने, मरीज के श्वास की जद में आना, एक ही बिस्तर पर सोने, संक्रामित व्यक्ति के कपड़े आदि का उपयोग करने और इनके साथ भोजन करने से संक्रमण फैलते हैं।
हजारों साल पुराने चरक सहिंता के विमान स्थान में जन पदोधयन्श शीर्षक
में एक सम्पूर्ण अध्याय स्थापित किया है।
इस शास्त्र में कोरोना जैसे संक्रमण का
श्लोक सहित साहित्यिक लेख हैं।
ऐसी वैश्विक बीमारियों, महामारियों के फैलने के 4 सैद्धांतिक कारण बताए गए हैं। साथ ही इसके लक्षण के आधार पर उपचार और रोकथाम के उपायो का जिक्र किया है।
आयुर्वेद ने 50 हजार साल से भी अधिक
पहले यह बता दिया था कि- एक ही बीमारी के लक्षण एवं उसका दुष्प्रभाव अलग-अलग व्यक्तियों पर विभिन्न प्रकार से होता है।
आज के युग में फेल रहे कोरोना संक्रमण
आयुर्वेद के दोष धातु-मल की विषमता
(पैथोलॉजी) के मुताबिक वात-कफ प्रधान सन्निपात ज्वर की श्रेणी में आता है।
इस रोग में फेफड़ों में संक्रमण, श्वसन तंत्र में रुकावट, नाक-गला और सर्दी-खांसी, कफ रोग से ग्रस्त होते हैं। ऐसे संक्रमण काल में ह्रदय तथा उदर के ऊपर भी असर होता है।
आयुर्वेद में उपचार…
इस तरह के संक्रमित रोगियों को सामान्य रूप से त्रिभुवन कीर्ति रस,
नारदीय लक्ष्मी विलास रस
अमॄतम प्रवाल पिष्टी, अमॄतम गुडुचादि क्वाथ, कंठकारी क्वाथ, महासुदर्शन क्वाथ/चूर्ण/काढ़ा, अमॄतम पुट्पक्व
विषमज्वरान्तक रस, अमॄतम जयमंगल रस (स्वर्णयुक्त), अडूसा काढ़ा, सेंधा नमक,
तुलसी रस, षडंगपानिय क्वाथ, वृहत पंचमूल क्वाथ, त्रिकटु चूर्ण, चतुर्ज़ात चूर्ण और वासावलेह आदि दिया जा सकता है। सितोपलादि चूर्ण
(इसे घर में भी बनाकर अपने भोजन में जोड़ सकते है।)
अमॄतम सितोपलादि चूर्ण कैसे बनाये,
यह पिछला लेख अमॄतम पत्रिका पर
सर्च कर पढ़ सकते हैं।
यदि उपरोक्त सभी ओषधियाँ अलग-अलग नहीं ले सकें, तो अमॄतम लोजेन्ज माल्ट, अमॄतम च्यवनप्राश, अमॄतम फ्लूकी माल्ट का सेवन कर सकते हैं, इसमें ऊपर लिखी अधिकांश दवाएँ मिली हुई हैं।
श्वसन तंत्र की विकृति को ध्यान में रखकर
अमॄतम महालक्ष्मी विलास रस (स्वर्णयुक्त)
अभ्रक भस्म सहस्त्र पुटी या शतपुटी,
सन्निपात भैरव रस, रसराज रस (हृदय रोगाधिकार) मुक्त पिष्टी का उपयोग किया
जा सकता है
संक्रमण से हमेशा बचने, प्रतिबंधन (रोकथाम) के लिए 5 से 8 तुलसी पत्र अत्यन्त लाभकारी है।
हल्दी कम मात्रा में ही लाभकारी है–
भक्षण ओषधियों में एक दिन में 100 से 200 मिलीग्राम तक हल्दी पावडर भी हितकारी है। हल्दी गर्म होती है। अधिक मात्रा लेने से कफ सूखने लगता है, जिससे दमा, अस्थमा की समस्या हो जाती है।
इसलिए सदैव कम मात्रा में लेवें।
आयुर्वेद का व्यवहारिक ज्ञान, समाजिक और वैज्ञानिक प्रयोग बड़ी आपदा के प्रबंधन का सरल व सफल मार्ग बन सकता है।
आयुर्वेद की सबसे बड़ी विशेषता
यह है कि इसके कोई साइड इफ़ेक्ट नहीं होते, बल्कि साइड बेनिफिट अनेक हैं।
हर्बल दवाएँ इम्युनिटी पॉवर
बढ़ाने में सहायक होती है-
सदियों से से ही भारतीय संस्कृति एवं अमॄतम आयुर्वेद प्रतिरक्षा यानि इम्युनिटी को बढ़ावा देने के लिए जड़ी-बूटियों, ध्यान-योग और प्रार्थना की वकालत कर रही है।
AMRUTAM Pharmaceuticals
ग्वालियर द्वारा प्रकाशित अमृतम पत्रिका
से साभार…इस लेख में आयुर्वेद की पुरानी पुस्तकों, प्राचीन पुराणों का सारतत्व है।
जिन देशों ने भी अपनी प्राचीन परम्पराओं को पीछे पछाड़ा, वे आज रोग-राग के रहस्य को पकड़ नहीं पाए। प्राचीन पद्धतियों से हम सदा प्रसन्न रह सकते हैं। वे संस्कार हमें जीना सिखाते हैं ।
अमृतम के अकाट्य अक्षर-शब्द भी हमें रोगों की राह में ले जाने से बचाता है। भय-भ्रम मिटाता है। भय के सहने से विकार होते हैं,
जो हमारे चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवम मोक्ष को बेकार कर देते हैं।
प्राकृतिक नियम धर्म, संस्कृति
के प्रति लापरवाही शरीर में
रोगों का रायता फैलाकर व्याधि-बाधा से भर देती है ।व्यक्ति विकार का शिकार हुआ कि- काम खत्म।
विकारयुक्त विचार हमारा व्यवहार बदल देते हैं। फिर हम भय-भ्रम से भरकर भटकते रहते हैं।
सभी धर्म-शास्त्र लिखते हैं, जो भी भय से भरा है वही भाग्यहीन है। भय के पीछे मृत्यु का चेहरा है।
कभी तन की मौत, कभी मन की, तो कभी धन की मृत्यु का भय। ऐसी स्थिति में वतन भी बर्बाद हो जाते हैं।
जिन खोजा-तीन पाइयाँ…
शब्द और स्वयम्भू शिंवलिंग खोजने से
मिल जाते हैं। रोज-रोज की खोज से
अभी तक लगभग 35000 हजार शिवालयों
के दर्शन का सौभाग्य मिल चुका।
ग्रन्थ-पुराणों में शब्दो की खोज ने जीवन
में मौज करा दी। क्योंकि शब्द ब्रह्म हैं-
तन से हम सुख भोगते हैं,
भोग का रोग से राग-रिश्ता है
इसलिये यह भय सदा सताता है कि
तन रोगों से भरकर इसमें,
कहीं कोई रोग न लग जाये,
व्याधि के भय से हम चिकित्सक के पास भाग खड़े होते हैं। तत्काल लाभ के चक्कर मे अंग्रेजी दवाओं के इस्तेमाल से तन की अंदरूनी ताकत रोगप्रतिरोधक क्षमता
अर्थात जीवनीय शक्ति क्षीण कर बैठते हैं।
वर्तमान समय में अमृतम आयुर्वेद के लिये अनुभवों की अमूल्य धरोहर है।
मन-मस्तिष्क की मार हो या
तन के विकार अथवा अंतर्मन में
हाहाकार हो सब तरह की तकलीफ़
दूर कर अमॄतम दवाएँ तन-मन को
मजबूत बनाती हैं। आयुर्वेदक के
नवीन अनुसंधान और खोज रोगों
की फौज को काल कवलित कर देगी।
हर्बल मेडिसिन का सर्वाधिक असर
मन पर ज्यादा होता है। यह मरे मन
में मनन कर जोश भर देती हैं।
“मन की मृत्यु” से तन का पतन होकर
हमारी आत्मा दूषित हो जाती है ।
वेद-वाक्य है-
आत्मा ही परमात्मा है।
आत्मा मरी कि मानवता
का महाविनाश निश्चित है।
कहा गया
मन के मत से मत चलिओ,
ये जीते-जी मरवा देगा।
किसी महान आत्मा ने
मनुष्य की मदद के लिए
मन ही मन मनुहार की,कि
अरे, मन समझ-समझ पग धरियो,
इस दुनिया में कोई न अपना,
परछाईं से डरियो।
अमृतम जीवन का आनंद
अशांति त्यागने में है ।
मन की शांति से ही,
आकाश में अमन है ।
जरा (रोग), जिल्लत (अपमान) जहर युक्त जीवन अमृत से भर जाएगा । फिर मुख से बस इतना ही निकलेगा
“बोले सो निहाल”
निहाल (भला) करने वाले
की वाणी गुरुवाणी समान
हो जाती है। सभी धर्म ग्रंथों,
पंथों, संतों का यही वचन है ।
मन शांत हुआ कि
सारी सुस्ती, शातिर पन,
स्वार्थी पन, शरीर की शिथिलता,
समझदारी सहज-सरल हो जाती है।
धन भी जरूरी है...
धन की मृत्यु जीवन का अंत
है, क्योँ कि धन हमें पार लगाता है ।
धन से ही सारा मन -मलिन,मैला
या हल्का, साफ-सुथरा
हो जाता है ।
धन से ही ये तन ,वतन
ओर अमन-चमन है ।
सारी पूजा-प्रार्थना का कारण
धन की आवक है।
किंतु स्वस्थ्य शरीर सबसे बड़ी सम्पदा है…
पहले कहते थे-
धन गया तो कुछ नहीं गया,
तन गया तो कुछ-कुछ गया,
लेकिन चरित्र गया तो
सब कुछ चला गया ।
लेकिन अब तनिक बदल सा रहा है-
आधुनिक युग का आगाज है
चरित्र गया, तो कुछ नहीं गया
बल्कि आनंद आ गया ,
तन गया, तो कुछ गया,
परंतु धन चला गया, तो
समझों सब कुछ चला गया ।
धन के जाते ही रिश्तों में रिसाव होने
लगता है! ज्यादा रूठने व लालच से रिश्ते रिसने लगे हैं! धनवालों को ही रिझाने में लगे हैं लोग। यह एक राष्ट्रीय रोग हो रहा है! अपने रो रहे हैं, परायों पर रियायत (दया) हो रही हैं!
एक बहुत पुराना गीत है-
रिश्ते-नाते, प्यार-वफ़ा सब
वादे हैं, वादों का क्या ।
सेवा-दया का भाव त्यागकर चिकित्सा अब
विशाल व्यापार हो चुका है। मरा ओर जिंदा इंसान बिक रहा है। केवल भय-भ्रम, रोग-राग तथा अज्ञानता के कारण।
अतः हमें लौटना होगा, अपनी पुरानी
परिपाटी ओर प्राचीन प्राकृतिक
चिकित्सा की और।
पुनः स्थापित करना होगा अमृतम आयुर्वेद को!!! पहचानना होगा, प्राचीन
अपनी प्राचीन परंपराओं को।
परम् सत्ता को।
पूर्वजो, परिवार की
शाँति-सकूँन के लिए।
40-45 वर्षों के घनघोर संघर्ष,
अनुभव, अध्ययन, व अनुसंधान
के पश्चात
“अमृतम”
फार्मास्युटिकल्स
की स्थापना सन 2013 में
में इस पवित्र भाव से की गई
की अमृतम औषधियों का
प्रभाव अत्यंतअसरकारक एवम शीघ्र
लाभदायक हों।
जड़ी-बूटियों के स्वभाव को संगठित
कर करीब 45 तरह के माल्ट एक की आयुर्वेदिक चटनी, जेम एवं अवलेह भी कहतें हैं। इन माल्ट (malt) सहित विभिन्न करीब 90-100 अमृतम दवाओं का निर्माण प्रारम्भ किया है, ताकि सभी के सब, सदा के लिए असाध्य, जटिल, पुराने से पुराने रोग-विकारों का सर्वनाश हो सके ।
” अमृतम”
की यह नवीन निर्माण की प्रक्रिया में परम्परागत आयुर्वेदिक ग्रन्थों से परिपूर्ण है। फिलहाल प्रचार-प्रसार, प्रसिद्धि से परे होकर
हमने ऑनलाइन व्यापार शुरू किया है अपनी गुणवत्ता युक्त दवाओं के कारण हम अतिशीघ्र अंतरराष्ट्रीय ओर आयुर्वेद बाज़ारों में अपना सर्वोच्च स्थान बना रहे हैं और बहुत कम समय में दुनिया के 40 देशों में दवाओं का निर्यात किया जा रहा है। अत्यंत अल्प अवधि में विश्व में एक नया ब्रांड बनकर उभरेंगे ऐसा अमॄतम परिवार के सहयोगियों पर भरोसा है। हम यह स्थान बना भी लेंगे ।ऐसा ही विन्रम प्रयास जारी है।
अमृतम आयुर्वेद एक सम्पूर्ण
चिकित्सा पद्धति है। देशकाल, परिस्थितियों के अनुरूप नवीन प्रस्तुतिकरण आदि में परिवर्तन आवश्यक है।
अमॄतम को सदमार्ग दिखाने वाले कई
वेद-पुराण, ग्रंथ का आरम्भ
ओर अंत निर्देश देता है कि
‘परिवर्तन संसार का नियम है’
गीतासार का भी मूल सार यही है ।
सब चिंता त्याग, गहन चिंतन
पश्चात पीड़ित,परेशान पुरुषों
के लिये परम् परिश्रम से
नित्य नई व्याधियों
के उपचार हेतु नए प्रयोगों,
साधनों को खोजा ।
” अमृतम” द्वारा
सर्वजन्य हिताय-सर्वजन्य सुखाय
का ध्यान रखते हुए
जड़ी-बूटियों के अलावा
विभिन्न मुरब्बे, मेवा-मसाले,
जीवनीय द्रव्यों, रस औषधियों,
खनिज-पदार्थों ओर रस भस्मों
का आयुर्वेद की आधुनिक
पद्धतियों द्वारा अनुभवी
चिकित्सकों की देख-रेख
में उत्कृष्ट 100 के करीब
अमृतम दवाओं का निर्माण कर रहे हैं ।
अमृतम दवाएं
‘AMRUTM Gold। Malt’
वात,पित्त,कफ त्रिदोषनाशक हैं ।
इसके लगातार सेवन से
मनसा, वाचा, कर्मणा
तीनों प्रकार की शुद्धि होती है।
यह तन के तीन शूलों का नाशक है।
सख्त शरीर में शक्ति भरकर
चुस्ती-स्फूर्तिदायक है।
आमला, सेव मुरब्बा, गुलकंद,
केशर, विदारीकंद ,
अश्वगंघा, कौंच बीज,
सहस्त्रवीर्या, गिलोय,
शंखपुष्पी, अर्जुन,
त्रिफला, मकरध्वज, अभ्रक भस्म,
आदि अनेक अद्भुत असरदार
औषधियों का मिश्रण चमत्कारी
परिणामों को सुनिश्चित करता है ।
गर्मी और पित्त के कारण
प्रकट परेशानियों, त्वचा में
जलन, क्रोध, चिड़चिड़ापन,
बेचेनी, भूख न लगना,
खून की कमी, पेट साफ न होना,
पुरानी कब्ज, आलस्य,
थकावट विकारों को दूर करने
में सहायक है।
अमृतम दवाएँ रोगों को पुनः
पैदा नहीं होने देती ।
सेवन विधि –
5 से 12 साल तक के बच्चों को
सुबह-शाम आधा चमच्च दो बार गुनगुने
दूध से
शेष सभी उम्र के पुरुष-
महिलाओं को 2 या 3 बार
एक चम्मच गुनगुने दूध से
AMRUTAM GOLD MALT
परांठे या रोटी में लगाकर भी
खाया जा सकता है ।
शराब का नियमित या
कभी-कभी सेवन करने
वाले रात्रि में 1 या 2 चम्मच
सादे जल से लेवें, तो
लिवर, किडनी, सोरायसिस, गृहिणी रोग (आईबीएस ibs) एवम उदर रोगों की सुरक्षा होती है ।
महिलाएं इसका हमेशा सेवन
करें, तो लिकोरिया आदि स्त्री रोग
नहीं सताते ।
गर्भवती स्त्री भी इसे
निसंकोच ले, तो शिशु रोगरहित
रहता है।
रोगों को मारो लात
जब अमृतम है साथ
ओर अधिक जानकारी के लिए
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