२५ तरह के नेत्ररोग से बचाती है, या आयुर्वेदिक ओषधि…

भेषज्य रत्नावली ग्रंथ, नेत्ररोगाधिकार से साभार
मधुकादि लौह
मधुकं त्रिफलाचूर्णं लौहचूर्णं तथैव च। भक्षयेन्मधुसर्पिर्ध्यामक्षिरोगप्रशान्तये।
मुलेठीचूर्ण, आमलाचूर्ण, हरीतकीचूर्ण,  बहेड़ाचूर्ण और लौहभस्म सभी समभाग लें। इन पाँचों द्रव्यों को एक खरल में एक साथ मिलाकर ३ घण्टे तक मर्दन कर कांचपात्र में संग्रहीत करें।
सेवन विधि…१ ग्राम की मात्रा में इस औषधि को १ ग्राम मधु पंचामृत शहद और २ ग्राम घृत के साथ मिश्रित कर प्रतिदिन सुबह खाली पेट तथा शाम भोजन पूर्व २ बार चाटने से सभी प्रकार के नेत्ररोग नष्ट हो जाते हैं।
विमर्श – यह आयुर्वेद का सर्वश्रेष्ठ सप्तामृत लौह ही है। वे ही पाँचों द्रव्य इसमें भी होते हैं तथा अनुपान भी वही है।
अमृतम आई की माल्ट (EYEKEY Malt) में उपरोक्त औषधियों के अलावा गुलकंद, आंवला मुरब्बा, हरड़ मुरब्बा, त्रिफला घनसत्व, महात्रिफला घृत, बंग भस्म आदि का समावेश किया गया है।

Eyekey malt के फायदे….
तिमिर, कम दिखना, मोतियाबिंद, काला पानी आना, क्षत, रक्तराजिका, कण्डू, रात्र्यन्ध्य, नेत्रार्बुद, नेत्रतोद, नेत्रदाह, नेत्रशूल, उदर शूल, नेत्रपटलगतरोग, काच, पिल्ल आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।
आई की माल्टवमें मिलाया गया ‘सप्तामृत लौह’ केवल मनुष्यों के नेत्र रोगों को ही नष्ट करने के लिए कहा गया हो, ऐसी बात नहीं है; अपितु eyekey malt के निरंतर सेवन से दन्तरोग, कर्णरोग, ऊर्ध्वजत्रुगतरोग, कण्ठरोग तथा अन्य महारोगों एवं पलित रोग का भी नाश करता है।
चिरकाल से नष्ट हुई पाचकाग्नि को मध्याह्नकालीन सूर्य के प्रखर तेज के सदृश प्रदीप्त करता है।
आई की के सेवन से मनुष्य शुक्लपक्षीय रात्रि की शीतल चाँदनी में कामिनी स्त्रियों को बाहुपाश में आबद्ध कर बहुत देर तक सम्भोग कर सकता है।
 सप्तामृत लौह युक्त आई की माल्ट के सेवन से मुख नीलकमल जैसा सुगन्धित हो जाता है।
केश अञ्जन के समान काले हो जाते हैं ।
व्यक्ति गृध्र जैसी सुदीर्घ एवं तीक्ष्ण दृष्टि से युक्त हो जाता हैं तथा अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक सुखों से परिपूर्ण हो जाता है।
 शास्त्रों में सप्तामृत लौह के बारे में एक संस्कृत श्लोक का वर्णन है कि –
त्रिफलारज आयसं च चूर्णं
सह यष्टीमधुकं समांशयुक्तम्।
मधुना हविषा सदा दिनान्ते
पुरुषो निष्परिहारमाददीत ॥२२५।।
तिमिरक्षतरक्तराजिकण्डू-
क्षणदान्ध्यार्बुदतोददाहशूलान्।
पटलं सह काचपिल्लकं
शमयत्येव निषेवितः प्रयोगः ॥२२६॥
न च केवलमेव लोचनानां
विहितो रोगनिबर्हणाय पुंसाम्।
दशन श्रवणोर्ध्वकण्ठजानां
प्रशमे हेतुरयं महागदानाम् ।।१२७ ।।
पलितानि विनाशयेत्तथाऽग्नि
दयिताभुजपञ्जरोपगूढः
चिरनष्टं कुरुते रविप्रचण्डम् ।
स्फुटचन्द्राभरणासु यामिनीषु ॥२२८।।
 निषेवतेऽसौ चिरंसुरतानि
पुरुषो योगवरं निषेवमाणः ।
मुखेन नीलोत्पलचारुगन्धिना
शिरोरुहैरञ्जनमेचकप्रभैः
भवेच्च गृध्रस्य समानलोचनः
सुखैर्नरो वर्षशतञ्च जीवति ॥२२९ ॥

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