अमॄतम-क्यों करता है-रोगों का काम खत्म…

सुश्रुत संहिता में आयुर्वेद को अथर्ववेद
का 
उप-अंग कहा गया है-

अथर्ववेद मानव की उत्पत्ति से भी पहले
उपजा होने के कारण- हिन्दू धर्म के
चारों  वेदों में यह चौथा पवित्र ग्रन्थ है।

इसमें गृहस्थ-आश्रम अर्थात वैवाहिक जीवन
में पति-पत्नी, परिवार का पालन, कर्त्तव्यों
विवाह के नियमों तथा मान-मर्यादाओं का उल्लेख है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं।

!!ये त्रिषप्ताः परियन्ति!! 
अथर्ववेद का प्रथम मंत्र है

अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का वर्णन होने से अथर्ववेद ने ही आयुर्वेद का विश्वास  बढ़ाया।

शतपत ब्राह्मण किताब. ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को अथर्वा कहा है।
अतः अथर्वा ही भेषज है। भेषज ही
अमृतम ओषधियाँ है, जो अमृत है,
वही ब्रह्म है।

सबसे पहले अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहने के लिए- आरोग्य सेतु एप्प गूगल से डाउनलोड करें। इससे आयुष मंत्रालय भारत सरकार ने जारी किया है।

वेद का हर शब्द अमॄतम...

वेद और आयुर्वेद दोनों ही रहस्यमयी विषय
हैं। वेद की ऋचाएं/मन्त्र का हरेक व्यक्ति  अलग-अलग अर्थ निकलता है।

वेदों के बारे में एक बात पुराने समय
से प्रसिद्ध है कि-
जितने मुहँ-उतनी बातें
ऐसे ही आयुर्वेद की जड़ीबूटियां भी अनुपान
भेद से विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर करती है। जैसे-इच्छभेदी वटी सादे जल से लेने पर
दस्तावर है और गर्म पानी के साथ सेवन
करने से दस्त रोक देती है।
मीठा दही बल-वीर्य, शक्तिदायक है तथा
नमकीन दही पित्त-वात वृद्धिदाता है।
घी अमृत होने से बहुत लाभकारी है,
लेकिन समभाग मधु-घी विष बन जाता है।

!!पयःपानं भुजङ्गानाम केवलं विषवर्धनम्!!
अर्थात-पान खाने के बाद दूध-दही लेने वह
विषकारक हो जाता है। फिर, भी जिसकी जो समझ आ रहा है, वह कर रहा है। सबकी अलग-अलग बुद्धि है।

!!पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना!!
रोग इसलिए भी बढ़ रहे हैं।

वेद में स्वस्तययन, बलि, मंगल, होमनियम, प्रायश्चित और उपवास। ये सभी विषय आयुर्वेद के बताए हैं।

शारीरिक और मानसिक (आधि-व्याधि)
दोनों प्रकार के रोगों से मुक्त रखने के कारण महर्षि चरक ने आयुर्वेद को जीवन शास्त्र
बताया है। आयु की वृद्धि करने वाला वेद
ही आयुर्वेद कहलाता है। वेद-आयुर्वेद के अनुसार सबका स्वास्थ्य, आत्मशक्ति पर आधारित है।
।।आयुरस्मिन् विद्यते,
अनेन वाऽऽयुर्विन्दन्ति इत्यायुर्वेदः
।।
(सुश्रुत संहिता)
आयुर्वेद को आयु वृद्धि अर्थात् आरोग्य के
साथ दीर्घायु प्रदान करने वाला माना है।

!!विकारो धातु वैषम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते!!अर्थात्- धातुओं की विषमता को विकार कहते हैं और इनकी साम्यावस्था को आरोग्य कहते हैं।

वेद की ऋचा-आयुर्वेद की दवा” तन-मन
के विकारों का विनाश, विश्वास में वृद्धि
और पापों के प्रायश्चित हेतु प्रेरित करती है।

वेद प्राचीन भारत के ज्ञान ग्रन्थ हैं।
ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में ओषधि तथा चिकित्सा-विधियों का वर्णन है।
अथर्ववेद में आयुर्वेद का महत्व अत्यन्त
सराहनीय है।

राष्ट्रभाषा की महिमा, मृत्यु को दूर करने के उपाय, मुक्ति-मोक्ष प्रजनन-विज्ञान, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, गंभीर से गंभीर साध्य-असाध्य बीमारियों का निदान, शल्य चिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन तथा शान्ति-पुष्टि आदि अनुष्ठानों का वर्णन है।

अथर्ववेद आयुर्वेद का आदि ग्रन्थ कहा जाता है। अथर्व का अर्थ है-अग्नि!
अथर्ववेद में प्रकाश और सूर्य देवता का भी समावेश है। सूर्यदेव स्वास्थ्य प्रदाता हैं। वेदों में योगों एवं शारीरिक कष्टों का सामना करने के बारे में निर्देश है। स्वास्थ्य की देखभाल से सम्बंधित निम्न बातें इस वेद और आयुर्वेद में वर्णित हैं जैसे-
# भोजन और उसकी पाचन क्रिया।
# बौद्धिक विकास के उपाय।
# बीमारियों से बचने के तरीके।
# जड़ीबूटियों के बारे में जानकारी।
# दीर्घ आयु पाने के उपाय।
# अच्छा स्वास्थ्य। प्रसन्न मन कैसे रहे।
# अच्छा चाल-चलन, चरित्र के फायदे।
# खानपान का तरीका और मात्रा।
# योगों के स्वाद, गुणधर्म,उपयोग, विवरण।
# परहेज-क्या खाएं, क्या त्यागे?
# जड़ीबूटियों से भाग्योदय।
# ओषधियों की समिधा द्वारा हवन से लाभ।
# ओषधि स्नान से स्वस्थ्य रहने के सूत्र।
# जड़ीबूटियों द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की शान्ति।
# वृक्ष-बेल, बूटी से मारण-उच्चाटन, सम्मोहन। आदि अनेक चमत्कारों का उल्लेख है।

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जंग के बिना, जीवन में रंग नहीं आता….
अथर्ववेद के मुताबिक स्वास्थ्य रक्षा-प्रणाली मनुष्य के मनोबल पर केंद्रित है। आत्मविकास, आत्मविश्वास, आत्मशक्ति की वृद्धि और स्वास्थ्य लाभ के लिए मनोबल,
आत्मबल का प्रयोग अधिक कारगर है।
अथर्ववेद में इस प्रकार के मंत्रों का उल्लेख  मिलता है।
आयुर्वेदिक आचार्यों, महर्षियों का दृढ़ विश्वास था कि रोगों से बचाव तथा चिकित्सा के लिए वात-पित्त-कफ का सम होना तथा आत्मशक्ति का उपयोग आवश्यक है। यह रोगप्रतिरोधक क्षमता को कमजोर नहीं होने देता। उन दिनों बीमारियों को शत्रु की भांति समझा जाता था।
त्रिदोषों अर्थात वात, पित्त, कफ की अवधारणा पर आधारित अथर्ववेद सृष्टि का प्रथम ग्रन्थ है।
वैदिक युग में चिकित्सा निर्देश प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना करने की विधि पर भी आधारित थे।
जैसे-हे सूर्यदेव! हम त्रिताप से त्रस्त हैं अतः त्रिदोषों की तिकड़म से उत्पन्न बीमारियों से हमें मुक्ति दिलाइये।
वैद्यगणों की चिकित्सा भी निस्वार्थ भाव से प्रार्थना पर निर्भर थी।
वैद्य गण आव्हान करते थे कि-
हे सूर्य भगवान!
अमुख मरीज को सिरदर्द एवं कफ सम्बंधित  बीमारियों से मुक्ति दिलाइये, जो इसके अंग-अंग में प्रवेश कर चुकी है।
हे सूर्य! इस पीड़ित पुरुष को पृथ्वी और पानी से उत्पन्न कफ आकाश और वायु से उत्पन्न वातरोग तथा अग्नि से उपजा पित्त रोग आदि के दोषों से मुक्ति दिलाइये।

हे आदित्य देवता! इन त्रिदोषों के असंतुलन से उत्पन्न व्याधियां इस व्यक्ति को छोड़कर जंगलों तथा निर्जन पहाड़ियों पर चली जाएं।
मात्र मन्त्रों के मनन, उच्चारण और प्रार्थनाओं से लोग रोग मुक्त होकर 200 से 300 वर्ष तक स्वस्थ्य-मस्त रहकर जीते थे।

वेदों में पीड़ा रहित प्रसव के लिए भी अनेक मन्त्रो का विधान बताया गया है। अथर्ववेद में ये मन्त्र प्रसव के देवता पूषा (सूर्य का एक अन्य नाम) को संबोधित करते हुए पढ़े जाते हैं।
जैसे- हे पूषा देवता! इस प्रसव पीड़ित स्त्री के गर्भाशय को गर्भ-आवरण से मुक्त कर दो। दया करो औऱ इस गर्भिणी के गर्भ-बन्ध ढ़ीले कर दो।
हे वायुदेवता सूति! इस स्त्री के बच्चेदानी का मुख नीचे की तरफ कर दो और इसे प्रसव के लिए प्रेरित करो।
आपने कभी अनुभव किया होगा कि- असाध्य रोग से पीड़ित, मौत के मुहँ में जाने वाले व्यक्ति की निरोगता हेतु कुछ श्रद्धावान लोग महामृत्युंजय मन्त्र का सवा लक्ष्य जाप कराते हैं और मरीज स्वस्थ्य हो जाता है। आज भी धर्म को धारण करने वाले धीरज मति के लोग महादेव पर मन लगाकर विश्वास कर रोगरहित होकर चंगे हो जाते हैं।

वन-वन में बैठे है-बाबा वैद्यनाथ महादेव के कृपापात्र वैद्य…

आज भी देश के गरीब ग्रामीण क्षेत्रों में इन ईश्वरवादी वैद्यों की चिकित्सा प्रार्थना, मन्त्रों पर निर्भर है, इनके पास पहुंचने वाले असाध्य आधि-व्याधि से पीड़ित अधिकांश रोगी पूरी तरह ठीक हो जाते हैं, जिसे आधुनिक चिकित्सा पाखण्ड या चमत्कार मानती है।

@ रीवा के पास बेला ग्राम (अब जेपी नगर) के वैद्य स्वर्गीय श्री मंगलसिंह जाटव बिना पढ़े-लिखे होने के बाद भी असाध्य, अनसुलझी बीमारियों का इलाज झाड़फूंक से कर दिया करते थे। मिर्गी रोग, चक्कर आना तथा मानसिक विकारों से पीड़ित मरीजों को वह नागफनी के फूल में त्रिकटुगुड़ मिलाकर गोली देते थे, इससे अनेक पीड़ित हमेशा के लिए रोगरहित हो गए।
@ रीवा गोविंदगढ़ गाँव के नाड़ी वैद्य श्री शुक्ला जी किसी भी मरीज की नाड़ी पकड़कर उसकी बीमारी पलों में ही बता देते हैं। अभी तक वे, हजारों रोगियों का निशुल्क इलाज कर चुके हैं।
पैसे नहीं लेते हैं। भगवान शिव पर इनका अटूट भरोसा है। वैद्य शुक्लाजी बड़े विनम्र भाव से  कहतें भी हैं कि-मुझे कुछ नहीं आता। महावैद्य महादेव जैसा निदेश करते हैं…मैं वैसी ही ओषधि बता देता हूँ।

अपने 30 वर्षों के प्रवास में हजारों वैद्य-चिकित्सकों से मिला, उन सबका वर्णन मुशिकल है। कुछ और विशेष नाड़ी वैद्यों के बारे में बताया जा रहा है, जो आयुर्वेद का अच्छा ज्ञान रखते हैं-

【1】नाड़ीवैद्य देवेंद्र सिंह, रीवा “माडव” ग्राम परगना (बैकुण्ठपुर) 

【2】वैद्य रामकृष्ण गर्ग शिवनगर सतना

【3】वैद्य टीपी सिंह ग्राम चुरहट सीधी 

【4】वैद्य विश्वनाथ प्रताप सिंह टिकुरी नागौद जिला सतना

【5】वैद्य एस एस शर्मा कोतमा -अनूपपुर 

【6】वैद्य अमरेश अग्निहोत्री, ग्राम मऊ परगना सिरमौर रीवा

【7】वैद्य केपी तिवारी, ग्राम लौलाच परगना नागौद जिला सतना। 

【8】डॉ आर बी शुक्ला  विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल खजुराहो ग्राम बमीठा (छतरपुर

【9】अजयगढ़ जिला पन्ना के वैद्य श्यामलाल सेन भी अपने क्षेत्र के जाने-माने आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं।

यह सभी परमशिव भक्त वैद्य हैं। इनका मानना है कि-

हम महा दुर्बल, हम मतिहीना।
जो कछु कीना, शम्भू कीना।
। 

विश्व में बहुत से वैद्य हैं जिनकी चिकित्सा मानवीय हितों पर आधारित है

ज्वर, संक्रमण आदि का इलाज करने के विषय में अथर्ववेद में लिखा गया है कि- पीड़ाजनक ज्वर या ऊर्जा की कमी या संक्रमण अग्नि से उत्पन्न होता है।

हवनकुंड की पवित्र अग्नि पर गर्म जल छिड़कते हुए अघोर मन्त्र पढ़कर प्रार्थना की जाती थी कि वह अपनी उद्गम स्थली, अग्नि में समा जाए।
अथर्ववेद में में अनेक प्रकार के कोरोना जैसे अदृश्य संक्रमणों का उल्लेख है। मलेरिया भी उनमें से एक है। सभी प्रकार के ज्वर-संक्रमणों से ऋचाओं/श्लोकों द्वारा रोगी के शरीर से निकलने की प्रार्थना की जाती थी। उस युग के आयुर्वेदाचार्यों को वेद मन्त्रों की ऋचाओं का गहन ज्ञान था।

देवी-देवताओं की पसंद अमॄतम जड़ीबूटियां/ओषधियाँ…

भावप्रकाश निघण्टु, आदर्श आयुर्वेदिक आदि

शास्त्रों में हरेक बूटी की कह9ज करने वाले देवता नाम है जैसे-हरड़ को हर यानी महादेव ने खोजा, बहेड़ा (विभितकी) को भगवान विष्णु ने और आँवला को ब्रह्मा ने खोजा। त्रिदोषनाशक त्रिफला चूर्ण इन तीनों के समभाग मिलाने से बनता है।वेदों में ओषधियों को देव-स्वरूप माना गया है।

लोग रोग के जड़ को खत्म करने की जगह रोग को खत्म करना चाहते हैं। यही वजह है कि- आजकल अधिकतर पुरुष हो या नारी एक बीमारी से मुक्ति पाते ही दूसरी बीमारी से ग्रसित हो जाता है। इसमें बलिहारी भगवान की नहीं….हमारी है।

पंचतत्‍व से बना शरीरा….

 प्रकृति इन्ही पंचभूतों से बनी। सांख्य शास्त्र में ऐसा बताया है।

अन्नमय शरीर पंचमहाभूतों से बना है माना जाता है। (योगशास्त्र)

पंचतत्व की भौतिकी, धरणी के आधीन। क्षिति जल हवा सहेजते, पावक संग विलीन

सत्यानंद सरस्वती लिखित स्वर योग!

शिव स्वरोदय के सत्रहवें श्लोक के अनुसार

मानव शरीर पंचतत्‍व से बना है। देह में इन तत्वों के कम या ज्यादा होने से वैसी ही पीड़ा पनपने लगती है अर्थात रोग उत्पन्न होने लगते हैं।

{१} अग्‍नि तत्‍व की कमी से चिड़चिड़ापन, क्रोध मानसिक अशान्ति,नींद न आना, निंद्रा, भूख, प्‍यास, आलस्‍य, शरीर का तेज,  पाचनतन्त्र की खराबी और शरीर का तापमान का एहसास किया जाता है।

{२} आकाश तत्‍व कम होने से काम, क्रोध, मोह, लोक, लज्‍जा, खालीपन, दुख, चिन्‍ता, जीवन से अरुचि आदि का ज्ञान होता है। यदि ऐसा हो, तो कुण्डली/पत्रिका में केतु कमजोर दर्शाता है।  केतु आकाश तत्व और पितृदोष का कारक ग्रह है। राहु-केतु विषय पर पूरा एक लेख अलग से दिया जाएगा।

{३} पृथ्वी तत्‍व मानव शरीर में अस्‍थ्‍िा, त्‍वचा/स्किन, मासपेशियां, नाखून, केश का प्रतिनिधत्‍व करता है।

{४} जल तत्‍व से रक्‍त, मल, मूत्र, मज्‍जा, पसीना, कफ, लार का प्रतिनिधत्‍व पता चलता है।

{५} वायु तत्‍व का कार्य है-सिकोडना, फैलना, चलना, बोलना, धारण करना, उतारना, चिन्‍तन, मनन, स्‍पर्श, का ज्ञान होता है। इन पंचमहाभूतों के बारे में बताना लाखों शब्दों में सम्भव नहीं है। ऐसे दुर्लभ रहस्य पढ़ने के लिए अमॄतम पत्रिका का ऑनलाइन अध्ययन करते रहें।

अल्लाह का ही हल्लाअ है चारो तरफ़...

अल्लाह को उल्टा लिखे, तो हल्ला बन जाता है। कुछ नासमझ वाद-विवाद में उलझकर दिमाग में मवाद भर लेते है।

कभी अपनेपन से भरा एक गीत सुना था-

अल्लाह-ईश्वर एक ही नाम,

सबको सन्मति दे भगवान। 

ऐसा हो जाए, तो इस जहान में हर कोई इंसान- महान बन जाये और लहूलुहान रुक जाए।

अलइलअह अर्थात अल्लाह का विश्लेषण करें, तो पंचतत्व ही पहचान निकलेगी।

 अ- आब अर्थात जल।

 ल- लब यानी प्रथ्वी,

 इ- इला यानी दिव्य पदार्थ अर्थात् वायु,

 अ- से आशय आकाश से है।

 ह- का अर्थ है… हरक यानी अग्नि।

 भगवान का पंचमहाभूत विज्ञान

 ठीक इसी तरह भगवान भी पंचतत्वों का समुच्चय है-

– से भूमि

– से गगन

– से वायु

– अग्नि  और

– से नीर इस प्रकार भगवान के इन 5 शब्दों में पंचतत्व समाहित है।

ह्रदय से चिन्तन करें, तो ज्ञात होगा कि अल्लाह या भगवान ही इन पंचमहाभूतों का महान कारक है, जिससे सारा सन्सार, सृष्टि या ब्रह्माण्ड गतिमान है।

भगवान के इसी ज्ञान-विज्ञान के मुताबिक सम्पूर्ण चराचर जीव-जगत एक दूसरे के पूरक घटक बनकर आपस में जुड़े हैं। यदि इन पंचमहाभूतों का संतुलन बिगड़ जाता है तो हमारे अंदर भिन्न-भिन्न प्रकार के विकार उत्पन्न होने लग जाते हैं।

सृष्टि की सर्वसत्ता का आधार महाकाल ही है। शिव में सब कुछ है। शिव के बिना सारा शरीर शव समान है….तभी तो हर हर हर महादेव कहकर  प्रार्थना की जाती है….

तेजो सि  तेजो  मयि  धेहि, 

वीर्यमसि  वीर्य  मयि  धेहि,

बलमसि  बलं   मयि  धेहि,     

ओजोसि  ओजो मयि धेहि। (यजुर्वेद १९-९)

अर्थात-

हे ईश्वर, मालिक, हे दाता! आप तेजस्वरूप हैं, मुझमें तेज स्थापित कीजिए; आप वीर्य रूप हैं, मुझे वीर्यवान् कीजिए; आप बल रूप हैं, मुझे बलवान बनाइए; आप ओज स्वरूप हैं, मुझे ओजस्वी बनाइए।

विश्व में विश्वास पर बल देते हुए लिखा:-

अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।उदारचरितानां तु वसुधैव  कुटुम्बकम् ।अर्थात-हे भोलेनाथ! मेरी छोटी सोच मिटाकर, तन-मन में लोच (बड़प्पन) पैदा करो। “अपना-पराया” यह विचार छोटे मन एवं बुद्धि वालों का है। उदार चरित्र वालों के लिए, तो पूरी पृथ्वी ही परिवार है।

भगवान ने सबको सांस दी है, 92 करोड़ साँसों का गणित जानने के लिए लिंक क्लिक करें- https://amrutampatrika.com/sansarsaanskakhelhai/

अमॄतम-क्यों करता है-रोगों का काम खत्म

अमॄतम दवाएँ भी वैदिक परम्पराओं से निर्मित की जाती है। उन्हें मन्त्रो से सम्पुट कर ऊर्जावान बनाया जाता है, ताकि रोगी के रोगनाश के साथ-साथ उसका मन-मस्तिष्क भी मस्त-प्रसन्न और शान्त हो जाए। अमॄतम द्वारा आयुर्वेद की 50 हजार वर्ष प्राचीन पध्दति के मुताबिक  संस्कारों से युक्त दवाइयों का निर्माण किया जा रहा है।

कर्मकांडी ब्राह्मणों का आशीर्वाद....

इस पुण्य कार्य हेतु कर्मकांड का सम्पूर्ण ज्ञान रखने वाले वैदिक ब्राह्मणों की व्यवस्था की गई है, जो निरन्तर रोग दूर करने वाली वेद-ऋचाओं के जाप में तल्लीन हैं।

पात-पात में विश्वनाथ

भारतीय चिकित्सा विज्ञान अग्नि, आकाश, वायु, पृथ्वी ओर जल इन पंचमहाभूतों सहित
वृक्ष, नक्षत्र, ग्रह, जड़ीबूटियां, पौधे, नदियां, झीलें, समुद्र, पर्वत ये सब मानव जीवन के अटूट अंग होने के कारण देवता समान हैं।
भारतीय दर्शन में तुलसी, आवलां, पीपल, बरगद की पूजा का विधान है, इनके लिए महीना एवं तिथियां भी निर्धारित हैं।
ताकि मनुष्यों के मन में इनके प्रति सम्मान, कृतज्ञता, एकरूपता की भावना बनी रहे।
यह माँ अन्नपूर्णा की शक्ति और अखंडता का आदर करने की एक विधि है।

प्रकृति का एक सीधा से नियम है कि जो भी हम इन्हें अर्पित करेंगे प्रकृति उसका हजार गुना हमें लौटा देती है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार चाहें वे पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म ही क्यों न हो। अच्छा समर्पित करेंगे, तो 100 गुना अच्छा प्राप्त करेंगे। बुरा का बुरा ही मिलेगा।
अथर्ववेद (१:२४) में जड़ीबूटियों, उनकी विशेषताओं एवं उनकी विशिष्ट भूमिका का विस्तृत वर्णन है।
जैसे-हल्दी के लिए लिखा है….
हे हरिद्रे! तुममें सब गुण हैं, आप सर्वोत्तम ओषधि हो।
यकृत शोथ (लिवर की सूजन),
मलेरिया, मोतीझरा यानि टाइफाइड,
क्षयरोग (टीबी), मिर्गी (अपस्मार),
कृमियों, जीवाणु-विषाणुओं
 का नाश
 करने के लिए भी मन्त्र पाए जाते हैं।

मानव-शरीर की रचना का अथर्ववेद
(११:३३) में वर्णन है।
यह समझना भी जरूरी है कि इस सम्पूर्ण प्रणाली में यह भौतिक शरीर 5 मौलिक तत्वों से बनता है, जो अनेक अदृश्य तत्वों में विभाजित हो जाते हैं। ये पांचों तत्व संगठित-पुनर्संगठित होकर लगातार बदलते रहते हैं।
शरीर के सभी भौतिक और मानसिक कार्य त्रिदोषों– वात, पित्त, कफ से सम्पन्न होकर शरीर को को स्वस्थ्य रखने में सहयोग देती हैं। ये तीनों पूरे शरीर की अखण्डता की रक्षा करते हैं एवं शारीरिक व मानसिक प्रणाली को नियंत्रित करते हैं।
त्रिदोषों का समीकरण बिगड़ने से शरीर क्षीण होने लगता है। आयुर्वेद के अनुसार मानव-शरीर की मूल कार्यप्रणाली में मन व देह दोनों का अस्तित्व है।
तीनो दोष न केवल मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को नियंत्रित करते हैं, बल्कि इंसान को ब्रह्माण्ड से भी जोड़ते हैं।
नाड़ी-समूह को योगशास्त्र में ७२ हजार माना गया है। यह अधिक भी हो सकती हैं।

मानव-शरीर में इड़ा-पिङ्गला-सुषुम्ना
(ब्रह्मा, विष्णु, महेश) इन्हें दैविक, दैहिक और भौतिक इन तीन शरीर तथा तीन लोकों…आकाश-प्रथ्वी-पाताल का प्रतिनिधि बताया गया है। इन तीनों को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि, शिवग्रंथि के नामों से इन्ही गुच्छकों की चर्चा अवधूत साधना विज्ञान में की गई है।

वेद हो या आयुर्वेद इसमें तन-,मन-अन्तर्मन और आत्मा के बारे में अनेक रहस्य भरे हैं। इन भारतीय पुरातन पुस्तकों में ज्ञान का खजाना दबा हुआ है।
समुद्र मन्थन में निकले 14 रत्न समाधिस्थ शरीर की चौदह विधुत धारायें/नाड़ियों की प्रतीक है।

सूक्ष्म शरीर में प्रमुख प्राण-संचारिणी चौदह नाड़ियों के नाम इस प्रकार हैं…
{१} सुषुम्ना {२} इड़ा {३} पिंगला {४} गांधारी
{५} हस्ति जिह्वा {६} कुहू {७} सरस्वती
{८} पूषा {९} शंखनी  {१०} वारुणी
{११} अलंबुषा {१२} विश्वोधरा
{१३} यशस्विनी {१४} पयस्विनी
जो गहन साधना के दौरान जागृत हो जाती हैं। अवधूत या परमहंस सिद्धि पाने के लिए यही प्रक्रिया अपनाते हैं।

दर्शनोपनिषद में 72 प्रधान नाड़ियों को
◆सरस्वती, ◆कुहू, ◆गंधारा, ◆हस्ति,
◆जिह्वा, ◆पूषा, ◆यशस्विनी, ◆विश्वोदरा, ◆वरुणा, ◆शंखिनी, ◆अलंबुषा आदि नाम
दिए गए हैं और उनके भीतर काम करने
वाली शक्ति धाराओं को
ब्रह्मा, ∆विष्णु, ∆शिव, ∆पुषत्, ∆वायु, ∆वरुण, ∆सूर्य, ∆चन्द्रमा, ∆अग्नि
आदि देवताओं के नाम से संबोधित
किया गया है।
इनमें तीन प्रधान नाड़ियाँ हैं…
(¶) दृष्टि नाड़ियाँ   (ऑप्टिक नर्व्स)….
यानि देखने की शक्ति। त्रिकालदर्शी
ऋषि इससे सिद्धि प्राप्त करते हैं।
(¶¶) श्रवण नाड़ियाँ (ऑडोटरी नर्व्स)….
इस क्रिया में साधक के कानों में चारो
तरफ !!ॐ!! का गुंजायमान होता रहता है।
(¶¶¶) घ्राण नाड़ियाँ (ऑल्फेक्ट्री नर्व्स)…
ध्यान द्वारा सूंघने की क्षमता से प्रकृति की हलचल का ज्ञान प्राप्त होता है।
वेद हो या आयुर्वेद दोनों विस्तृत विज्ञान है,
जो यह मानता है कि स्वस्थ्य शरीर में ईश्वर
का वास होने से यह ऐश्वर्य का प्रतीक है।

प्रसिद्ध आयुर्वेदिक संस्थाओं की शिथिलता..
पिछले 200 वर्षों से आयुर्वेद की बहुत पुरानी, जानी-मानी कम्पनियों ने भी आयुर्वेद के रहस्यों को खोजने या अनुसंधान में कोई खास प्रयास नहीं किया। आज भी अनेकों नामी-ग्रामी संस्थाओं की दवाएँ 100 साल से भी पुराने योग-घटकों से निर्मित की जा रही हैं, जो
अब अधिक असरकारी नहीं है।
देशकाल, परिस्थितियों एवं मौसम के अनुरूप फार्मूलों में परिवर्तन अनिवार्य है। जिस पर किसी का ध्यान नहीं है। आयुर्वेद के अधिकांश सीरप में 50% से अधिक शक्कर का मिश्रण होने से दवाएँ रोग दूर करने में कारगर नहीं है।

त्रिफला अब न करें-भला….

त्रिफला चूर्ण में छोटी हरड़ का उपयोग होना चाहिए, लेकिन सभी कम्पनियों बड़ी हरड़ से त्रिफला बनाते हैं। दोनों के मूल्यों में 8 से 10 गुना रेट का अंतर है। इसलिए भी आयुर्वेद असरकारी नहीं हो पाता।

पैसे की भूख ने आयुर्वेद को बदनाम और बर्बाद कर दिया।
पुरातन काल से भारत में सर्पगन्धा का इस्तेमाल रक्तचाप (बीपी) कम करने के लिए किया जाता रहा है। फ्रांस के वनस्पति वैज्ञानिक फ्लूमिए ने  सन 1703 में इसके चमत्कारी गुणों के बारे में बताया था। सर्पगन्धा में रेजपीन और रिसाइनेमाईन नामक दो सक्रिय यौगिक प्राप्त करने में सफलता हासिल की।
सोमलता – खाँसी-अस्थमा की प्राचीन ओषधि है। इस पौधे में “एफिड्राईन” नामक यौगिक प्रमुख रूप से पाया जाता है। विश्व में अस्थमा का इलाज केवल इसी से सम्भव है। भारत की बड़ी दवा निर्माता कम्पनियों ने केवल इसके उपयोग तक इस्तेमाल किया।

इन सब बातों का अध्ययन, अनुसंधान करके अमॄतम ने दुनिया में पहली बार आयुर्वेदिक चटनी के रूप में अवलेह (माल्ट) का निर्माण किया। इन सभी 50 से ज्यादा माल्ट में 10 तरह के मुरब्बे, जड़ीबूटियों का काढ़ा, त्रिदोषनाशक मसाले, बलवर्धक भस्में और रसकारक रसोषधियों का समावेश किया, जो पूर्णतः
हानिरहित हैं।

आयुर्वेद ही अब आशा की किरण है….
आयुर्वेद एक सम्पूर्ण चिकित्सा और जीवन पध्दति है। विश्वात्मा और प्रकृति इन दो मुख्य घटकों से मिलकर ब्रह्माण्ड बना है। मानव शरीर प्रकृति का एक अंश है और आत्मा परमपुरुष शिव का।
कर्म करना हमारा सहज स्वभाव है। कर्म के कारण ही सभी आत्माएं जन्म और मृत्यु के चक्र में उलझी रहती हैं। सन्सार इसी को कहते हैं।

श्रीमद्भागवत, गरुड़पुराण, ईश्वरोउपनिषद
आदि पुरानी पुस्तकों में लिखा गया कि-
एक जन्म में किये गए कर्म-कुकर्मों के आधार पर दूसरा जन्म मिलता है। इस जीवन में सुख-दुःख का कारण पूर्व जन्म के कर्मो का फल ही है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा पध्दति रोगों के साथ-साथ पूर्व जन्म कृत पापों का भी क्षय करती है। क्योंकि इसमें ईश्वर अंश उपलब्ध है।

वेद और आयुर्वेद से यही ज्ञान मिलता है कि
जिसकी चर्चा अध्यात्म, सभी धर्मों के शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान में बार-बार की गई है वह निश्चित ही हर कसौटी पर खरा ही निकलेगा। बस समझ-समझ का फेर है।
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मनुष्य क्या चाहता है?

वेद और आयुर्वेद मानव जीवन का एक विज्ञान है, जो गर्भ अवस्था से लेकर मृत्यु पर्यन्त जीवन के हर पहलु पर प्रकाश डालता हैं। पैदा होने के पश्चात जब मनुष्य होश  सम्भालता है और उस की बुद्धि का विनाश न हुआ हो तब उसकी जीवन में तीन महत्वपूर्ण  ऐषणाऐं (इच्छाऐं-तृष्णाऐ) होती है
इहख़लूपुरुषेनानुपहत…….. परलोकैशणेती।। (चरक सूत्र अ.11/3)
■ प्राण ऐषणा – जीवित रहने की लालसा।
व्यक्ति कभी मरना नही चाहता।
■ धन ऐषणा- अथाह धन कमाने की इच्छा।
मनुष्य इस तृष्णा से कभी तृप्त नहीं होता।
■ परलोक ऐषणा-
इस लोक के बाद हर इन्सान की परलौक
की कामना। इसे सुधारकर मोक्ष चाहता है।
वर्तमान परिपेक्ष में कहें, तो वह अत्यंत
प्रसिद्ध होना चाहता है कि मृत्यु के बाद
भी लोग उसे याद रखे।

वेद अथवा आयुर्वेद में अमृत की खोज, तो तभी हो सकेगी, जब हम मन से अन्तर्मन का मन्थन करेंगे। अभी तो भारत में भारत को खोजना आवश्यक है। जिस देश में विवाह में गारिया (गाली), होली में फाग और बरसात में राग गाये जाते हों, आज उस भारत के लोग पान पराग की पीक लीलकर मस्त हो रहे हैं। यह तन्दरुस्ती में बाधक है।
दारू पीकर दयाहीन होना भी अनुचित है।
अय्यासी और अय्यारी ने यारी को आरी से
काट डाला है। यह ठीक नहीं है।
उल्टे-सीधे तरीकों से पैसा पाने की परम्परा ने
भी प्राचीन धरोहर को कलंकित किया है। इससे पूर्वज-पितरों की आत्मा पीड़ित है।
हम सभी को मिलकर स्वच्छ तन-स्वस्थ्य वतन के लिए प्रयास करना पड़ेगा। भारत के विश्व गुरु बनने की संभावनाएं असीम-अनंत है।
इतने निवेदन के साथ…
एक तेरा साथ हमको, दो जहां से प्यारा है।
न मिले सन्सार, भोलेनाथ तो हमारा है।।
शिव है, तो सब सहारा है…
आपके स्वास्थ्य की जानकारी भारत सरकार को भी हो, इस हेतु आयुष मंत्रालय द्वारा जारी आरोग्य सेतु एप्प गूगल से डाउनलोड करना न भूलें।

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