जाने हम विष को पीकर उसके आनन्द में क्यो डूब जाते है,….

|| अमृतम ||
हर पल आपके साथ है हम

हम प्रयासपूर्वक विष को त्यागे प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या विष को त्यागने में प्रयास करना पडता है? हाँ, इस संसार की बडी अद्भुत गति है। विष को त्यागने में प्रयास तो अति साधारण स्तर है, विष को त्यागने में बडे-बडे, सन्त, महात्मा, योगी, ऋषि, मुनि भी असफल होते रहे हैं।

हम में और संन्तो में अन्तर यह है कि वे विष पान कर संभल जाते है और आज हम है कि विष हमारे लिए कुत्ते की हड्डी की तरह हो गया है।

कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है। अपने मुख से निकले खून का स्वाद लेकर प्रसन्न होता है कि अहा,हा,हड्डी से बडा स्वादिष्ट रक्त निकल रहा है।

ठीक यही गति हमारी है। हम विष को पीकर उसके आनन्द में डूब जाते है, क्योकि हम यह नही समझते है कि यह आनन्द हमें विष से मिल रहा है।

सत्यता में वह झूठा आनन्द तो हमारी शक्ति का क्षरण है। अपनी आत्मा के साथ विष्वासघाती है। परमपिता परमात्मा के साथ धोखा है,दगा है। दगा और दादागिरि ( गुरूर,अहंकार ) में मानव का कोई सानी नही। जबकि

दगा किसी का सगा नही है

नही किया तो करके देख

जिसने जग में दगा किया है

उनके जाकर घर को देख

अमृत पीना कठिन है, क्योकि अमृत पीने में हमें महाभ्रम हो जाता है कि हमारी शक्ति का क्षरण हो रहा है, जबकि सत्यमय कर्मो से हमारी आन्तरिक शक्ति बढती है।

इसलिए हमें इसका आनन्द कुछ विलम्ब से मिलता है। और हम समझते है कि हम हानि में जा रहे हैं।अनुभव में आया है कि छात्रों को सिनेमा के कई गाने, जितने षीघ्र और स्पष्ट रूप से याद हो जाते है,

उतनी जल्दी और स्पष्ट रूप से उनका पाठ्य विषय याद नही होता। जबकि सिनेमा के गाने उनके लिए विष और उनका पाठ्य विषय अमृत होता है।

जो छात्र विष और अमृत के भेद को समझ लेते है, वे ही छात्र जीवन में अपना और अपने माध्यम से देष और दूसरो का विकास, कल्याण करते रहें और करते रहेंगे।

यह बात तो छात्रो की रही, हम विज्ञ, बुजुर्ग और सयाने लोगों की प्रवृत्ति भी विष-पान में तीव्रता से लगी है। विष्व का सबसे बडा आष्चर्य है कि आविष्कर्ता वैज्ञानिक ही अपनी आविष्कृत वस्तु के सहगामी दुष्प्रभाव की सूचना भी देते है, उपभोक्ताओं की स्थिति यह है कि वे सहगामी दुष्प्रभावों की पूरी तरह अनदेखी कर रहें है।आज विज्ञान ने हमारे समक्ष ऐसे  आकर्षक अविष्कार प्रस्तुत कर दिए है कि उनके बिना हमें मानव -जीवन निःसार लगने लगता है।इन वस्तुओ को जुटाने के लिए हमें धन की आवष्यकता पडती है। अतः धनार्जन के लिए छल  कपट, बेइमानी, असत्य, दूसरो को ठगना, हत्या आदि तक स्वीकार कर लिया गया है ओर इन विधियों से जो धन अर्जित किया जाता है, उससे हम अपनी सुख-सुविधा के लिए भौतिक व वैज्ञानिकअविष्कारों को जुटाकर समाज के प्रतिष्ठित और सम्मानीय व्यक्ति बन जाते है और जो लोग गलाकाट छल-प्रपंच में पिछड जाते है वे लोग अपने सन्तोष के लिए उनके अनुयायी, प्रषंक और भक्त बन जाते है कथा भागवत में उलझ कर भाग्य के भरोसे बैठकर भागना बंद कर देते हैै।

नित नये प्रक्षेणास्त्रों का अविष्कार व परीक्षण किया जा रहा है,

इन सबसे पृथ्वि की विनाषक सूर्य की पराबैगनी किरणों से धरती की रक्षक ओजोन पर्त पतली हो रही है,

जो धरती के सम्पूर्ण वायुमण्डल को दूषित कर रहें है।

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